ऋचा / भाग-4 / पुष्पा सक्सेना

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हॅंसते हुए दोनों ने विदा ली थी। प्रेस में नीरज व स्मिता की शादी की एक छोटी-सी सूचना बनाकर छपने को दे दी। घरवालों का सहयोग मिलने पर प्रेमियों का उत्साह दुगुना हो सकता था। काश, परिवार वाले अपने बच्चों की खुशी के लिए अपना अहम् छोड़ पाते?

घर पहुँंची ऋचा ने माँ के कामों में हाथ बॅंटाना शुरू कर, माँ को खुश कर दिया।

"क्या बात है, आज बड़ी खुश दिख रही है?"

"हाँ, माँ, आज स्मिता और नीरज की शादी हो गई।"

"क्या...... क्या........ ? कल शाम तक तो ऐसी कोई बात नहीं थी?"

"हाँ, माँ, सब कुछ जल्दी में हो गया।"

"देख ऋचा, तू तो ऐसा नहीं करेगी न? हमारी मर्जी के बिना कोई गलत कदम मत उठाना।"

"हाँ, माँ, अगर ऐसा वक्त आया तो तुम्हारी इजाज़त लेकर ही शादी करूँगी।" हॅंसती ऋचा ने माँ के गले में बाँहें डाल दीं।

ऋचा सोच रही थी, स्मिता की नई सुबह कैसी होगी? क्या नीरज के घरवाले स्मिता को स्वीकार कर लंेगे? अचानक ऋचा को विशाल की बात याद हो आई। अब सचमुच उसे पढ़ाई में जुट जाना चाहिए। अब स्मिता का अपना जीवन है, उसके साथ नीरज जैसा जीवनसाथी है। दोनों को अपनी लड़ाई खुद जीतनी होगी। ऋचा किसी की बैसाखी नहीं बनेगी।

ऋचा ने पूरे मन से पढ़ाई शुरू कर दी। स्मिता ने अभी कॅालेज आना शुरू नहीं किया था। अखबार के दफ्तर में भी ऋचा कम समय दे पा रही थी, पर विशाल उससे किसी-न-किसी बहाने मिल ही लेता। विशाल का साथ ऋचा को अच्छा लगता। स्मिता की लम्बी गैरहाजिरी ऋचा को परेशान करती, जो भी हो, उसे फ़ाइनल परीक्षा देनी ही चाहिए। नीरज से पूरे समाचार नहीं मिल पा रहे थे। अचानक एक दिन ऋचा ने स्मिता के घर की ओर अपनी साइकिल मोड़ दी।

घर के बाहर से ही स्मिता की सास के कटु शब्द सुनाई दे रहे थे। बेटे को जाल में फंसाने वाली बहू का अपराध अक्षम्य था। एक तो शादी में दहेज तो दूर की बात, बर्तन-कपड़े तक नहीं मिले, उसपर घर के कामकाज में कोरी बहू को लेकर क्या उसकी आरती उतारेंगी?

नीरज की माँ के बड़े-बड़े अरमान थे। बेटे की शादी में ढेर-सा पैसा आएगा, उससे बेटियों के ब्याह का बोझ हल्का हो जाता। यहाँ तो कमानेवाला एक, उसपर एक और बोझ आ गया। नीरज ने शाम को काम करना शुरू कर दिया था, पर तनख्वाह तो एक माह बाद ही मिलेगी। ऋचा का मन भर आया। लाड़-प्यार में पली बेटी की यह दुर्दशा? दरवाजा ठेल, ऋचा अन्दर चली गई। उसे देख नीरज की माँ ने सुर बदल लिया, पर मन का आक्रोश चेहरे पर लिखा हुआ था।

ऋचा से चिपटकर स्मिता रो पड़ी। ऋचा की भी आँखे भर आई। अपने को सहेज ऋचा ने स्मिता के आँसू पोंछ दिए।

"तू कॅालेज क्यों नहीं आती, स्मिता?"

"मना कर दिया गया है।"

"क्यों, स्मिता? तेरा फाइनल इअर है, नीरज ने भी कुछ नहीं कहा?"

"घर में इतना क्लेश है कि वह परेशान हैं। कहते हैं, इस साल चुप रहो, अगले साल इम्तिहान दे देना। तब तक उन्हें भी नौकरी मिल जाएगी।"

"नहीं, स्मिता, एक्ज़ाम तो तू इसी साल देगी, मैं नीरज से बात करूँगी।" दृढ़ता से ऋचा ने कहा।

"सच, ऋचा? क्या यह हो सकेगा?" स्मिता की आँखे चमक उठीं।

"अगर यहाँ रहना मुश्किल है तो तुम दोनों रोहित के आउट-हाउस में क्यों नहीं चले जाते?"

