आधे-अधूरे / मोहन राकेश / पृष्ठ 7

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बड़ी लड़की : (स्त्री के पास से गुजरती) मैं चाय ले कर आती हूँ अभी।

स्त्री : मुझे नहीं चाहिए।

बड़ी लड़की : एक प्याली ले लेना।

चली जाती है। स्त्री कमरे के बिखराव पर एक नजर डालती है , पर सिवाय अपने साथ लाई चीजों को यथास्थान रखने के और किसी चीज को हाथ नहीं लगती। बड़ी लड़की लौट कर आती है।

(पत्ती का खाली पैकेट दिखाती) पत्ती खत्म हो गई।

स्त्री : मैं नहीं लूँगी चाय।

बड़ी लड़की : सबके लिए बना रही हूँ एक-एक प्याली।

लड़का : मेरे लिए नहीं।

बड़ी लड़की : क्यों ? पानी रख रही हूँ, सिर्फ पत्ती लानी है...।

लड़का : अपने लिए बनानी है, बना ले।

बड़ी लड़की : मैं अकेले पियूँगी ? इतने चाव से चीज-सैंडविच बना रही हूँ?

लड़का : मेरा मन नहीं है।

स्त्री : मुझे चाय के लिए बाहर जाना है।

बड़ी लड़की : तो तुम घर पर नहीं रहोगी इस वक्त ?

स्त्री : नहीं, जगमोहन आएगा लेने।

बड़ी लड़की : यहाँ आएँगे वो ?

स्त्री : लेने आएगा वो क्यों ?

बड़ी लड़की : वो भी आनेवाले हैं अभी...जुनेजा अंकल।

स्त्री : उनका कैसे पता है, आनेवाले हैं ?

बड़ी लड़की : अशोक ने फोन किया था। कह रहे थे, कुछ बात करनी है।

स्त्री : लेकिन मुझे कोई बात नहीं करनी है।

बड़ी लड़की : फिर भी जब वे आएँगे ही, तो...

स्त्री : कह देना, मैं घर पर नहीं हूँ। पता नहीं, कब लौटूँगी ।

बड़ी लड़की : कहें, इंतजार करते हैं, तो ?

स्त्री : करने देना इंतजार ।

कबर्ड से दो-तीन पर्स निकाल कर देखाती है कि उनमें से कौन-सा साथ रखना चाहिए। बड़ी लड़की एक नजर लड़के को देख लेती है जो लगता है किसी तरह वहाँ से जाने के बहाना ढूँढ़ रहा है।

बड़ी लड़की : (एक पर्स को छू कर) यह अच्छा है इनमें।...कब तक सोचती हो लौट आओगी ?

स्त्री : (उस पर्स को रख कर दूसरा निकालती) पता नहीं। बात करने में देर भी हो सकती है।

बड़ी लड़की : (उस पर्स के लिए) यह और भी अच्छा है।....। अगर पूछें कहाँ गई हैं, किसके साथ गई हैं ?

स्त्री : कहना बताया नहीं...या जगमोहन आया था लेने।

(एक नजर फिर कमरे में डाल कर) कितना गंदा पड़ा है !

बड़ी लड़की : समेट रही हूँ। (व्यस्त होती) बताना ठीक होगा उन्हें ?

स्त्री : क्यों ?

बड़ी लड़की : ऐसे ही वे जा कर डैडी से बतलाएँगे खामखाह....।

स्त्री : तो क्या होगा ? (कुछ चीजें खुद उठा कर उसे देती) अंदर रख आ अभी।

बड़ी लड़की : होगा यही कि....

स्त्री : एक आदमी के साथ चाय पीने जा रही हूँ मैं, कहीं चोरी करने तो नहीं।

बड़ी लड़की : तुम्हें तो पता ही है, डैडी जगमोहन अंकल को....

स्त्री : पसंद भी करते हैं तेरे डैडी किसी को ?

बड़ो लड़की : फिर भी थोड़ा जल्दी आ सको तुम, तो....

