एक नई पहचान / भाग 1 / अनवर सुहैल
घंटी की टनटनाहट के साथ प्लेटफार्म में हलचल मच गर्इ।
रात के ठिठुरते अंधियारे को चीरती पैसेंजर की सीटी नजदीक आती गर्इ और चोपन-कटनी पैसेंजर ठीक साढ़े बारह बजे प्लेटफार्म पर आकर रुकी।
इक्का-दुक्का मुसाफिर गाड़ी से उतरे। पूरी गाड़ी अमूमन खाली थी।
यूनुस जल्दी से इंजन की तरफ भागा। वह इंजिन के पीछे वाली पहली बोगी में बैठना चाहता था। यदि खालू आते भी हैं तो इतनी दूर पहुँचने में उन्हें समय तो लगेगा ही।
पहली बोगी में वह चढ़ गया।
दरवाजे से लगी पहली सीट पर एक साधू महाराज लेटे थे।
अगली लाइन में कोर्इ न था। हाँ, वहाँ अँधेरा जरूर था। वैसे भी यूनुस अँधेरी जगह खोज भी रहा था। उसने अपना बैग ऊपर वाली बर्थ पर फेंक दिया और ट्रेन से नीचे उतर आया।
वह चौकन्ना सा चारों तरफ देख रहा था।
अचानक उसके होश उड़ गए।
स्टेशन के प्रवेश-द्वार पर खालू नीले ओवर-कोट में नजर आए। उनके साथ एक आदमी और था। वे लोग बड़ी फुर्ती से पहले गाड़ी के पिछले हिस्से की तरफ गए।
यूनुस तत्काल बोगी पर चढ़ गया और टॉयलेट में जा छिपा।
उसकी साँसें तेज चल रही थीं।
ट्रेन वहाँ ज्यादा देर रुकती नहीं थी।
तभी उसे लगा कि कोर्इ उसका नाम लेकर आवाज दे रहा है - यू...नू...स! यू...नू...स!
यूनुस टॉयलेट में दुबक कर बैठ गया।
गाड़ी की सीटी की आवाज आर्इ और फिर गाड़ी चल पड़ी।
वह दम साधे दुबका रहा।
जब गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली, तब उसकी साँस में साँस आर्इ।
बैग कंधे पर टाँगे हुए ही वह खड़े-खड़े मूतने लगा।
वाश-बेसिन के पानी से उँगलियों को धोते वक्त उसकी निगाहें आर्इने पर गर्इं।
आर्इने के दाहिनी तरफ स्केच पेन से स्त्री-पुरुष के गोपन-संबंधों को बयान करता एक बचकाना रेखांकन बना हुआ था।
यूनुस ने दिल बहलाने के लिए उस टॉयलेट की अन्य दीवारों पर निगाह दौड़ार्इ।
दीवार में चारों तरफ उसी तरह के चित्र बने थे और साथ में अश्लील फिकरे भी दर्ज थे।
यूनुस टॉयलेट से बाहर निकला, लेकिन वह चौकन्ना था।
ट्रेन की खिड़की से उसने बाहर झाँका।
दो पहाड़ियों के बीच से गुजर रही थी गाड़ी। आगे जाकर महदइया की रोशनी दिखार्इ देगी क्योंकि अगला स्टेशन महदइया है।
सिंगरौली कोयला क्षेत्र का आखिरी कोना महदइया यानी गोरबी ओपन-कास्ट खदान।
हो सकता है कि खालू ने खबर की हो तो महदइया स्टेशन में उनके मित्र उसे खोजने आए हुए हों।