"नीरज कहते हैं, माँ-बाप को पहले ही उनकी वजह से बहुत तकलीफ़ पहुँची है, अब अलग होकर और दुःख नहीं दे सकते। अभी उनका वेतन भी इतना नहीं कि हम दोनों गुजारा कर सकें।"

"तू कहीं कोई काम क्यों नहीं कर लेती? जानती है, मैट्रिक के बाद से मैंने अपनी पढ़ाई बच्चों की ट्यूशन्स लेकर पूरी की है। आज भी अखबार के दफ्तर में पार्ट-टाइम काम करके पैसा कमा रही हूॅ।"

"तेरी बात और है, ऋचा। हममें उतनी हिम्मत जो नहीं है।" स्मिता दयनीय हो आई।

"हिम्मत नहीं है, तो हिम्मत पैदा कर। देख, अपने लिए संघर्ष अब तुझे खुद करना है। यहाँ तक आ गई है तो आगे का रास्ता तुझे खोजना ही होगा। दूसरों की दया पर कब तक आश्रित रहेगी? आँसू ढलकाने से कुछ नहीं मिलने वाला।"

"तू ठीक कह रही है, ऋचा। नीरज की बहिन सुधा की शादी दहेज के कारण रूकी हुई है। अगर हम भी कमाएँगे तो घर में चार पैसे आएँगे। हम भी कहीं काम करेंगे।"

"सिर्फ तू ही क्यों? तेरी दोनों ननदों ने ग्रेज्युएशन किया है, वे भी कहीं काम कर सकती हैं। आजकल लड़के भी कामकाजी लड़कियों से शादी करना चाहते हैं, ताकि घर का आर्थिक स्तर ऊपर उठ सके।"

"आप ठीक कह रही हैं, ऋचा दीदी। हम भी काम करना चाहते हैं, पर अम्मा कहती हैं, लड़की कमाएगी तो दुनिया वाले उॅंगली उठाएँगे।" अचानक शर्बत लिए आती सुधा ने दोनों को चैंका दिया। सुधा के पीछे रागिनी भी आई थी।

सुधा और रागिनी दोनों ही समझदार युवतियाँ थीं। सौम्य-शान्त सुधा के विपरीत रागिनी के चेहरे पर चंचलता थी।

"सच, ऋचा जी। आपने तो हमारी आँखें खोल दीं। अब हम दोनों काम करेंगे।" रागिनी दृढ़ थी।

"स्मिता भाभी, आप भी कल से कॅालेज जाइए, हम अम्मा को समझा लेंगे।" सुधा ने गम्भीर स्वर में अपनी बात कही।

"ऋचा, मेरी ये दोनों ननदें ही मेरा सहारा हैं। तू तो जानती हैं, हमने घर के कामकाज कभी नहीं किए, पर यहाँ इनकी मदद से घर के कामकाज सीख रही हूँ।"

"नहीं, भाभी, अब आप घर के काम नहीं करेंगी, बल्कि मन लगाकर पढ़ाई करेंगी और परीक्षा दंेगी।" सुधा ने प्यार से कहा।

"हाँ, भाभी, अब हम सब मिलकर नौकरी तलाश करेंगे। जानती हैं, ऋचा जी, हमें भी लगता है, हम घर में बेकार बैठकर समय नष्ट कर रहे हैं।" रागिनी उत्साहित थी।

"तुम दोनों से मिलकर बहुत अच्छा लगा। तुम्हारी भाभी भाग्यवान है, इसे इतनी अच्छी ननदें मिलीं। स्मिता, कल कॅालेज में तेरा इन्तजार करूँगी।"

बड़े हल्के मन से ऋचा घर लौटी। सुधा और रागिनी से बातें करके उसके मन में आशा जाग गई। स्मिता के कॅालेज आने की आशा बन गई थी। कल शाम विशाल ने गार्डेन में मिलने जाने का वादा ले लिया था। घर में रोहित को अपने इन्तजार में बैठा पा ऋचा आश्चर्य में पड़ गई। ऋचा के पहुँचने पर माँ ने शंकाभरी दृष्टि दोनों पर डाली थी।

"अरे, रोहित, यहाँ अचानक?"

