यौनेच्छा और नैतिकता / पवित्र पाप / सुशोभित
सुशोभित
‘बुक ऑफ़ जेनेसिस’ में ‘ईदन’ के उद्यान का रूपक अनेक बातों के अलावा यह भी बतलाता है कि अवज्ञा और यौनेच्छा मनुष्य के पतन का कारण बने थे।
ईश्वर की अवज्ञा के आरोप में आदम और हव्वा को स्वर्ग से निष्कासित कर दिया गया था। ‘फ़ॉल ऑफ़ द मैन’ का पूर्वग्रह वहां स्थापित हुआ। अवज्ञा के परिणामस्वरूप ही यौनेच्छा प्रकट हुई थी, कार्य-कारण संबंध के रूप में।
यौनेच्छा तभी से मनुष्य के सामूहिक अवचेतन में पतनशीलता का प्रतीक बनी हुई है, इस हद तक कि प्रेम को भी वे ‘फ़ॉलिंग इन लव’ की संज्ञा से पुकारते हैं। एमील स्योरां ने अपने निबंध ‘द ट्री ऑफ़ लाइफ़’ में ईदन के उद्यान को मनुष्य और ईश्वर के संघर्ष का कुरुक्षेत्र माना है, किंतु वह एक भिन्न विमर्श का विषय है।
वास्तव में मनुष्यता का समूचा इतिहास अपनी यौनेच्छा के प्रति भय, शर्म, घृणा, ग्लानि का इतिहास रहा है।
साथ ही, मनुष्यता का समूचा इतिहास यौनेच्छा के अदम्य आवेग के समक्ष लगभग अवमानित होकर घुटने टेक देने का भी इतिहास रहा है।
इन दोनों स्थितियों ने मनुष्य के भीतर जो द्वैधा निर्मित की है, वह ‘ह्यूमन कंडीशन’ के मूल में है और निकट भविष्य में बदलने नहीं वाली।
किंतु तथ्य यही है कि यौनेच्छा जैसी अत्यंत मूलभूत और स्वाभाविक चीज़ के बारे में उचित-अनुचित या नैतिक-अनैतिक की भाषा में बात करना कुबुद्धि का परिचायक है। वह दुर्भाग्यपूर्ण हो सकती है या नहीं हो सकती, उसके दूसरे कारण या प्रभाव हो सकते हैं, किंतु वो उचित-अनुचित के निर्णय से परे है।
अदम्य यौनेच्छा के प्रति हमारे भीतर पैठे अनेक भयों में से एक यह भी है कि इसके उद्घाटन से सामाजिक संरचना ध्वस्त हो जाएगी। और यह भय निर्मूल नहीं है।
मैं यहां पर यह स्थापना नहीं करने वाला कि वैसा होगा या नहीं होगा, किंतु मेरी यह स्थापना अवश्य है कि सामाजिक व्यवस्था और नैतिकता का कोई परस्पर संबंध होता नहीं है, और हमें इसे स्पष्टतया समझ लेना चाहिए।
कोई चीज़ सामाजिक व्यवस्था को क़ायम रखने वाली होकर भी अनैतिक हो सकती है।
कोई चीज़ सामाजिक व्यवस्था को भंग करने वाली होकर भी नैतिक हो सकती है।
और कोई चीज़ सामाजिक व्यवस्था को भंग करने वाली होकर या उसे अक्षुण्ण रखने वाली होकर नैतिक और अनैतिक के मानदंडों से परे भी हो सकती है।
यौनेच्छा के बारे में सामान्यतया दो प्रकार के अतिवादी विचार मिलते हैं :
एक यह कि यौनेच्छा का प्रबंधन और नियोजन व्यापक सामुदायिक दृष्टि से अपरिहार्य और वांछित है।
दूसरा यह कि यौनेच्छा की निर्बाध और उन्मुक्त अभिव्यक्ति में ही व्यक्ति की मुक्ति निहित है।
पहले विचार के पोषक परंपरावादी हैं। दूसरे विचार के पोषक उदारवादी हैं। और दोनों ही इसको लेकर दो अतियों पर हैं। वो इसलिए कि शौच, शयन, क्षुधा, भय, मैथुन, ये सभी प्राकृतिक आवेग हैं और इन पर मनुष्य का पूर्ण वश नहीं है। इनका प्रबंधन ना किया जाए तो ये आपको असहज करने वाली स्थिति में अवश्य डाल सकते हैं, किंतु नैतिक-अनैतिक के भेदाभेद से वे परे हैं।
यानी उन्मुक्त यौन-संसर्ग- हो सकता है- निजी रूप से असहज और सामाजिक रूप से विचलित कर देने वाली स्थिति निर्मित करता हो, किंतु अगर वो दो पक्षों की परस्पर सहमति से है तो किसी भी लिहाज़ से वो ना तो अनैतिक है, ना पाप है, और ना अपराध है। दूसरा तरफ़, यौनेच्छा की निर्बाध और उन्मुक्त अभिव्यक्ति इसलिए मानव-मुक्ति नहीं है, क्योंकि जो वृत्ति प्रकृति के एक चक्र द्वारा आप पर थोपी गई है, आप जिसके दास और अनुचर हैं, जिसका पालन आपको करना ही है, जो अवश्यम्भावी है, उसमें चाहे जितना सुख हो, मुक्ति तो निश्चय ही नहीं है। सम्भोग से समाधि कभी नहीं मिलने वाली है।
