दिल है कि मानता नहीं / माया का मालकौंस / सुशोभित

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दिल है कि मानता नहीं
सुशोभित


लड़की भूख से इतनी बेहाल होती कि घास के तिनके चबाती रहती ।

लड़के के गाल पर तरबूज़ का बीज चिपक जाता, जिसे लड़की अपने होंठों से चुग लेती और लड़के को पलभर को गुमान होता कि उसने उसे चूम लिया है।

लड़का हमेशा टोपी पहनता और अपनी टोपी के लिए जान भी निछावर करने को तैयार रहता । सोते समय वह टोपी को अपनी आँखों पर इतराकर खींच लेता ।

लड़की ज़िद की आदमक़द तस्वीर होती । अदाओं के क़शीदे से बुनी । उसके बालों में रोशनी के गुच्छे उलझे रहते और जाड़े की रात उसके उघड़े हुए कंधों पर आकर ठहर जाती ।

सर्द रात में गर्म स्वेटर को वो यूँ मुलायमियत से ओढ़ लेती, जैसे कि वो दुनिया की आख़िरी गरमाई हो ।

दिल में ख़लिश का एक नखलिस्तान होता, लेकिन कोई भी नहीं जानता कि वो वहाँ पर है।

बैकग्राउंड में गाना चलता रहता, रस्मे - मोहब्बत कितनी मुश्किल है, सबको ये बतलाता। किसी को कानोंकान ख़बर तक ना होती कि उनकी नाक के नीचे अभी-अभी क्या घट गया है।

बाद इसके, फिर सालोंसाल बीत जाते और सन् इनक्यानवे में साँस लेने वाली परछाइयाँ बूढ़ी हो जातीं, अपनी हड्डियों के भीतर शीत के कोहरे को छुपाकर भूल जातीं ।

कभी-कभार एक नामालूम - सा दर्द जाग उठता, पुराने मर्ज़ की तरह । दुनिया में तब केवल दो तरह के लोग बचे रहते । एक वे, जो साल इनक्यान्वे में प्यार करते हुए मर गए थे। दूसरे वे, जिनके भीतर का साल इक्यान्वे मर चुका था, लेकिन पूरी तरह नहीं ।

एक भोली सदी भरपूर जीकर खेत हो चुकी थी ।

एक ख़ाली लिफ़ाफ़ा ज़िंदगी के पते को ढूँढ़ते भटकता रहता था।

और क़ासिद के ख़त में केवल तीन वाक्य लिखे होते -

शायद, अब हमें लौट जाना चाहिए ।

शायद, हम बहुत चल चुके हैं।

शायद, हम थक चुके !