"हाँ, ऋचा, मैं यह शहर छोड़कर जा रहा हूँ। तुम्हें एक सनसनीखेज खबर देनी थी, सोचा, इसी बहाने तुमसे मिलना भी हो जाएगा।"

"माँ, रोहित आज यहीं खाना खाएँगे।" ऋचा ने माँ को वहाँ से हटाने में ही भलाई समझी।

"वैसे माँ ने तुम्हारी गैरहाजिरी में मेरा पूरा पोस्टमार्टम कर डाला। उन्हें डर है, शायद हमारे बीच प्रेम-वेम का कोई चक्कर है।" रोहित हॅंस रहा था।

"तब तो तुम्हें खाना खिलाना भारी पड़ेगा। हाँ बताओ, क्या खबर है?"

"कल सुनीता को उसके पति और घरवालों ने मिलकर जलाकर मार डालने की कोशिश की। वह 'मेरी माउंट हाॅस्पिटल' में बेहोशी की हालत में एडमिट है।"

"अरे सुनीता तो नर्स है, उसके साथ ऐसा क्यों, रोहित?"

"हाँ, ऋचा। बड़ी दुःख भरी कहानी है सुनीता की। उसके घर में एक विधवा माँ और दो छोटे भाई-बहिन हैं। विवाह के पहले सुनीता ही घर के दायित्व निभाती थी। छोटा भाई अभी बारहवीं पास करके टाइपिंग सीख रहा है। साथ में स्टेनोग्राफ़ी का कोर्स भी कर रहा है। बहिन दसवीं में पढ़ रही है।"

"ओह!, तब तो सुनीता पर ही परिवार का दायित्व है ।

हां ऋचा, सुनीता चाहती थी, उसके भाई की नौकरी लग जाए, उसके बाद ही वह शादी करे, पर राकेश ने जल्दी शादी के लिए दबाव डाला। उस वक्त तो उसने बड़ी-बड़ी बातें की थीं कि सुनीता अपना वेतन पहले की तरह अपने घर में देती रहेगी, पर शादी के बाद उसने रंग बदल दिया कि वह अपना वेतन उसे दे। सुनीता ने ऐसा करने से मना कर दिया। बस उसकी मनाही से उसपर अत्याचार शुरू हो गए।"

"अरे, यह तो अन्याय है, पहले तो पति ने वादा किया, बाद मे अपनी ही बात से पीछे हट गया।" ऋचा उत्तेजित थी।

"इतना ही नहीं, सुनीता नर्स है। कभी-कभी ज्यादा काम होने की वजह से उसे देर रात तक ड्यूटी करनी पड़ती है। देर से आने पर सास, सुनीता के चरित्र पर लांछन लगाकर, अपशब्द कहती और पति सुनीता को बेरहमी से पीट डालता।"

"सुनीता का अभी क्या हाल है, रोहित?"

"30ः जल गई है, वह तो पड़ोसियों ने उसकी चीखें सुनकर पुलिस में खबर कर दी, वरना सुनीता की राख ही मिलती। "

"हाँ, और हमेशा की तरह कह दिया जाता कि बेचारी किचेन में गैस या स्टोव के फटने से जल गई। मैं समझती थी, आत्मनिर्भर स्त्री की स्थिति बेहतर होती है, पर सच तो यह है कि औरत आज भी औरत ही है।"

"अब इस केस में तुम क्या करोगी, ऋचा?"

"सुबह होते ही सुनीता से मिलने जाऊॅंगी। अगर वह बात करने लायक हुई तो पूरी बात अखबार में छापॅंूगी, रोहित। थैंक्स फाॅर दि इन्फ़ाॅर्मेशन।"

"हाँ, अभी तो मैं वहीं से आ रहा हूँ। डाॅक्टर ने किसी को भी अन्दर जाने की इजाज़त नहीं दी है। वैसे पुलिस का पहरा है और सुनीता की सास मगरमच्छ के आँसू बहा रही है।"

"तुम कहाँ जा रहे हो, रोहित। तुम्हारी कमी बहुत महसूस होगी।" अचानक ऋचा को रोहित जा रहा है, याद हो आया।

"पापा चाहते हैं, अब मैं उनके काम में हाथ बटाऊॅं। वैसे भी फ़ाइनल एक्जाम्स के बाद यहाँ और रूकने का कोई अर्थ नहीं है।"