पहाड़ियाँ समाप्त हुर्इं और रोशनी के कुमकुम जगमगाते नजर आने लगे।
इसका मतलब स्टेशन करीब है।
महदइया स्टेशन के प्लेटफार्म में प्रवेश करते समय ट्रेन की गति धीमी हुर्इ तो यूनुस पुनः एक टॉयलेट में जा घुसा। वह किसी तरह के खतरे का सामना नहीं करना चाहता था।
उसका अंदाज सही था।
इस प्लेटफार्म पर भी उसे अपने नाम की गूँज सुनार्इ पड़ी। इसका मतलब ये सच था कि खालू ने यहाँ भी अपने दोस्तों को फोन कर दिया था।
वह टॉयलेट में दुबक कर बैठा रहा और पाँच मिनट बाद ट्रेन सीटी बजा कर आगे बढ़ ली।
यूनुस ने राहत की साँस ली।
टॉयलेट से वह बाहर निकला।
उसने देखा कि साधू महाराज के पैर के पास एक स्त्री बैठी है। वह एक देहाती औरत थी। साधू महाराज के वह पाँव दबा रही थी।
यूनुस ने उस सीट के सामने ऊपर वाली बर्थ पर अपना बैग रखा। फिर खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ कर शीशे के पार अँधेरे की दीवार को भेदने की बेकार सी कोशिश करने के बाद अपनी बर्थ पर उचक कर चढ़ गया।
उसे नींद आने लगी थी।
एअर-बैग से उसने गर्म चादर निकाली और उसे ओढ़ लिया। एयर-बैग अपने सिरहाने रख लिया ताकि चोरी का खतरा न रहे।
ट्रेन की लकड़ी की बेंच ठंडा रही थी। वैसे तो उसने गर्म कपड़े पर्याप्त मात्रा में पहन रखे थे, लेकिन ठंड तो ठंड ही थी। रात के एक-डेढ़ बजे की ठंड। उसका सामना के करने लिए औजार तो होने ही चाहिए।
वह उठ बैठा और अपनी जेब से सिगरेट निकाल ली। सिगरेट सुलगाते हुए साधू महाराज की तरफ उसकी निगाह गर्इ।
देहाती स्त्री बड़ी श्रद्धा से साधू महाराज के पैर दबा रही थी।
साधू महाराज यूनुस को सिगरेट सुलगाते देख रहे थे। दोनों की निगाहें मिलीं।
यूनुस ने महसूस किया कि वह भी धूम्रपान करना चाहता है।
यूनुस बर्थ से नीचे उतरा।
उसने महाराज की तरफ सिगरेट बढ़ार्इ।
साधू महाराज खुश हुआ।
उसने सिगरेट सुलगार्इ और गाँजा की तरह उस सिगरेट के सुट्टे मार कर बाकी बची सिगरेट स्त्री को दे दी।
स्त्री प्रसन्न हुर्इ।
उसने सिगरेट को पहले माथे से लगाया फिर भोले बाबा का प्रसाद समझ उस सिगरेट को पीने लगी।
स्त्री के बाल लटियाए हुए थे। हो सकता है कि वह सधुआइन बनने की प्रक्रिया में हो। उसके माथे पर भभूत का एक बड़ा सा टीका लगा हुआ था।
उसकी आँखों में शर्मो-हया एकदम न थी। वह एक यंत्रचालित इकार्इ सी लग रही थी। तमाम आडंबर से निरपेक्ष, साधू महाराज की सेवा में पूर्णतया समर्पित...
साधू महाराज ने पूछा - 'कौन बिरादरी का है तू?'
