एक नई पहचान / भाग 2 / अनवर सुहैल

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यूनुस ने सोचा कि सुबह कटनी पहुँच कर नाश्ता करने के बाद बिलासपुर वाली गाड़ी पकड़ी जाएगी।

कटनी का खयाल दिमाग में आया तो यूनुस को बड़की आपा याद हो आर्इ।

कहते हैं कि बड़की कटनी में कहीं रहती है।

खाला भी तो बता रही थीं कि अम्मा एक बार चोरी-छिपे उससे मिल आर्इ हैं। चूँकि उसने हिंदू धर्म अपना लिया है, इसलिए उसे अब बिरादरी में मिलाया तो नहीं जाएगा।

यूनुस सोच रहा था कि उनके घर में एक भी औलाद ठीक न निकली? इसका कारण क्या है?

उसने बचपन की तमाम घटनाओं को सूत्र-बद्ध करना चाहा। ज्ञात हुआ कि उसके अब्बा वंश-वृद्धि के पावन कर्तव्य को प्राथमिकता देते हैं। इस पावन यज्ञ से फुर्सत पाने के बाद उनकी चिंता का केंद्र नौकरी हुआ करती। अब्बा दिन भर में एक कट्टा बीड़ी और एक रुपए की खैनी हजम कर जाते। चाय अमूमन घर में ही पीते। इसके बाद भी यदि समय बच जाता तो स्थानीय कादरिया-मस्जिद कमेटी के लोगों के बीच उठते-बैठते। उनके एक और हमदर्द दोस्त थे नन्हू भार्इ, जिन्हें यूनुस नन्हू चच्चा कहा करता।

अब्बा ने अपनी बेशुमार आल-औलाद की तालीम-तरबीयत, कपड़ा-लत्ता और खान-पान के बारे में कभी ध्यान नहीं दिया। बच्चे चाहे जैसे अपना जीवन गुजारें, स्वतंत्र हैं।

अम्मा भी अब्बा के कदम से कदम मिलाकर चलती रहीं। उन्होंने प्रति तीन बरस पर एक संतान के औसत को बरकरार रखा। बच्चा अपने प्रयास से स्तन खोज कर मुँह में ठूँस ले तो ठीक, वरना अम्मा के भरोसे रहा तो भूखा ही रह जाएगा।

अम्मा ज्यादातर अपनी खाट में पसरे रहा करती थीं। ठंड के दिनों मे अब्बा या कि बड़की खाट के नीचे बोरसी में आग डाल कर रख दिया करते। यूनुस उस खाट में कभी-कभी सोता था। बोरसी की आँच से गुदड़ी गरमा जाती और पीठ की अच्छी सिंकार्इ हो जाती थी।

अम्मा अपने सुख-दुख या फिर अपनी हारी-बीमारी की चिंता किया करती थीं।

हाँ, दिन भर चाहे जिस हालत में रहें, शाम होते ही अच्छे से चेहरा धो-पोंछकर स्नो-पाउडर लगा लेतीं। आँखों में काजल और माँग 'अफसन' से भरतीं। जिस्म फैल-छितरा गया है तो क्या, बनना-सँवरना तो इंसान की फितरत होती है। हाँ, लिपिस्टिक की जगह होंठ पान की लाली से रँगे हुआ करते।

अम्मा को भी अब्बा की तरह अपनी ढेर संतानों की कोर्इ चिंता कभी नहीं रही।

इस अव्यवस्था का परिणाम ये हुआ कि यूनुस की बड़ी बहिन बड़की अभी ठीक से जवान हो भी न पार्इ थी कि घर से भाग गर्इ।

यूनुस को याद है कि बड़की उसे कितना प्यार किया करती थी।

यूनुस तब चार-पाँच बरस का होगा।

बस जब देखो तब अपनी बड़की आपा के पास मँडराता रहता। अम्मा को तो बच्चों की सुध ही न रहती थी।

पड़ोस में एक सिंधी फलवाला रहता था।

सिंधी फलवाला सुबह नौ-दस बजे ठेले पर फल सजाया करता। वह नगर में घूम-घूम कर फल बेचा करता था। नौ बजे घर के सामने वाला सार्वजनिक नल खुला करता था। आधा-पौन घंटा भीड़ रहा करती, फिर जब लोग कम हो जाते तब बड़की बाल्टी लेकर पानी भरने निकलती। यूनुस भी अपनी बड़की आपा के पीछे एक डब्बा या डेगची लेकर पानी भरने चला आता।