"क्यों, तुम्हारी लोकप्रियता तुम्हें नेता बना सकती थी, रोहित। तुम नेता बन जाते तो हमारा भी भाव बढ़ जाता।" ऋचा ने मजाक किया।

"तुम्हारा भाव तो आज भी खूब है। ऋचा से न सही, ऋचा के पत्रकार से तो लोग डरते ही हैं।"

तभी आकाश ने आकर खाना तैयार होने की सूचना दी थी। आजकल घर में बड़ी बहिन आई हुई थीं। दीदी के रहने से ऋचा की किचेन से छुट्टी हो जाती। दीदी और माँ की अच्छी पटती थी। अपनी इस बड़ी बहिन के लिए ऋचा के मन में बड़ी हमदर्दी और प्यार था। इस बार वह बहिन के पीछे पड़ी थी कि वह प्राइवेटली आगे की पढ़ाई करे और साथ में सिलाई का डिप्लोमा भी ले ले। अगर इला दीदी डिप्लोमा ले लेंगी तो उसे कहीं सिलाई-टीचर का काम मिल सकता है। घर के कामों के लिए कोई कामवाली रखी जा सकेगी। इला को ऋचा की बातों की सच्चाई समझ में आने लगी थी। क्या वह टीचर बन सकती है। सिलाई-कढ़ाई में इला शुरू से रूचि लेती रही है। श्वसुर-गृह में उसका काशीदाकारी किया गया सामान लोगों ने खूब सराहा था। ऋचा रोज बैठकर इला को अपने पाँवों पर खड़ी होने के सपने दिखाती। अगर कभी उन दोनों की बातों के कुछ शब्द माँ के कानों में पड़ जाते तो वह इला को चेतावनी दे डालती-

"ऋचा की बातों में आकर अपनी जिन्दगी मत खराब कर डालना, इला। तू अपनी ससुराल में जैसे रहती है वैसे ही रह। अरे, हम औरतों का तो धरम ही सेवा करना है।"

"हाँ-हाँ, अपनी जिन्दगी होम करके निष्क्रिय बैठे रहना ही औरत का धर्म है। हिन्दुस्तान की आधी आबादी इसी तरह घर में रहकर धर्म निभाती है। अगर औरतें भी काम करें, पैसे कमाएँ तो अपने घर का स्तर ऊंचा उठा सकती हैं।" ऋचा उत्तेजित हो उठती।

माँ के चले जाने के बाद इला ने धीमी आवाज में कहा था -

"तू ठीक कहती है, ऋचा। काश, मुझमें भी तेरी जैसी आग होती, पर अब मैं पढूँगी, सिलाई में डिप्लोमा लेकर टीचर बनूँगी।"

"सच, दीदी, पर इस काम के लिए जीजा जी और तेरे ससुराल वाले इजा।ज़त देंगे?"

"नहीं देंगे तो भूख-हड़ताल करूँगी, जैसे तूने पत्रकारिता कोर्स में प्रवेश के लिए की थी।"

दोनों बहिनें हॅंस पड़ीं। ऋचा को विश्वास हो गया, इला दीदी अब जरूर पढ़ेंगी। घरवालों का विरोध भी सह सकेंगी।

रोहित ने जी खोलकर खाने की तारीफ की थी। इला दीदी का चेहरा खुशी से चमक उठा। हॅंसकर कहा था-

"तुम्हारी अभी शादी नहीं हुई है। बाहर का खाना खाते हो, इसीलिए घर का खाना अच्छा लगता है।"

"नही दीदी, आप सचमुच अच्छी पाक-विशेषज्ञा हैं, अपनी बहिन को भी अपना यह गुण सिखा दीजिए। यह तो टाॅम ब्वाॅय बनी घूमती है। मुझे तो इसके होनेवाले पति की चिन्ता है।" रोहित ने मज़ाक किया था।

"देखो रोहित, तुम्हें हमारे लिए इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है। मैं ऐसा पति खोजॅंूगी जो तुम्हारी तरह खाने का शौकीन न हो। " ऋचा ने गुस्सा दिखाया।

हॅंसते हुए रोहित ने विदा ली। उसके जाने के बाद इला दीदी ने दबी आवाज में ऋचा के मन की बात जाननी चाही थी-

"सच कह ऋचा, रोहित और तेरे बीच प्रेम का चक्कर तो नहीं? अगर वैसी कोई बात है तो हम माँ को मना लेंगे। रोहित अच्छा लड़का है।"