यूनुस को मालूम है कि बाहर पूछे गए ऐसे प्रश्नों का क्या जवाब दिया जाए। जिससे माहौल न बिगड़े और काम भी चल जाए।
एक बार उसने सच बोलने की गलती की थी, जिसके कारण उसे बेवजह तकलीफ उठानी पड़ी थी।
उसे कटनी में स्थित उस धर्मशाला का स्मरण हो आया, जहाँ वह एक रात रुकना चाहता था।
तब सिंगरौली के लिए चौबीस घंटे में एक ट्रेन चला करती थी। कोतमा से वह कटनी जब पहुँचा तब तक सुबह दस बजे चोपन जाने वाल पैसेंजर गाड़ी छूट चुकी थी। अब दो रास्ते बचे थे। वापस कोतमा लौआ जाए या फिर कटनी में ही रहकर चौबीस घंटे बिताए जाएँ। वैसे कटनी घूमने-फिरने लायक नगर तो है ही। कुछ सिनेमाघरों में 'केवल वयस्कों के लिए' वाली पिक्चर चल रही थीं। ट्रेन में ही एक मित्र बना युवक उससे बोला कि चलो, स्टेशन के बाहर एक धर्मशाला है। मात्र दस रुपए में चौबीस घंटे ठहरने की व्यवस्था। खाना इंसान कहीं भी खा लेगा। हाँ, एक ताला पास में होना चाहिए। धर्मशाला में ताला नहीं मिलता। जो भी कमरा मिले उसमे ग्राहक अपना ताला स्वयं लगाता है। यूनुस ने कहा था कि ताला खरीद लिया जाएगा।
वे लोग स्टेशन के बाहर निकले और सड़क के किनारे बैठे एक ताला-विक्रेता से यूनुस ने दस रुपए वाला एक सस्ता सा ताला खरीद लिया।
वे दोनों धर्मशाला पहुँचे।
पीली और गेरुआ मिट्टी से पुती हुर्इ एक पुरानी इमारत का बड़ा सा प्रवेश-द्वार। जिसके माथे पर अंकित था - 'जैन धर्मशाला'।
वे अंदर घुसे।
अंदर द्वार से लगा हुआ प्रबंधक का कमरा था।
उस समय वहाँ कोर्इ भी न था।
सहयात्री ने कहा कि चलो, धर्मशाला देख तो लो।
वे दोनों अंदर की तरफ पहुँचे। दुतल्ला में चारों तरफ कमरे ही कमरे बने थे। बीच में एक उद्यान था। उद्यान के अंदर एक मंदिर। पानी का कुआँ, हैंड-पंप, और नल के कनेक्शन भी थे।
वे वापस आए।
प्रबंधक महोदय आ चुके थे।
वह एक कृशकाय वृद्ध थे।
चश्मे के पीछे से झाँकती आँखें।
उन्होंने रजिस्टर खोल कर लिखना शुरू किया - 'नाम?'
सहयात्री ने बताया - 'कमल गुप्ता।'
- 'पिता का नाम?'
- 'श्री विमल प्रसाद गुप्ता'
- 'कहाँ से आना हुआ और कटनी आने का उद्देश्य?'
- 'चिरमिरी से कटनी आया, रेडियो का सामान खरीदने।'
- 'ताला है न?'
कमल गुप्ता ने बताया - 'हाँ!'
प्रबंधक महोदय ने रजिस्टर में कमल से हस्ताक्षर करवाकर उसे कमरा नंबर पाँच आवंटित किया।
फिर उन्होंने यूनुस को संबोधित किया।
- 'नाम?'