स्त्री : मुझे उससे कुछ जरूरी बात करनी हैं। उसे कई काम थे शाम को जो उसने मेरी खातिर कैंसिल किए हैं। बेकार आदमी नहीं है वह कि जब चाहा बुला लिया, जब चाहा कह दिया जाओ अब ।

लड़का अस्थिर भाव से टहेलता दरवाजे के पास पहुँच जाता है।

लड़का : मैं जरा जा रहा हूँ बिन्नी !

बड़ी लड़की : तू भी ?...तू कहाँ जा रहा है ?

लड़का : यहीं तक जरा। आ जाऊँगा थोड़ी देर में।

बड़ी लड़की : तो जुनेजा अंकल के आने पर मैं.... ?

लड़का : आ जाऊँगा तब तक शायद ।

बड़ी लड़की : शायद ?

लड़का : नहीं...आ ही जाऊँगा।

चला जाता है।

बड़ी लड़की : (पीछे से) सुन। (दरवाजे की तरफ बढ़ती) अशोक !

लड़का नहीं रुकता तो होंठ सिकोड़ स्त्री की तरफ लौट आती है।

कम से कम पत्ती ले कर तो दे जाता।

स्त्री : (जैसे कहने से पहले तैयारी करके) तुमसे एक बात करना चाहती थी।

बड़ी लड़की : यह सब छोड़ आऊँ अंदर। वहाँ भी कितना कुछ बिखरा है। सोचती हूँ, जगमोहन अंकल के आने से पहले...।

स्त्री : मुझे जरा-सी बात करनी हैं।

बड़ी लड़की : बताओ ।

स्त्री : अगली बार आने पर पर मैं यहाँ न मिलूँ शायद।

बड़ी लड़की : कैसी बात कर रही हो ?

स्त्री : जगमोहन को आज मैंने इसीलिए फोन किया था ।

बड़ी लड़की : तो ?

स्त्री : तो अब जो भी हो। मैं जानती थी एक दिन आना ही है ऐसा।

बड़ी लड़की : तो तुमने पूरी तरह सोच लिया है कि...

स्त्री : (हलके से आँखें मूँद कर) बिलकुल सोच लिया है (आँखें झपकाती) जा तू अब ।

बड़ी लड़की पल-भर चुपचाप उसे देखती खड़ी रहती है। फिर सोचते भाव से अंदर को चल देती है।

बड़ी लड़की : (चलते-चलते) और सोच लेती थोडा...।

चली जाती है।

स्त्री : कब तक और ?

गले की माला को उँगली से लपेटते हुए झटके लगाने से माला टूट जाती है। परेशान हो कर माला को उतार देती है और कबर्ड से दूसरी माला निकाल लेती है।

साल पर साल....इसका यह हो जाए, उसका वह हो जाए।

मालाओं का डिब्बा रख कर कबर्ड को बंद करना चाहती है , पर बीच की चीजों के अव्यवस्थित हो जाने से कबर्ड ठीक से बंद नहीं होती।

एक दिन....दूसरा दिन !

नहीं ही बंद होता , तो उसे पूरा खोल कर झटके से बंद करती है।

एक साल...दूसरा साल !

कबर्ड के नीचे रखे जूते चप्पलों को पैर से टटोल कर एक चप्पल निकालने की कोशिश करती है ; पर दूसरा पैर नहीं मिलता, तो सबको ठोकरें लगा कर पीछे हटा देती है।

अब भी और सोचूँ थोड़ा !

ड्रेसिंग टेबल के सामने चली जाती है। कुछ पल असमंजस में रहती है कि वहाँ क्यों आई है। फिर ध्यान हो आने से आईने में देख कर माला पहनने लगती है। पहन कर अपने को ध्यान से देखती है। गरदन उठा कर और खाल को मसल कर चेहरे की झुर्रियाँ निकालने की कोशिश करती है।

कब तक...? क्यों...?

फिर समझ में नहीं आता कि क्या करना है। ड्रेसिंग टेबल की कुछ चीजों को ऐसे ही उठाती-रखती है। क्रीम की शीशी हाथ में आ जाने पर पल-भर उसे देखती रहती है। फिर खोल लेती है।

घर दफ्तर...घर दफ्तर !

