विशेष प्रार्थना सभा / अशोक कुमार शुक्ला
("जीवन की पहली पाठशाला" )
.....कल की पोस्ट में उन वादियों और पगडंडियों का चित्र साझा किया था जिनसे गुजर कर जीवन के पहले स्कूल में दाखिल हुआ था...। आज साझा कर रहा हूँ वो स्कूल भवन जिसके आसपास न जाने कितनी बाल सुलभ शैतानिया और सपने छिपे हैं। जब गढ़वाल अंग्रेजों के कब्जे में था और पौड़ी "ब्रिटिश गढ़वाल" के नाम से जाना जाता था तभी सन 1875ई0 में पौड़ी नगर से दूर हटकर चोपड़ा नामक स्थान पर यह विद्यालय आरम्भ किया गया था। आज हम भले ही अंग्रेजी शासन को कोसते हैं परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेजो के साथ आयी मिशनरी ने जिस प्रकार दुरूह क्षेत्रों में पहुंचकर भारतीयों के लिए शिक्षा का प्रबंध किया वह अद्वितीय थी। बचपन की कुछ शैतानियो के साथ जब मैंने अपने स्कूल का पहला वर्ष पूरा किया तो नयी कक्षा में भी हमारी मानिटर हेड मिस्ट्रेस मैडम की बेटी बेबी ही थी। इस नयी कक्षा में आने का सबसे बड़ा प्रभाव यह हुआ कि मैं स्वयं को बड़ा मानने लगा था लिहाजा मेरे बस्ते में हर समय विद्यमान रहने वाले नन्हे जानवरों से किनारा कर लिया। हालांकि यह बहुत बड़ा त्याग था परन्तु मैंने माँ के कहने पर वो सारे जानवर अपने छोटे भाई मनोज को दे दिए थे। अब तक "लल्लाजी" के बस्ते की शान बढाने वाले उन सारे जानवरों की सामान्य सभा अब "छुनोल" के आसपास लगने लगी थी। माँ जिस तरह प्यार से मुझे "लल्ला" बुलाती उसी प्यार से छोटे भाई को मनोज के स्थान "छुनोल" पुकारती थीं। पिता के लिए जो अशोक-मनोज की जोड़ी थी वह माँ के लिए "लल्ला-छुनोल" हुआ करती थी। कक्षा चार की एक पुस्तक के पाठ में जानवरों की सभा से जुड़ा एक प्रसंग था जिसमें जंगल के राजा शेर की अध्यक्षता में सारे जानवरों की आम सभा का चित्र पुस्तक में छपा था...मैं अक्सर घर पर मनोज के इन खिलौनों की सहायता से जानवरों की सभा का मूर्त रूप तैयार करता..। आज सोचता हूँ तो यह पाता हूँ की उस विद्यालय की सबसे बड़ी विशेषता वो विशेष प्रार्थना सभाए होती थी जो विद्यालय परिवार से जुड़े किसी भी सदस्य के कष्ट निवारण के लिए आयोजित होती थीं। इन विशेष प्रार्थना सभाओं में सदस्यों के हर प्रकार के कष्ट में सारे बच्चों को प्रभु से प्रार्थना कर उसके कष्ट निवारण की कामना करते थे। किसी के परिवार का कोई सदस्य गुजर जाने की स्थिति में आख़िरी पीरियड में पुनः असेम्बली होती और शोक -प्रार्थना के साथ बिना किसी शोर-सराबे के घर जाने के निर्देश के साथ छुट्टी कर दी जाती थी। ऐसी ही एक विशेष प्रार्थना सभा हम सबने अपनी क्लास मानिटर बेबी के लिए भी की थी जब यह बताया गया कि उसे पीलिया हो गया है। उन दिनों प्रिंसिपल मैडम दुखी रहती थीं तथा विद्यालय के अनुशासन की ओर कम ध्यान देती थीं।जब कई दिनों तक क्लास मानिटर स्कूल नहीं आयी तो हमारी क्लास के मानिटर के लिए वैकल्पिक व्यवस्था किये जाने का उपक्रम किया गया। दो नामो पर आकर बात अटक गयी जिनमें एक मैं था और दुसरा सहपाठी डेविड। डेविड थोड़ा मोटा तगड़ा था और मैं दुबला पतला सो उसी डेविड नाम के लड़के को मानिटर बना दिया गया। मुझे अच्छा तो नहीं लगा लेकिन कर भी क्या सकता था .. स्वाभाविक ईर्ष्या के वशीभूत मैंने उसको "मोटा" कहना आरम्भ किया और उसने मेरा नाम बिगाड़ कर "दांडी" कहना आरम्भ किया। स्थानीय गढ़वाली भाषा में "दांडी" शब्द का अर्थ होता है "छोटा"। प्रारम्भ में मैं इसके सही अर्थ को नहीं जान सका परन्तु ज्यो-ज्यो इसके अर्थ को जाना त्यों-त्यों यह शब्द मेरी चिढ बनता गया।.