"मेरी भोली दीदी, रोहित बहुत अच्छा लड़का है, पर वह हमारा बस एक अच्छा दोस्त भर है। ज़िन्दगी में प्रेम के अलावा दूसरे रिश्ते भी हो सकते हैं। अब तुम सो जाओ।"

बिस्तर पर लेटते ही ऋचा के दिमाग में जली हुई सुनीता की तस्वीर उभरने लगी। सुनीता से ऋचा का परिचय अस्पताल में हुआ था। वहीं उसने जाना, सुनीता और रोहित पड़ोसी थे। सौम्य सुनीता के व्यवहार ने ऋचा को प्रभावित किया था। साइकिल से गिर जाने की वजह से ऋचा के पैर में चोट लग गई थी। फ़स्र्ट-एड कराने के साथ टिटनेस का इन्जेक्शन लगवाना जरूरी था। कभी-कभी सड़क की मामूली चोट भी ख़तरनाक सिद्ध हो सकती है। सुनीता के व्यवहार में एक अपनापन था। उसके बाद आकाश और माँ को जब भी जरूरत हुई, ऋचा ने अस्पताल में सुनीता की मदद ली थी। ऋचा को हमेशा सुनीता के चेहरे पर एक उदासी की छाया तैरती लगती। तीन वर्ष के एक बेटे की माँ सुनीता को क्या दुःख हो सकता है! रोहित से जब चर्चा की तो उसने बताया था, सुनीता के साथ उसके पति और घरवालों का व्यवहार ठीक नहीं रहता। अक्सर रातों में उसके घर से सुनीता की चीखें सुनाई पड़तीं। ऋचा ने रोहित से कहा था, वह सुनीता से बात क्यों नहीं करता? रोहित का सीधा जवाब था, एक युवक की दखल-अन्दाज़ी सुनीता की ज़िन्दगी की मुश्किलें और बढ़ा देंगी। रोहित की बातों में सच्चाई थी। ऋचा ने एकाध बार सुनीता से जानना चाहा, पर उसने बात टाल दी। कल सुबह कॅालेज जाने के पहले उसे अस्पताल जाना ही होगा।

सुनीता के वार्ड के बाहर पुलिस कांस्टेबल के साथ सुनीता का पति राकेश और उसकी माँ दुःखी चेहरा लिए बैठी थीं। कांस्टेबल ने सुनीता को रोकना चाहा, पर जवाब में सुनीता ने डाॅक्टर की अनुमति दिखा दी। वह पत्रकार है, सुनते ही राकेश के चेहरे पर घबराहट आ गई।

"देखिए, मेरी बीवी एक जबरदस्त हादसे से गुजरी है। उसे आराम की ज़रूरत है। आप अन्दर नहीं जा सकतीं।"

"उसको आराम की ज़रूरत है, आप यह बात समझते है।, राकेश जी?" किंचित् व्यंग्य से अपनी बात कहती ऋचा कमरे में चली गई।

सुनीता आँखें खोले छत को ताक रही थी। ऋचा की आहट पर उसने दृष्टि घुमाकर देखा था। ऋचा ने प्यार से सुनीता के माथे पर हाथ धरा तो उसकी आँखों से झरझर आँसू बह निकले। तभी पीछे से राकेश कमरे में आ गया।

"देखिए, आप पत्रकार हैं, इसका यह मतलब नहीं कि आप सुनीता को उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ाएँ।"

"आपने यह क्यो ंसोचा कि मैं सुनीता को कुछ उल्टा-सीधा सिखाने आई हूँ, जबकि कुछ गड़बड़ हुआ ही नहीं है, मिस्टर राकेश। क्यों, ठीक कह रही हूँ न?"

"नहीं, मेरा मतलब यह नहीं था..........." राकेश सकपका गया।

"आपका मतलब अच्छी तरह समझती हूँ। यहाँ आने के पहले इन्स्पेक्टर अतुल को ख़बर कर दी है, वह किसी भी समय यहाँ पहुँचने वाले हैं। अच्छा हो, आप कमरे के बाहर चले जाएँ, वरना आपकी शिकायत करनी होगी।"

सुनीता पर आग्नेय दृष्टि डाल, राकेश ने चेतावनी-सी दे डाली-

"एक बात याद रखना, इन लोगों के कहने से उल्टा-सीधा बयान मत देना। अर्जुन का ख्याल रहे।"