इन अर्थों में यौनेच्छा ना तो लज्जा का विषय है, ना गौरव का विषय है। वह एक प्राकृतिक व्यवस्था के रूप में संतानोत्पत्ति का उपकरण है और रागात्मक आलोड़न के रूप में सुख और रोमांच का विषय है। किंतु वह नीति-अनीति के द्वैत से परे है। सनद रहे कि नैतिकता का संबंध उच्चतर मानवीय मूल्यों से होता है, सामाजिक बाध्यताओं से नहीं। उसे संविधान नहीं तय करता, मनुष्य की अंतश्चेतना तय करती है।
अनेक ऐसे क़ानून हैं, जिनमें व्यभिचार को अनैतिक और हत्या को वांछनीय बताया गया है। जबकि सत्य तो यही है कि हत्या हर हाल में अनैतिक है और व्यभिचार हर हाल में स्वाभाविक है। देशकाल परिस्थिति को देखकर उसके औचित्य का निर्णय बदल सकता है। किंतु वह अपराध हरगिज़ नहीं है।
इन अर्थों में, यौनेच्छा पर नैतिकता का बंधन नहीं होता है। पारिवारिक विघटन, सामाजिक निषेध, जगहंसाई, बदचलनी का आरोप, इस सबका उस पर अंकुश होता है। जो लोग यौन-शुचिता का पालन करते हैं, वे या तो लोकोपवाद के भयवश वैसा करते हैं, या फिर उनकी यौन-आवश्यकताएं ही मोनोगेमिक होती हैं। लेकिन दूसरी तरफ़ पोलिगेमी भी पूर्णत: प्राकृतिक है।
दुविधा का एक आधार रागात्मकता भी है। मनुष्य जिससे प्रेम करता है, उससे संसर्ग करता है, या जिससे संसर्ग करता है, उससे उसे प्रेम हो जाता है। और प्रेम निजी रूप से आधिपत्य और अधिकार चाहता है। प्रेम निष्ठा का सहचर है। विश्वासघात से वह मलिन हो जाता है। और शुचिता का उसका आग्रह प्रबल होता है। ऐसे में अपने साथी के विपथ होने की स्थिति मनुष्य को क्लान्त करती है। तमाम आयामों के साथ ही यह भी एक आयाम है। सही है या ग़लत है, इसका निर्णय मैं नहीं करने वाला, किंतु यह सत्य वहां उपस्थित है।
जहां तक मेरा मत है, मैं कभी कोई वैसी ‘एब्सोल्यूट थिसीस’ नहीं देता कि उन्मुक्त यौनाचार होना ही चाहिए या नहीं ही होना चाहिए। या यौनेच्छा पर सामाजिक अंकुश होना ही चाहिए या नहीं ही होना चाहिए। वैसी बातें अल्पबुद्धि लोग करते हैं, जिनके पास परिप्रेक्ष्यों का नीर-क्षीर-विवेक नहीं होता।
मैं केवल एक ही बात कहता हूं और वो ये कि : यौनेच्छा का निर्धारण नैतिकता और अनैतिकता के आलोक में नहीं किया जा सकता। सामाजिक व्यवस्था एक दूसरी चीज़ है। यह सड़क पर लेफ्ट साइड में चलने की तरह है। अगर सड़क पर चलने वाले लेफ्ट साइड में नहीं चलेंगे तो अराजकता व्याप्त हो जाएगी और व्यवस्था भंग हो जाएगी। किंतु लेफ्ट साइड चलने भर से कोई नैतिक और नहीं चलने भर से कोई अनैतिक नहीं हो जाता है। वैसा ही यौनेच्छा के साथ है।
हम विवाह और परिवार नामक संस्थाओं के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था बनाए रखना चाहते हैं, संभवत: वह स्तुत्य और प्रणम्य हो। किंतु यही नीति है और इसके बाहर जो है, वह अनीति है, अवैध है, व्यभिचार है, ऐसा मानने की भूल हमें कभी नहीं करना चाहिए।
क्योंकि मनुष्य की अदम्य यौनेच्छा एक ऐसा आदिम आवेग है, जिसने सामाजिक बुद्धि के तटबंधों में रहकर बहना अभी सीखा नहीं है और भविष्य में भी वह ऐसा कभी सीखने नहीं वाली है। इसका यही अर्थ है कि मनुष्य के विवेक पर उसके हृदय का साम्राज्य अक्षुण्ण रहने वाला है।