उधार का सुख / अशोक कुमार शुक्ला
("जीवन की पहली पाठशाला" )
.....कल की पोस्ट पर एक मित्र ने जिज्ञासा व्यक्त की थी कि मेरी पढ़ाई कहाँ हुई है तो आज अपने उस पहले स्कूल "मेस्मोर प्राइमरी स्कूल" पौड़ी का चित्र साझा करते हुए फिर से उसी बचपन में जा रहा हूँ जहां धीरे धीरे स्कूल के कुछ और बच्चो के साथ मेरी दोस्ती हो गयी थी जिनमे से कुछ एक बड़ी कक्षाओं के भी थे। हमारी कक्षा के बच्चों के बस्ते बाल सुलभ वस्तुओ से भरे होते जिनमें प्लास्टिक के बने छोटे छोटे जानवरों के प्रतिरूप बहुत प्रभावित करते थे। अवसर निकालकर उनका प्रदर्शन किया जाता ताकि दुसरे बच्चो के मन में इर्ष्या का भाव उत्पन्न हो। पूछने पर यह ज्ञात हुआ कि ये छोटे छोटे खिलौने कैंटीन में बिकने वाले चूरन के पैकिटों से निकलते हैं। मध्यावकाश में हम स्कूल के पास बनी कैंटीन में जाते जहां प्रत्येक बच्चा अपनी जेब के हिसाब से कुछ न कुछ लेकर खाता। तब तक पिज्जा बर्गर या आइसक्रीम जैसी किसी वस्तु का चलन नहीं हुआ था और स्कुल कैंटीन में बेकरी के बने सुआल और बंद मख्खन जैसे उत्पाद ही मिलते थे। इस कैंटीन में सीनिअर स्कूल के बच्चे भी आया करते थे परन्तु उनका काउंटर अलग होता था। छोटी कक्षाओं के बच्चों के बीच एक उत्पाद प्रमुख रूप से लोकप्रिय था "चूरन का पैकेट" ! कक्षा पांच तक के बच्चे सामान्य रूप से इसे लिया करते थे। कीमत तो याद नहीं परन्तु चूरन का पैकेट खरीदने वालों में मैं भी शामिल था। इसे खरीदने का प्रमुख आकर्षण चूरन के पैकेट के अन्दर निकलने वाला प्लास्टिक के नन्हे जानवर का प्रतिरूप होते थे जि जिनका संग्रहण करना बच्चो का जुनून होता था। जेबखर्च के लिए जो थोड़े बहुत पैसे मिलते थे उनका उपयोग यही चूरन के पैकेट खरीदने में होता था। मुझे अच्छी तरह याद है कि अनेक अवसरों पर मैंने दोस्तों के लिए चूरन की पुडिया इस शर्त पर खरीदकर दी थी कि उससे निकलने वाले खिलौने वे मुझे दे देंगे। मेरे लिए वो खिलौने चूरन से अधिक मूल्यवान होते थे। इस तरह मेरे पास चूरन के पैकेट से निकलने वाले जानवरों की बड़ी संख्या एकत्रित हो गयी थी। खाली अवसर पाकर अपने सामने इन नन्हे खिलौनों की प्रदर्शनी लगाता और स्वयं को उस नन्हे संसार का हिस्सा अनुभव करता। कैंटीन चलाने वाले भैया भी मुझे चूरन के नियमित ग्राहक के रूप में मुझे पहचान चुके थे। ज़ेब खर्च के पैसों से केवल चूरन खरीदने वाली बात जब घर में पता चली तो ज्यादा चुरन खाने से मना किया गया। मैंने तपाक से बताया कि- "मैं कई नहीं खाता हूँ कई पुडिया चूरन..दोस्तों को खिलाता हूँ..बस खिलोने मैं रख लेता हूँ..." यह सुनने के बाद जेबखर्च पर पाबंदी लग गयी जो चार आना इंटरवेल के लिए मिलता था वो भी बंद हो गया लेकिन चूरन की पुडिया से निकलने वाले जानवरों के प्रति मेरा मोह कम नहीं हुआ। एक रोज बड़ी क्लास के एक बच्चे ने चूरन की पुडिया खिलाने का आग्रह किया तो मैंने पैसे उपलब्ध न होने वाली बात बता दी। दोस्त ने बताया- "तो क्या हुआ..? कैंटीनवाले भैया से कहकर उधार लेलो ." "मतलब...!" मैंने जिज्ञासा सहित पूछा। अब उस मित्र ने उधार का अर्थ बताया और साथ में चलकर कैंटीन तक उधार चूरन दिलाने भी गया। यह सिलसिला जब कई दिनों तक चल निकला तो एक दिन कैंटीनवाले ने ज्यादा पैसा हो जाने की बात बताई..अब यह समस्या भी उसी मित्र ने यह कहकर दूर करा दी की-"जिस दिन स्कूल का फीस दिवस होगा उस दिन सारा उधार चुका देंगे.." उस जमाने में माह में एक दिन फीस दिवस होता था जिसे नकद जमा करना होता था। फीस के लिए निर्धारित दिवस पर जो पैसे फीस चुकाने के लिए दिए गए उन्हें फीस में न जमा करके कैंटीन का उधार चुकता किया गया और इस तरह कैंटीन में साख बनायी। घर पर फीस जमा करने के बारे में पूछने पर बता दिया कि फीस जमा हो गयी है। किसी दिन जब पिता को यह पता चला कि उनके लाडले ने फीस नही दी है तो पूछताछ आरम्भ हुयी। हकीकत सामने आने पर पिता ने उन बच्चो को भी डांटा जिन्होंने उधार खरीदने का सुझाव दिया था। डांट तो पड़ी ही थी परन्तु वो सारे खिलौने भी बस्ते से निकाल लिए गए। मुझे डांटे जाने का दुःख कम था और खिलौने छिनने का दुःख अधिक...! पिता ने स्कूल पहुंचकर कैंटीन वाले से आइन्दा ऐसी चीजे उधार देने से सख्त मनाही भी कर दी..मुझे अफ़सोस हुया कि अब कैंटीन से उधार का सुख नहीं पा सकूंगा...! इस तस्वीर में मेरा स्कुल, कैंटीन और खेलने का मैदान स्पष्ट दिखाई दे रहा है और साथ में वो पगडण्डी भी दीख रही हैं जिनपर चलकर जीवन की पहली पाठशाला तक गया..