क्रीम चेहरे पर लगते हुए ध्यान आता है कि वह इस वक्त नहीं लगानी थी। उसे एक और शीशी उठा लेती है। उसमें से लोशन रूई पर ले कर सोचती है। कहाँ लगाए और कहीं का नहीं सूझता , तो उससे कलाइयाँ साफ करने लगती है।

सोचो...सोचो।

ध्यान सिर के बालों में अटक जाता है। अनमनेपन में लोशनवाली रूई सिर पर लगाने लगती है , पर बीच में ही हाथ रोक कर उसे अलग रख देती है। उँगलियों से टटोल कर देखती है कि कहाँ सफेद बाल ज्यादा नजर आ रहे हैं। कंघी ढूँढ़ती है, पर वह मिलती नहीं। उतावली में सभी खाने-दराजें देख डालती है। आखिर कंघी वहीं तौलिए के नीचे से मिल जाती है।

चख-चख....किट...किट...चख-चख...किट-किट। क्या सोचो?

कंघी से सफेद बालों को ढँकने लगती है। ध्यान आँखों की झाँइयों पर चला जाता है तो कंघी रख कर उन्हें सहलाने लगती है। तभी पुरुष तीन बाहर के दरवाजे से आता है...सिगरेट के कश खींच कर छल्ले बनाता है। स्त्री उसे नहीं देखती , तो वह राख झाड़ने के लिए तिपाई पर रखी ऐश-ट्रे की तरफ बढ़ जाती है। स्त्री पाउडर की डब्बी खोल कर आँखों के नीचे पाउडर लगती है। डब्बीवाला हाथ काँप जाने से थोड़ा पाउडर बिखर जाता है।

(उसाँस के साथ) कुछ मत सोचो।

उठा खड़ी होती है , एक बार अपने को अच्छी तरह आईने में देख लेती है। पुरुष तीन पहले सिगरेट से दूसरा सिगरेट सुलगता है।

होने दो जो होता है।

सोफे की तरफ मुड़ती ही है कि पुरुष तीन पर नजर पड़ने से ठिठक जाती है , आँखों में एक चमक भर आती है।

पुरुष तीन : (काफी कोमल स्वर में) हलो, कुकू !

स्त्री : अरे ! पता ही नहीं चला तुम्हारे आने का ।

पुरुष तीन : मैंने देखा, अपने से ही बात कर रही हो कुछ। इसीलिए...।

स्त्री : इंतजार में ही थी मैं। तुम सीधे आ रहे हो दफ्तर से ?

पुरुष तीन कश खींच कर छल्ले बनाता है।

पुरुष तीन : सीधा ही समझो।

स्त्री : समझो यानी कि नहीं ।

पुरुष तीन : नाउ-आउ।...दो मिनट रुका बस, पोल स्टोर में। एक डिजाइन देना था उनका। फिर घर जा कर नहाया और सीधे....।

स्त्री : सीधा कहते हो इसे ?

पुरुष तीन : (छल्ले बनाता) तुम नहीं बदलीं बिलकुल। उसी तरह डाँटती हो आज भी। पर बात-सी है कुकू डियर, कि दफ्तर के कपड़ों में सारी शाम उलझन होती इसीलिए सोचा कि....

स्त्री : लेकिन मैंने कहा नहीं था, बिलकुल सीधे आना ? बिना एक भी मिनट जाया किए ?

पुरुष तीन : जाया कहाँ किया एक मिनट भी ? पोल स्टोर में तो....

स्त्री : रहने दो अब। तुम्हारी बहानेबाजी नई चीज नहीं है मेरे लिए।

पुरुष तीन : (सोफे पर बैठता है) कह लो जो जी चाहे। बिना वजह लगाम खींचे जाना मेरे लिए भी नई चीज नहीं है।

स्त्री : बैठ रहे हो - चलना नहीं है ?

पुरुष तीन : एक मिनट चल ही रहे हैं बस। बैठो।

स्त्री अनमने ढंग से सोफे पर बैठ जाती है।

जिस तरह फोन किया तुमने अचानक, उससे मुझे कहीं लगा कि...

स्त्री की आँखें उमड़ आती हैं।

स्त्री : (उसके हाथ पर हाथ रख कर ) जोग !

पुरुष तीन : (हाथ सहलाता) क्या बात है, कुकू ?