बड़की आपा पानी भरने लगती और सिंधी फलवाले को देख मुस्कराया करती।

तब फलवाला यूनुस को इशारे से अपने पास बुलाता।

यूनुस फल की लालच में दौड़ा चला जाता।

सिंधी फलवाला उसे दो केले देता। कहता, एक अपनी आपा को दे देना।

यूनुस को बड़े शौक से अपने हिस्से का केला खाता और बड़की आपा के हिस्से का केला उसे दे देता। बड़की आपा केला हाथ में पकड़ती तो उसके गाल शर्म से लाल हो जाते। यूनुस को क्या पता था कि इस केले के माध्यम से उन दोनों के बीच किस तरह का 'कूट-संवाद' संपन्न होता था। वह तो चित्तीदार केले का मीठा स्वाद काफी देर तक अपनी जुबान में बसाए रखता था।

रात के नौ बजे बड़की आपा यूनुस का हाथ पकड़ कर टहलने निकलती।

तब सिंधी फलवाला फेरी लगाकर वापस लौट आता था।

बड़की आपा से जाने क्या इशारे-इशारे में वह बातें किया करता।

यूनुस को पुचकारकर पास बुलाता।

कोर्इ सड़ा सेब या केला उसके हाथ में पकड़ा देता।

यूनुस खुश हो जाता।

यूनुस रात में बड़की आपा के पास ही सोया करता था।

बड़की आपा उसे अच्छी तरह सीने से चिपका कर सुलाया करती और बहुत प्यार किया करती।

कभी-कभी सिंधी फलवाले का आपा के साथ किया गया व्यवहार नन्हे यूनुस को अच्छा नहीं लगता था। चूँकि बड़की आपा बुरा नहीं मानती थी और लजाकर हँस देती थी, इसलिए यूनुस सिंधी फलवाले की हरकतों को चुपचाप हजम कर जाया करता था।

एक दिन यूनुस के दोस्त छंगू ने उसे बताया कि यार, अगर तू बुरा न माने तो एक बात कहूँ। यूनुस ने उसे डपट दिया कि ज्यादा भूमिका न बाँधते हुए मुद्दे पर आ जाए।

छंगू बिचारा कहने में संकोच कर रहा था कि कहीं यूनुस उसे पीट न दे, इसलिए उसने एक बार फिर यूनुस से गछवा लिया कि भार्इ मेरे, तू बुरा तो नहीं मानेगा।

खीज कर यूनुस ने उसकी गर्दन पकड़ कर हिला दिया।

छंगू की आँखें बाहर निकलने को हो आर्इं, तब उसने कहा - 'छोड़ दे बे, बताता हूँ... कल रात घर के पिछवाड़े मैंने देखा था कि वो सिंधी फलवाला तेरी दीदी का चुम्मू ले रहा है।'

यूनुस का खून खौल उठा - 'तो?'

छंगू घबरा गया - 'इसीलिए मैं बोल रहा था कि बुरा न मानना।'

यूनुस ने उसे कुछ न कहा।

उसने स्वयं अपनी आँखों से ऐसा ही एक प्रतिबंधित दृश्य देखा था। वाकर्इ बड़की हद से आगे बढ़ रही है। अम्मा और अब्बा को तो बच्चे पैदा करने से फुर्सत मिलती नहीं कि वे बच्चों के बारे में सोचें।

एक दिन यूनुस पिछवाड़े आँगन में खड़े-खड़े मूत रहा था तब उसने अमरूद के पीछे देखा था कि सिंधी फलवाला और बड़की काफी देर तक एक दूसरे से चिपके खड़े थे।

यूनुस की समझ में न आया कि वह तत्काल क्या करे। उसने एक पत्थर उठाया और सिंधी फलवाले की पीठ पर दे मारा।

फलवाले ने बुरा नहीं माना, बल्कि मार खाकर वे दोनों बड़ी देर तक हँसते रहे थे।

सिंधी फलवाला यूनुस को साला कहा करता और एक मुहावरा उछाला करता - 'सारी खुदार्इ एक तरफ, जोरू का भार्इ एक तरफ!'

