ग़ज़ब का है दिन / माया का मालकौंस / सुशोभित
सुशोभित
लड़की ने लाल साड़ी और फुलकारी वाला पोलका पहना है, लड़के ने क्रीम रंग वाला पतलून बुश्शर्ट, और ग़ज़ब का है दिन ।
इतना ग़ज़ब कि दो चोटी बाँधने वाली लड़की एक चोटी का लाल रिबन खोल देती है!
कि ये उसकी ख़ुशी की आख़िरी सरहद थी ।
तब लड़के को भी भला कब तक ढोना था पीठ पर अपने संकोचों का बैगपैक ?
माउथ ऑर्गन की धूप से खिला दिन, जिसमें सलाखों की तरह लंबे - पतले दरख़्तों की क़तार, लेकिन हवा इतनी खुली हुई कि आप गहरी साँस भर सकें ।
आख़िरकार। एक दिन ।
कि कौन जाने, फिर ये दिन मिले ना मिले, कि ये दिन भी भला कैसे मिल गया, अचरज ही है ।
लड़की को मालूम है ये राज़,
तभी तो कहती है-
'देख लो हमको क़रीब से
आज हम मिले हैं नसीब से
ये पल फिर कहाँ
और ये मंज़िल
फिर कहाँ?”
लड़के को क्या गुमान भी है कि दिल में गुनगुनी रोशनी लिए ये भोली सी लड़की जो मुस्कराते हुए गा रही है, उसका अहाता दुःखों के किस गलियारे में खुलता है ?
या शायद मालूम तो उसे भी है, इसीलिए कहता है-
‘फिर भी जाने जां, हम कहाँ और तुम कहाँ ?'
ग़ज़ब का दिन, जो क़यामत से क़यामत तक एक बार ही आता है, या एक बार भी नहीं ।
जिनकी जिंदगी में नहीं आता, वो उसकी हसरत लेकर मरते हैं ।
जिनकी ज़िंदगी में आता है, वो उसकी कसक लेकर ।
और ये दूसरे क़िस्म के लोगों का दुःख ज़्यादा बड़ा होता है, क्योंकि एक दिन को उन्होंने सुख को जाना था, और फिर हज़ार दिन जीना था उसके बिना ।
ये सोचते कि ये जीवन तो गया, शायद अगले जीवन में मिलेंगे हम धनकपुर के बाहर, ऐसे ही किसी दिन, साथी मेरी !