- 'जी, मुहम्मद यूनुस।'
स्वाभाविक तौर पर यूनुस ने जवाब दिया।
प्रबंधक महोदय ने उसे घूर कर देखा। उनकी भृकुटि तन गर्इ थी। चेहरे पर तनाव के लक्षण साफ दिखलार्इ देने लगे।
लंबा-चौड़ा रजिस्टर बंद करते हुए बोले - 'ये धर्मशाला सिर्फ हिंदुओं के लिए है। तुम कहीं और जाकर ठहरो।'
सहयात्री कमल गुप्ता नहीं जानता था कि यूनुस मुसलमान है। सफर में बातचीत के दौरान नाम जानने की जरूरत उन दोनों को महसूस नहीं हुर्इ थी, शायद इसलिए वह भी उसे घूरने लगा।
यूनुस के हाथ में एक नया ताला था।
वह कभी प्रबंधक महोदय के दिमाग में लगे ताले को देखता और कभी अपने हाथ के उस ताले को, जिसे उसने कुछ देर पहले बाहर खरीदा था।
उसने अपनी जिंदगी के व्यावहारिक शास्त्र का एक और सबक हासिल किया था।
वह सबक था, देश-काल-वातावरण देखकर अपनी असलियत जाहिर करना।
उसने जाने कितनी गलतियाँ करके, जाने कितने सबक याद किए थे।
सलीम भार्इ के पास ऐसी सहज-बुद्धि न थी, वरना वह ऐसी गलतियाँ कभी न करता और गुजरात के कत्ले-आम में यूँ न मारा जाता।
इसीलिए जब साधू महाराज ने उसकी बिरादरी पूछी तो वह सचेत हुआ और तत्काल बताया - 'महाराज, मैं जात का कुम्हार हूँ।'
साधू महाराज के चेहरे पर सुकून छा गया।
चेहरा-मोहरा, चाल-ढाल, कपड़ा-लत्ता और रंग-रूप से उसे कोर्इ नहीं कह सकता कि वह एक मुसलमान युवक है, जब तक कि वह स्वयं जाहिर न करे। उसे क्या गरज कि वह बैठे-बिठाए मुसीबत मोल ले।
वह इतना चालाक हो गया है कि लोगों के सामने 'अल्ला-कसम' नहीं बोलता, बल्कि 'भगवान-कसम' या 'माँ-कसम' बोलता है। 'अल्ला जाने क्या होगा' की जगह 'भगवान जाने' या फिर 'राम जाने' कह कर काम चला लेता है।
अगर कोर्इ साधू या पुजारी प्रसाद देता है तो बाकायदा झुक कर बार्इं हथेली पर दाहिनी हथेली रखकर उस पर प्रसाद लेता है और उसे खाकर दोनों हाथ सिर पर फेरता है। जबकि वही सलीम भार्इ हिंदुओं से पूजा-पाठ आदि का प्रसाद लेता ही नहीं था। यदि गलती से प्रसाद ले भी लिया तो फिर उसे खाता नहीं था, बल्कि चुपके से फेंक देता था।
यूनुस को यदि कोर्इ माथे पर टीका लगाए तो वह बड़ी श्रद्धा-भाव प्रकट करते हुए बड़े प्रेम से टीका लगवाता और फिर उसे घंटों न पोंछता।
ऐसी दशा में उस पर कोर्इ संदेह कैसे कर सकता है कि वह हिंदू नहीं है।
वैसे भी अनावश्यक अपनी धर्म-जाति प्रकट कर परदेश में इंसान क्यों खतरा मोल ले।
बड़ा भार्इ सलीम अगर यूनुस की तरह सजग-सचेत रहता। खामखा, मियाँ-कट दाढ़ी, गोल टोपी, लंबा कुर्ता और उठंगा पैजामा न धारण करता तो गुजरात में इस तरह नाहक न मारा जाता...
साधू महाराज ने यूनुस को आशीर्वाद दिया - 'तू बड़ा भाग्यशाली है बच्चा! तेरे उन्नत ललाट बताते हैं कि पूर्वजन्म में तू एक पुण्यात्मा था। इस जीवन में तुझे थोड़ा कष्ट अवश्य होगा लेकिन अंत में विजय तेरी होगी। तेरी मनोकामना अवश्य पूरी होगी।'
यूनुस साधू महाराज के चेहरे को देख रहा था।
उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। दाढ़ी बेतरतीब बढ़ी हुर्इ थी। उसकी आयु होगी यही कोर्इ पचासेक साल। चेहरे पर काइयाँपन की लकीरें।
साधू महाराज के आशीर्वाद से यूनुस को कुछ राहत मिली।
वह पुनः अपनी जगह पर चला गया और बैग से लुंगी निकालकर उसे बर्थ पर बिछा दिया ताकि लकड़ी की बेंच की ठंडक से रीढ़ की हड्डी बची रहे।
बर्थ पर चढ़ कर उसने जूते उतारकर पंखे पर अटका दिए।
अब वह सोना चाहता था।
एक ऐसी नींद कि उसमें ख्वाब न हों।
एकदम चिंतामुक्त संपूर्ण निद्रा...