उस गुप-चुप चलती प्रेम कहानी की जानकारी सिर्फ यूनुस को थी।

सलीम भार्इ घर से ज्यादा मतलब न रखता लेकिन उसे बड़की की कारस्तानी का अंदाजा हो रहा था। उसने अम्मा से बताया भी था कि नालायक बड़की को डाँटिए कि उस सिंधी फलवाले से दूर रहे। लेकिन अम्मा को कहाँ फुरसत थी... उस समय छोटकी पेट में थी। वे तो अपनी सेहत को लेकर ही परेशान रहा करती थीं।

कहते हैं कि सलीम भार्इ ने एक बार अपने दोस्तों के साथ उस फलवाले को डराया-धमकाया भी था। उसके दोस्तों ने सिंधी फलवाले के ठेले पर बचे हुए फल लूट लिए थे और उसे चेतावनी दी थी कि अपनी आदतों से बाज आए।

जब सिंधी फलवाले और बड़की ने देखा कि उनके प्रेम-व्यापार के दुश्मन हजार हैं तो एक दिन बड़की आपा उस सिंधी फलवाले के साथ कहीं भाग गर्इ।

कहते हैं कि वे लोग कटनी चले गए हैं।

कटनी तो सिंधियों का गढ़ है गढ़...

इसीलिए यूनुस को कटनी से चिढ़ है।

बड़की के घर से भाग जाने के बाद जिसका मन सबसे ज्यादा हताहत हुआ वह सलीम भार्इ था। जाने क्यों अव्यवस्था का वह धुर विरोधी हुआ करता था। वह अपने दोस्तों में, अपने समाज में, अपनी और अपने परिवार की इज्जत बढ़ाने का प्रयास किया करता था। बड़की ने घर से भाग कर जैसे सरे-बाजार उसकी नाक कटा दी हो। सलीम भार्इ अपने दोस्तों के साथ कर्इ दिनों तक सिंधी फलवाले और उसके घरवालों की टोह लेता रहा था। यदि इस बीच वे मिल गए होते तो पक्का है कि फौजदारी हो जाती और बाकी जिंदगी सलीम भार्इ जेल में काटते।

बड़े जिद्दी स्वभाव का था सलीम भार्इ।

सुनता सबकी लेकिन करता अपने मन की।

होश सँभालते यूनुस के बड़े भार्इ सलीम ने देखा कि इस घर के रंग-मंच में अब ज्यादा दिन का रोल उसके लिए नहीं। अम्मा और अब्बा जिस तरह से घर चला रहे थे, उसमें सलीम को अपना भविष्य अंधकारमय लगा।

बड़की आपा के घर से भागने के बाद सलीम ने दोस्तों का साथ छोड़ दिया।

कुछ दिन वह घर में कैद रहा।

एकदम अज्ञातवास का जीवन...

अम्मा-अब्बा सभी उसकी हालत देख परेशान रहने लगे थे।

फिर एक दिन वह फजिर की अजान सुनकर जामा-मस्जिद की तरफ चला। वहाँ उसे नमाज पढ़ने के बाद तब्लीगी-जमात वालों के मुख से तकरीर सुनने को मिली। दिल्ली से जमात आर्इ हुर्इ थी। तब्लीगी-जमात वालों के रहन-सहन और जीवन-दर्शन से उसे प्रेरणा मिली।

उसके अशांत दिलो-दिमाग को सुकून मिला।

उन लोगों से वह इतना प्रभावित हुआ कि उस दिन घर न लौटा।

तब्लीग वालों के साथ ही मस्जिद में कयाम किया।

शाम को अस्र की नमाज के बाद जमात के लोग स्थानीय स्तर पर लोगों से सीधे संपर्क करने के लिए गश्त पर निकले।

वह भी उनके साथ गश्त पर निकला।

अमीरे-जमात किस तरह अपरिचित कलमा-गो लोगों को दीन-र्इमान की दावत दिया करते हैं, उसने देखा।

फिर मगरिब की नमाज के बाद जिक्र और र्इशा की नमाज के बाद अल्लाह की तस्बीह और याद और गहरी नींद का र्इनाम...

