निंदिया से जागी बहार / माया का मालकौंस / सुशोभित
सुशोभित
जब भी मैं गीतों की इबारत पढ़ता, शब्द मुझको मुर्दों के टीले जैसे दिखलाई देते।
सिंधु घाटी के किसी नष्ट नगर जैसे ख़ाके !
शब्दों के भीतर तरन्नुम फूंकने वाली धुनें तो जाने किन तवों में चिबदी रहती थीं, इसका कोई क्या हिसाब लगाए । लेकिन शिक़वा तो ये कि तरन्नुम में भी लफ़्ज़ों के बीच एक फ़ासला ही दीखता।
एक शब्द शुरू होकर ख़त्म हो जाता, दूसरा शुरू होने से पहले वहां एक नन्हा-सा विराम चला आता। सांस टूट जाती । आप चाहकर भी उसको अनदेखा नहीं कर सकते थे ।
और तब, साल तिरासी में कोयल ने एक ऐसा गाना गाया कि अचम्भा ! उसमें कहीं तुरपाई ना थी ! टांके नहीं, फांकें नहीं, उसकी कड़ी टूटती न थी । एक ही खेंच थी। रेशम की एक ही रेखा । एक ही लोई से बेली गई विकलता । एक सांस की धड़कन!
कोयल ने लगाई थी टेर-
“निंदिया से जागी बहार
ऐसा मौसम देखा पहली बार
कोयल कूके कूके गाये मल्हार!”
यह विस्मय था! सबने अपनी अपनी आरामकुर्सी में रीढ़ सीधी करके सुना, एक कंठ के भीतर सचमुच कोयल बसती थी । पंचम उसका सुर था । उस आवाज़ में ऐंठन थी, किंतु मजाल है जो वो कहीं दरक जाए। वो शीशे की नहीं, मोम की बनी थी। और उसके कारण सुबहें शहतूत के चू रहे शहद से गाढ़ी हो चली थीं ।
एक लड़की झरने में नहाती ही तो थी, उसमें कौन बड़ी बात है । बड़ी बात ये कि वो गाती भी थी । एक कोयल उसकी आत्मा में टेर लगाती थी । उसकी कूक में कोई दुराव न था, वो एकसुर थी, सुंदर थी वो इसीलिए!
मीठी अनुभूति क्या होती है, सन् तिरासी से पहले किसको मालूम था । मीठा मन क्या गाता है, यह जानता ही कौन था ?
कोयल कूके कूके गाये मल्हार !
विषाद तो यही कि एक गीत की ध्रुवपंक्ति भी जब अटूट थी, तब दो मन भला क्यूं एक-दूसरे को दूर से ताकते ? क्या वे शब्दों से भी ज़्यादा विवश थे?
या उनकी आत्मा की कोयलें मर चुकी थीं, जिसकी कूक में एकमेक हो रहतीं, उनकी चाहना की वनघासें !