स्त्री : मैं वहाँ पहुँच गई हूँ जहाँ पहुँचने से डरती रही हूँ जिंदगी-भर। मुझे आज लगता है कि...

पुरुष तीन : (हाथ पर हलकी थपकियाँ देता) परेशान नहीं होते इस तरह।

स्त्री : मैं सच कह रही हूँ। आज अगर तुम मुझसे कहो कि.... ।

पुरुष तीन : (अंदर की तरफ देख कर) घर पर कोई नहीं है ?

स्त्री : बिन्नी है अंदर ।

हाथ हटा लेता है।

पुरुष तीन : यहीं है वह ? उसका तो सुना था कि...

स्त्री : हाँ ! पर आई हुई है कल से ।

पुरुष तीन : तब का देखा है उसे। कितने साल ही गए !

स्त्री : अब आ रही होगी बाहर। देखो, तुमसे बहुत-बहुत बातें करनी हैं मुझे आज।

पुरुष तीन : मैं सुनने के लिए ही तो आया हूँ। फोन पर तुम्हारी आवाज से ही मुझे लग गया था कि...

स्त्री : मैं बहुत....वो थी उस वक्त।

पुरुष तीन : वह तो इस वक्त भी हो।

स्त्री : तुम कितनी अच्छी तरह समझते हो मुझे...कितनी अच्छी तरह ! इस वक्त मेरी जो हालत है अंदर से...।

स्वर भर्रा जाता है ।

पुरुष तीन : प्लीज !

स्त्री : जोग !

पुरुष तीन : बोलो !

स्त्री : तुम जानते हो, मैं...एक तुम्हीं हो जिस पर मैं...

पुरुष तीन : कहती क्यों हो ? कहने की बात है यह ?

स्त्री : फिर भी मुँह से निकल जाती है। देखो ऐसा है कि....नहीं। बाहर चल कर ही बात करूँगी।

पुरुष तीन : एक सुझाव है मेरा।

स्त्री : बताओ।

पुरुष तीन : बात यहीं कर लो जो करनी है उसके बाद....

स्त्री : ना-ना यहाँ नहीं।

पुरुष तीन : क्यों ?

स्त्री : यहाँ हो ही नहीं सकेगी बात मुझसे। हाँ, तुम कुछ वैसा समझते हो बाहर चलने में मेरे साथ, तो...

पुरुष तीन : कैसी बात करती हो ?तुम जहाँ भी कहो, चलते हैं। मैं तो इसीलिए कह रहा था कि...

स्त्री : मैं जानती हूँ सब। तुम्हारी बात गलत नहीं समझती मैं कभी।

पुरुष तीन : तो बताओ, कहाँ चलोगी ?

स्त्री : जहाँ ठीक समझो तुम।

पुरुष तीन : मैं ठीक समझूँ ? हमेशा तुम्हीं नहीं तय किया करती थी ?

स्त्री : गिंजा कैसा रहेगा ?....वहाँ वही कोनेवाली टेबल खाली मिल जाए शायद।

पुरुष तीन : पूछो नहीं। यह कहो - गिंजा।

स्त्री : या यार्क्स ? वहाँ इस वक्त ज्यादा लोग नहीं होते।

पुरुष तीन : मैंने कहा न...

स्त्री : अच्छा, उस छोटे रेस्तराँ में चले जहाँ के कबाब तुम्हें बहुत पसंद हैं? मैं तब के बाद कभी वहाँ नहीं गई।

पुरुष तीन : (हिचकिचाट के साथ) वहाँ ? जाता नहीं वैसे मैं वहाँ अब। …पर तुम्हारा वहीं के लिए मन हो तो चल भी सकते हैं।

स्त्री : देखो एक बात तो बता ही दूँ तुम्हें चलने से पहले।

पुरुष तीन : (छल्ले छोड़ता) क्या बात?

स्त्री : मैंने...कल एक फैसला कर लिया है मन में।

पुरुष तीन : हाँ-हाँ ?