सलीम भार्इ तब नियमित रूप से जामा-मस्जिद में नमाज पढ़ने जाने लगा।

कभी-कभी चंद विदेशी मुसलमान भी धर्म-प्रचार और आत्मोत्थान के उद्देश्य से आया करते थे।

अब्बा तो कट्टर बरेलवी विचारों के थे। वे तब्लीगियों को 'मरदूद वहाबी' कहा करते और अक्सर एक तुकबंदी पढ़ा करते थे -

मरदूद वहाबी की यही निशानी

उठंगा पैजामा,

टकला सिर और काली पेशानी

बरेलवी लोगों की पोशाक देवबंदियों के ठीक विपरीत हुआ करती। देवबंदी जहाँ अपने सिर के बाल सफाचट करवाते हैं वहीं बरेलवी लोगों के बाल कान के ऊपर बढ़े होते हैं। देवबंदियों की मूँछें सफाचट रहेंगी जबकि बरेलवी लोग पतली-तराशी हुर्इ मूँछें रखते हैं। बरेलवियों का पैजामा या शलवार टखनों के नीचे तक रहती है। उनकी टोपियाँ काली रहती हैं। सफेद टोपियाँ हों तो कुछ आसमान की तरफ अतिरिक्त उठी हुर्इ रहेंगी। उनके कंधे पर शतरंजी डिजाइन का गमछा हुआ करता है।

यूनुस ने देवबंदी और बरेलवी दोनों तरह के मुसलमान करीब से देखे हैं। उसे आज तक समझ में नहीं आया कि बरेलवी लोगों के माथे पर बार-बार सिजदा करने से किसी तरह का दाग नहीं बनता है, जबकि इसी के उलट देवबंदी अभी महीने भर का पक्का नमाजी बना नहीं कि उसकी पेशानी पर गोल काला धब्बा उभर आता है।

ये ऐसी बुनियादी पहचान है जिसे दोनों अकीदे के लोग अपना अलग-अलग 'ड्रेस कोड' बनाए हुए हैं। इसी पहनावे और अन्य आउट-लुक से मुसलमान जान जाते हैं कि मियाँ किस अकीदे का है।

शिक्षित तबके का ओहदेदार मुसलमान जो इन सब लफड़ों में नहीं पड़ना चाहता उसके अकीदे के बारे में जानना मुश्किल होता है।

इसमें तो इतनी मुश्किल पेश आती है कि कोर्इ ये भी न जान सकें कि वह हिंदू है या मुसलमान...

यूनुस ने अपनी जीवन-यात्रा में इतना जान लिया था कि हिंदुस्तान में रहना है तो वंदे मातरम कहना होगा...

सो उसे देखकर कोर्इ नहीं कह सकता था कि वह एक मुस्लिम युवक है।

अब्बा, सलीम भार्इ के तब्लीगी लोगों में उठने-बैठने का विरोध करते।

सलीम हर वह काम करता जिससे अब्बा को दुख पहुँचता। वह उन्हें तकलीफ पहुँचाकर सुकून हासिल किया करता था। जाने क्यों सलीम भार्इ इतना परपीड़क बन गया था।

तब्लीगी जमातें जब नगर में आतीं, अमीरे-जमात वजीर भार्इ सलीम को बुलवा भेजते। सलीम भार्इ उन जमात वालों का स्थानीय मददगार हुआ करता। वह आने वाली जमात का इस्तेकबाल करता। उन्हें मस्जिद के एक कमरे में ठहराता। उन्हें कहाँ खाना पकाना है, कहाँ नहाना है और कहाँ पैखाने जाना है, पीने के पानी की व्यस्था कहाँ से होगी, सभी जानकारी वह उपलब्ध कराता।

तब्लीगी जमात के लोग अत्यधिक अनुशासन में रहा करते। अमीरे-जमात के हुक्म का अक्षरशः पालन किया करते।

जमात वालों की बड़ी सख्त दिनचर्या हुआ करती थी।

घड़ी देख के तमाम काम...

यूनुस भी कभी-कभी सलीम भार्इ के साथ वहाँ जाया करता था।

जब नगर का सबसे भव्य मंदिर एक छोटे से चबूतरे पर था। जब यहाँ पुलिस थाना और रेलवे स्टेशन के अलावा कोर्इ पक्की इमारत न थी। तब नगर में मस्जिद के नाम पर बन्ने मियाँ की परछी हुआ करती थी। बन्ने मियाँ की आल-औलाद न थी। उन्होंने अपनी जमीन अंजुमन कमेटी को वसीयत कर दी थी।

बन्ने मियाँ ने एक पक्की मस्जिद के लिए स्वयं अपने हाथों से संगे-बुनियाद रखी थी। अल्लाह उनको करवट-करवट जन्नत बख्शे।

