आशिक़ी / माया का मालकौंस / सुशोभित
सुशोभित
सबसे मीठी धुन में बांधा गाना सबसे सरल था ।
वो इतना ही कहता कि आप अकेले प्यार नहीं कर सकते, एक साथी चाहिए।
जैसे प्यार एक चिट्ठी हो, किसी पते - ठिकाने की तलबगार । अपने पास ही जिसको रखें, वो चिट्ठी नहीं हो सकती । अपने तक ही जिसको रखा, वो भी प्यार कहां।
बात नई नहीं थी, पर इससे पहले ऐसे कही नहीं गई थी ! कहन ही तो नयी होती है, बातें तो तमाम पुरानी हैं !
वो साथी कैसे मिले, ना मिले तो कोई कैसे जीये, ये वो गाना नहीं बतलाता । वो ये सवाल नहीं पूछता । फिर बाद में मालूम हुआ कि वो तो इन सवालों की ओर चुपचाप बढ़ रहा था। पर उसको क्या पता !
गाना सचमुच सरल था ।
और सचमुच सुंदर !
उसका कहन बड़ी सुरीली थी - "मंज़िलें हासिल हैं फिर भी एक दूरी है !" बालों में रेशम लिए जब वो नौजवां उसे गाता तो कांच के मग में बीयर पी रहीं औरतें कानाफूसी करने लगतीं ।
सैक्सोफ़ोन की हांक उसकी आमद का इश्तेहार करती । गिटार उसकी आत्मा की हरी शाख़ थी, वर्षा में कांपती हुई । और उसकी आँखों में वही -- जवां तनहाई की उदासी !
फिर भी सब पूछते – “कौन है वह ? "
जबकि वो शायद इस सवाल को " कहां है वो ?” से बदल देना चाहता ।
बदन पर सफ़ेद लिबास और आँखों पर झीनी चिलमन पहनने वाली वो सलोनी साँवली क्या ये सवाल सुन सकती थी?
ज़िंदगी के लिए सांसें ज़रूरी थीं, बेख़ुदी के लिए जाम । मौसिक़ी को साज़ों की तलब थी, चांदनी को चांद की । और आशिक़ी के लिए बस एक सनम चाहिए था!
जैसे एक बहाना, एक वजह, एक तरतीब । कुछ के होने के लिए किसी और का होना ज़रूरी था। एक के लिए दूसरे का ।
प्यार एक से दूसरे के बीच एक पुल का नाम था, जिस पर फिर साथ साथ चलते दोनों !
केवल एक ठाँव की ज़रूरत थी, नाव बांधने के लिए। हज़ार किनारों पर बंध नहीं सकती थी, और एक के बिना वो हमेशा बेठाँव रहती ।
छोटी सी बात थी, पर ऐसे पहले किसी ने कही नहीं थी ।
सादा सा गाना था, पर ऐसी धुन में पहले किसी ने बांधा ना था ।
जीने की रीत यही थी, भले कोई जान ना सका हो तब तक !