सुनीता सिहर-सी गई। राकेश की बात का अर्थ ऋचा अच्छी तरह से समझ गई। सुनीता का बेटा अर्जुन से हाथ धो बैठेगी। राकेश के बाहर जाते ही ऋचा ने सुनीता को हिम्मत दी थी।

"देखो सुनीता, अन्याय सहते रहना अपराध है। अन्यायी को दण्ड दिलाना ही न्याय है, भले ही वह तुम्हारा अपना पति हो।"

"मेरी कुछ समझ में नहीं आता। वह मुझे छोड़कर दूसरी शादी कर लेगा। मेरे बेटे का क्या होगा?" कठिनाई से अपनी बात कहकर सुनीता रो पड़ी।

"सच यही है न कि तुम्हारे पति ने तुम्हें जलाकर मार डालने की कोशिश की थी? तुम्हारे पड़ोसियों ने तुम्हारी मदद की वरना आज तुम्हारी जगह तुम्हारी राख ही बची होती।"

निःशब्द सुनीता की आँखों से आँसू बहते रहे। पति की धमकी सच बयान देने से रोक रही थी।

"देखो सुनीता, यूँ आँसू बहाने से कोई फ़ायदा नहीं होनेवाला। आज तुम बच गई हो, पर कल किसी और तरीके से तुम्हें ख़त्म किया जा सकता है। अपने बेटे की ख़ातिर तुम्हें उस नरक से बाहर आ जाना चाहिए। तुम नर्स हो, अपने वेतन से तुम अपने बेटे को एक खुशहाल जिन्दगी दे सकती हो।"

ऋचा की बात से सुनीता के चेहरे पर आशा की झलक दिखाई दी थी। ठीक ही तो कह रही है ऋचा, हर रोज घर आने पर पति और सास उसे प्रताड़ित करने का कोई-न-कोई बहाना खोज ही लेते। माँ को पिटते-रोते देख, नन्हा अर्जुन कैसे सहम जाता है! इस महीने तो वेतन का पैकेट सुनीता से छीन लेने के बावजूद शराब के नशे में पति ने उसे रूई-सा धुन डाला था, क्योंकि सुनीता ने आधा वेतन अपनी माँ को देने की मनुहार की थी। उसकी माँग उसका अपराध समझा गया था। अर्जुन के माँ से लिपट जाने के कारण, पति ने उसे भी थप्पड़ मारकर ढकेल दिया था। अर्जुन की पिटाई का विरोध करने पर सास ने उकसाया था-

"अरे, कब तक इसे झेलेगा? रोज की खिचखिच से अच्छा होगा, इसे ख़त्म कर डाल। तेरे लिए रिश्तों की क्या कमी है? कमाऊ जवान है तू।"

माँ की बात से बढ़ावा पाकर केरोसिन का डिब्बा उठा, सुनीता पर उॅंडे़ल दिया था। गनीमत यही थी, डिब्बे में थोड़ा-सा केरोसिन बाकी था वरना ...... सुनीता काँप उठी। तभी इन्स्पेक्टर अतुल आ गए थे।

"कहिए ऋचा जी, कोई सफलता मिली? सच्चाई यही है कि अक्सर महिलाएँ ऐसे ससुराल वालों के सम्मान की रक्षा में झूठा बयान देती हैं, जिन्होंने उन्हें जलाकर ख़त्म करने की कोशिश की हो, बदनाम हम पुलिस वाले होते हैं कि पैसा लेकर हमने केस दबा दिया।"

"आपकी बात से मैं सहमत हूँ। ताज्जुब इसी बात का है कि जो औरतें खुद नहीं कमातीं, अगर वे ससुराल से निकाली जाने के डर से सच्चाई छिपाएँ तो बात कुछ समझ में आती है, पर सुनीता जैसी आत्मनिर्भर औरतें भी सच्चा बयान देने में हिचकती हैं। क्यों सुनीता, क्या मैं गलत कह रही हूँ?"

"अगर मैं सच्चाई बताऊॅं तो मेरा बेटा मुझसे अलग तो नहीं किया जाएगा?"

"हम तुम्हें पूरा न्याय दिलाने की हर सम्भव कोशिश करेंगे, सुनीता।"

"अगर तुम्हारी कोशिश कामयाब न हुई तो?"

एक प्रश्न-चिहन सबके सामने उभरकर आ गया।

"मुझे लगता है, हमारा कानून तुम्हें न्याय देगा।" अतुल ने तसल्ली दी।