फिर स्थानीय स्तर पर चंदा करके वहाँ एक छोटा सा पक्का हाल बना।

मस्जिद के आँगन में एक कुआँ था। उस कुएँ का पानी बड़ा मीठा था। गर्मियों में भी पानी खत्म न होता। कमेटी वालों ने उस पर कवर लगा दिया। रस्सी-बाल्टी के लिए छोटा सा छेद था। कुएँ के एक तरफ दो कमरे थे, जिन्हें गुसलखाना कहा जाता था। दूसरी तरफ पिछवाड़े में इस्तिंजा (पेशाब) के लिए मूत्रालय था। फिर एक सीट वाला बैतुल-खुला यानी कि 'सेप्टिक टेंक' पैखाना था।

उस मस्जिद के पेश-इमाम बड़े काबिल बुजु़र्ग थे। संयमित जीवन वाले, नेक, परहेजगार और आध्यात्मिकता के हिमायती। लंबा कद, पतली-दुबली काया, लंबी सी सफेद दाढ़ी। बोलते तो मुँह पर हाथ रख लिया करते। कहते हैं कि उनके पास काफी रूहानी ताकत थी। वे गंडा-तावीज आदि नहीं दिया करते थे। हाँ, दुआएँ कसरत से दिया करते और उनकी दुआएँ 'अल्लाह रब्बुल इज्जत' की बारगाह में कु़बूल हुआ करती थी।

वे कु़रान-शरीफ का इतना मधुर पाठ किया करते कि सुनने वाला मंत्रमुग्ध सुनता रहे। एकदम शुद्ध अरबी का उच्चारण। गले की बेहतरीन लयकारी। किरत ऐसी कि बस सुनते चले जाइए।

यूनुस कभी-कभी जुमा की नमाज पढ़ने उसी मस्जिद में जाता।

सलीम भार्इ वहाँ एक तरह से अवैतनिक मुअज्जिन बन चुका था। मुअज्जिन की अनुपस्थिति में वह मस्जिद का काम सँभाला करता था।

इसी कारण सलीम भार्इ किसी तरह का काम नहीं सीख पाया।

यूनुस धर्म पर आश्रित न था, बल्कि स्वाद-परिवर्तन के लिए धर्म के पास आया करता था। जैसे कि स्वाद-परिवर्तन करने के लिए पिक्चर देखना, कव्वाली सुनने जाना, फुटबाल मैच खेलना, बिजय भइया के साथ आरएसएस की शाखा में जाना या फिर गप्पें मारना...

सलीम भइया इसी तरह तब्लीग जमात वालों के साथ रहते-रहते जमात में चालीस-चालीस दिन के लिए बाहर निकल जाया करता था।

अब्बा पर उनके बरेलवी मौलानाओं से फतवा मिल चुका था कि ऐसा व्यक्ति जो देवबंदियों के अकीदे में विश्वास करे, उनके साथ उठे-बैठे, उसका बहिष्कार कर देना चाहिए, भले से वह अपना बेटा, बेटी, माँ या बाप या भार्इ-बहिन क्यों न हो!

अब्बा के पास आला हजरत इमाम अहमद रजा खाँ द्वारा बतार्इ निदेशिका थी, जिसे वह पहले कमरे की दीवार में लगाए हुए थे। उसकी कुछ बातें आज भी यूनुस को याद हैं।

वहाबियो, देवबंदियों से नफरत करो।

वहाबियो, देवबंदियों के मौलवियों के पीछे नमाज पढ़ना मना है। उसकी नमाज न होगी और नमाज पढ़ने वाला गुनहगार भी होगा।

अगर कोर्इ मुसलमान अपना निकाह या अपने बेटी-बेटे का निकाह, वहाबी या देवबंदी से करेगा तो निकाह हरगिज न होगा।

वहाबियों, देवबंदियों को दावत खिलाना, उनकी दावत खाना दोनों बातें नाजायज हैं।

सलीम भार्इ की गतिविधियाँ किसी से छिपी न थीं। वैसे भी वह जगह थी ही कितनी बड़ी कि बातें दबी रह सकें।

नगर के एक कोने में छींकिए तो दूसरे कोने तक आवाज चली जाए।

बरेलवी मौलानाओं, स्थानीय मदीना मस्जिद की कमेटी के मेंबरान की समझाइश से तंग आकर अब्बा ने ऐलान कर दिया था कि सलीम उनकी औलाद नहीं।

वे सलीम भार्इ को अपनी औलाद मानने से इनकार कर चुके थे।

इतने प्रतिबंधों से परेशान होकर सलीम भार्इ घर से भाग कर सिंगरौली खाला के पास चले गया।