स्त्री : वैसे उन दिनों भी सुनी होगी तुमने ऐसी बात मेरे मुँह से...पर इस बार सचमुच कर लिया है।

पुरुष तीन : (जैसे बात को आत्मसात करता) हूँ ।

पल-भर की खामोशी जिसमें वह कुछ सोचता हुआ इधर-उधर देखता है फिर जैसे किसी किताब पर आँख अटक जाने से उठ कर शेल्फ की तरफ चला जाता है।

स्त्री : उधर क्यों चले गए ?

पुरुष तीन : (शेल्फ से किताब निकलता) ऐसे ही ।...यह किताब देखना चाहता था जरा।

स्त्री : तुम्हें शायद विश्वास नहीं आया मेरी बात पर ?

पुरुष तीन : सुन रहा हूँ मैं।

स्त्री : मेरे लिए पहले भी असंभव था यहाँ यह सब सहना। तुम जानते ही हो। पर आ कर बिलकुल-बिलकुल असंभव हो गया है।

पुरुष तीन : (पन्ने पलटता) तो मतलब है....?

स्त्री : ठीक सोच रहे हो तुम।

पुरुष तीन : (किताब वापस रखता) हूँ !

स्त्री उठ कर उसकी तरफ आती है।

स्त्री : मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि मुझे हमेशा कितना अफसोस रहा है इस बात का कि मेरी वजह से तुम्हें भी...तुम्हें भी इतनी तकलीफ उठानी पड़ी है जिंदगी में।

पुरुष तीन : (अपनी गरदन सहलाता) देखो...सच पूछो, तो मैं अब ज्यादा सोचता ही नहीं इस बारे में।

टहलता हुआ उसके पास से आगे निकाल आता है।

स्त्री : मुझे याद है तुम कहा करते थे, 'सोचने से कुछ होना हो, तब तो सोचे भी आदमी।'

पुरुष तीन : हाँ...वही तो।

स्त्री : पर यह भी कि कल और आज में फर्क होता है। होता है न

पुरुष तीन : हाँ...होता है। बहुत-बहुत।

स्त्री : इसीलिए कहना चाहती हूँ तुमसे कि....।

बड़ी लड़की अंदर से आती है।

बड़ी लड़की : ममा, अंदर जो कपड़े इस्तरी के लिए रखे हैं... (पुरुष तीन को देख कर) हलो अंकल !

पुरुष तीन : हलो, हलो !...अरे वह ! यह तू ही है क्या ?

बड़ी लड़की : आपको क्या लगता है ?

पुरुष तीन : इतनी-सी थी तू तो ! (स्त्री से) कितनी बड़ी नजर आने लगी अब

स्त्री : हाँ...यह चेहरा निकल आया है !

पुरुष तीन : उन दिनों फ्राक पहना करती थी... ।

बड़ी लड़की : (सकुचाती) पता नहीं किन दिनों !

पुरुष तीन : याद है, कैसे मेरे हाथ पर काटा था इसने एक बार ? बहुत ही शैतान थी ।

स्त्री : (सिर हिला कर) धरी रह जाती है सारी शैतानी आखिर ।

बड़ी लड़की : बैठिए आप । मैं अभी आती हूँ उधर से ।

अहाते के दरवाजे की तरफ चल देती है।

पुरुष तीन : भाग कहाँ रही है ?

बड़ी लड़की : आ रही हूँ बस ।

चली जाती है ।

पुरुष तीन : कितनी गदराई हुई लड़की थी ! गाल इस तरह फुले-फुले थे...

स्त्री : सब पिचक जाते हैं गाल-वाल !

पुरुष तीन : पर मैंने तो सुना था कि...अपनी मर्जी से ही इसने...?

स्त्री : हाँ, अपनी मर्जी से ही। अपनी मर्जी का ही तो फल है यह कि...

पुरुष तीन : बात लेकिन काफी बड़प्पन से करती है?...

स्त्री : यह उम्र और इतना बड़प्पन ?... हाँ, तो चलें अब फिर ?

पुरुष तीन : जैसा कहो ।

स्त्री : (अपने पर्स में रूमाल ढूँढ़ती) कहाँ गया ? (रूमाल मिल जाने से पर्स बंद करती है।) है यह इसमें...तो कब तक लौट आऊँगी मैं ? इसलिए पूछ रही हूँ कि उसी तरह कह जाऊँ इससे ताकि...

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