जबकि यूनुस जानता है कि उसे नींद आसानी से नहीं आया करती। नींद बड़ी मान-मनौवल के बाद आया करती है।
उसने उल्टी तरफ करवट ले ली और सोने की कोशिश करने लगा।
खटर खट खट... खटर खट खट
ट्रेन पटरियों पर दौड़ रही थी।
सुबह छह बजे तक ट्रेन कटनी पहुँच जाएगी। फिर सात-साढ़े सात बजे बिलासपुर वाली पैसेंजर मिलती है। उससे बिलासपुर तक पहुँचने के बाद आगे कोरबा के लिए मन पड़ेगा तो ट्रेन या बस पकड़ी जाएगी।
बिलासपुर में स्टेशन के बाहर मलकीते से मुलाकात हो जाएगी।
मलकीते के पापा का एक ढाबा कोतमा में हुआ करता था। सन चौरासी के सिख-विरोधी दंगों में वह होटल उजड़ गया। सिख समाज में ऐसा डर बैठा कि आम हिंदुस्तानी शहरी दिखने के लिए सिख लोगों ने अपने केश कटवा लिए थे। मलकीते तब बच्चा था। अपने सिर पर रूमाल के जरिए वह केश बाँधा करता था। वह गोरा-नाटा खूबसूरत लड़का था। यूनुस को याद है कि लड़के उसे चिढ़ाया करते थे कि मलकीते अपने सिर में अमरूद छुपा कर आया करता है।
उसके पापा एक रिश्तेदार से मिलने राँची गए थे और इंदिरा गांधी की हत्या हो गर्इ। वे उस समय सफर कर रहे थे। सुनते हैं कि सफर के दौरान ट्रेन में उन्हें मार दिया गया था।
उस कठिन समय में मलकीते ने अपने केश कटवा लिए थे।
मलकीते के बारे में पता चला था कि सन चौरासी के बाद मलकीते की माली हालत खराब हो गर्इ थी।
तब मलकीते की मम्मी अपने भार्इ यानी मलकीते के मामा के पास बिलासपुर चली गर्इ थीं। वहीं मामा के होटल में मलकीते मदद करने लगा था।
स्टेशन के बाहर एक शाकाहारी और मांसाहारी होटल है - 'शेरे पंजाब होटल'।
यही तो पता है उसका।
इतने दिनों बाद मिलने पर जाने वह पहचाने या न पहचाने, लेकिन मलकीते एक नंबर का यार था उसका!
यूनुस ने फुटपाथी विश्वविद्यालय की पढ़ार्इ के बाद इतना अनुमान लगाना जान लिया था कि इस दुनिया में जीना है तो फिर खाली हाथ न बैठे कोर्इ। कुछ न कुछ काम करता रहे। तन्हा बैठ आँसू बहाने वालों के लिए इस नश्वर संसार में कोर्इ जगह नहीं।
अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इंसान को परिवर्तन-कामी होना चाहिए।
लकीर का फकीर आदमी का जीना मुश्किल है।
जैसा देस वैसा भेस...
कठिन से कठिन परिस्थिति में भी इंसान को घबराना नहीं चाहिए। कोर्इ न कोर्इ राह अवश्य निकल आएगी।
इसीलिए तो वह अम्मी-अब्बू, घर-द्वार, भार्इ-बहिन, रिश्ते-नाते आदि के मोह में फँसा नहीं रहा।
अपना रास्ता स्वयं चुनने की ललक ही तो है कि आज वह लगातार जलावतनी का दर्द झेल रहा है।
इसी उम्मीद में कि इस बार की छलाँग से शायद अल्लाह की बनार्इ इत्ती बड़ी कायनात में उसे भी कोर्इ स्वतंत्र पहचान मिल ही जाए...