वहाँ खालू ने सलीम भार्इ को बैढ़न में एक टीन के चादर से पेटियाँ बनाने वाले कारखाने में काम दिलवा दिया था।

वैसे खालू भी देवबंदियों से चिढ़ते थे।

वह एक कट्टर सुन्नी थे और बरेलवी अकीदे को मानते थे, लेकिन खाला के हस्तक्षेप के कारण वह सलीम भार्इ की उपस्थिति घर में बर्दाश्त किया करते थे।

शुरू में सलीम भार्इ बरेलवियों वाली मस्जिद में नमाज पढ़ता था, क्योंकि जिसके यहाँ वह काम सीखा करता था वह कट्टर स्वभाव का था। तब्लीगियों और देवबंदियों से बेतरह चिढ़ा करता था। जब सलीम भार्इ काम अच्छे से सीख गया तो वह एक दूसरे कारखाने में चला गया। ये भी एक मुसलमान का ही कारखाना था लेकिन ये जनाब देवबंदी खयालात के इंसान थे। वे जानते थे कि सलीम भार्इ के खालू बरेलवी हैं, फिर भी उन्होंने सलीम भार्इ को अपने यहाँ कारीगर रख लिया। अब सलीम भार्इ बैढ़न की देवबंदियों वाली मस्जिद में नमाज पढ़ने जाने लगा।

ये बात खालू को मालूम हुर्इ तो उन्होंने खाला से साफ-साफ कह दिया कि वे वहाबियों को अपने घर में सहन नहीं कर पाएँगे।

खाला ने सलीम भार्इ को समझाया-बुझाया। उसे दुनियादारी की बातें सिखाना चाहीं। सलीम भार्इ कहाँ मानने वाला था।

इस बीच खालू आ गए तो सलीम उन्हें ही तब्लीग करने लगा।

'कब्रों की पूजा ठीक नहीं। अस्ल चीज है नमाज, रोजा, हज और जकात। दीन में रार्इ-रत्ती का जोड़ने वाला बिदअती (देवबंदी लोग बरेलवियों को बिदअती कहते हैं और बरेलवी देवबंदियों को वहाबी!) कहलाता है। हुजूर सरकारे दो आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के लिए यदि सच्ची मुहब्बत है तो एक सच्चे मुसलमान को हक पर चलना चाहिए। बिदअतियों से बचना चाहिए।'

इतना नसीहत सुनकर फौजी खालू तो जैसे आपे से बाहर हो गए।

उन्होंने खाला का लिहाज छोड़ सलीम भार्इ को तत्काल घर-निकाला का फरमान दे दिया था।

फिर सलीम भार्इ बैढ़न में कारखाने में ही रहने लगा था।

वहीं उसका रंग-रूप बदल गया था।

अब वह कमीज-पैंट पहनना छोड़कर कुर्ता-शलवार पहनने लगा था। चूँकि उसका बदन गठा हुआ था और कद दरमियाना था, सो उस पर घुटनों के नीचे झूलता कुर्ता और टखनों से उठी शलवार खूब जमती थी। सिर पर वह सफेद गोल टोपी लगाने लगा था। वह एक परंपरागत मुसलमान दिखता था। जैसे कि देवबंद के दारूल-उलूम के छात्र दिखा करते हैं।

खाला जब कभी बैढ़न जातीं तो सलीम भार्इ से मिला करतीं।

उन्हें सलीम भार्इ से बड़ी मुहब्बत थी।

सलीम भार्इ ने अपनी कमार्इ से खाला के लिए कर्इ साड़ियाँ खरीदी थीं।

फिर सुनने में आया कि किसी तब्लीग जमात के साथ सलीम गुजरात की तरफ चला गया है। गुजरात के वड़ोदरा से एक-दो खत बैढ़न के कारखाने में आए थे, जिसमें खाला के लिए सलीम भार्इ अलग से खत लिखा करता था।

सलीम भार्इ के आखिरी खत से पता चला था कि वह एक तब्लीगी परिवार में घर-जमार्इ बन गया है।

अच्छे खाते-पीते लोग हैं वे।

फिर एक दिन गुजरात के दंगों में उसके मारे जाने की खबर आर्इ।

सलीम भार्इ का पहनावा और रहन-सहन गोधरा-कांड के बाद के गुजरात में उसकी जान का दुश्मन बन गया था...