एक नई पहचान / भाग 3 / अनवर सुहैल

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खटर खट् खट्, खटर खट् खट्...

ठंड से ठिठुरती हुर्इ ट्रेन की एक लंबी चीख...

ट्रेन की पटरियों के बदलने की आवाज के साथ ब्रेक की चीं...चाँ...

और ट्रेन रुक गर्इ।

खिड़कियों के बाहर रोशनी की झलक नहीं। इस लाइन के अधिकांश स्टेशन तो बिना बिजली-बत्ती वाले हैं।

संभावना है कि आउटर पर ट्रेन रुकी होगी या फिर कोर्इ स्टेशन ही हो।

चोपन से सिंगरौली के बीच सिंगल-लाइन है। वैसे तो रात की ये पैसेंजर फास्ट-पैसेंजर के नाम से चलती है और छोटे-मोटे स्टेशन में रुकती नहीं लेकिन क्रासिंग के नाम पर इसे रोका ही जाता है।

चाय-पानी के लिए रात के सफर में ब्योहारी ही एक स्टेशन है, जहाँ कुछ आशा की जा सकती है। दिन में सरर्इ-ग्राम और खन्ना बंजारी स्टेशन में चाय-नाश्ता मिलता है।

गार्ड, ड्राइवर और मुसाफिर ऐसी जगहों पर टूट पड़ते हैं।

यूनुस को नींद नहीं आ रही थी।

उसने नीचे की सीट पर निगाह दौड़ार्इ।

देखा कि साधू महाराज कंबल ओढ़े पड़े हैं।

उनके पैर उस स्त्री की गोद में हैं।

स्त्री गहरी नींद में है।

उसके वक्ष पर आँचल हटा हुआ है।

भरी-भरी छातियाँ और चेहरे पर सुकून के लक्षण...

यूनुस ने सोचा कि कितना मस्त जीवन है ये भी!

आत्म-विस्मृति का जीवन!

कमाने-खाने की कोर्इ चिंता नहीं।

लोक-लाज की फिक्र नहीं।

व्यक्तिगत धन-संपत्ति का मोह नहीं।

बस, एक अंतहीन यात्रा में चलता जीवन...

बड़े भार्इ सलीम ने ऐसी ही राह अपनार्इ थी। उसने सोचा था कि इसी तरह तब्लीग (धर्म-प्रचार) करते-करते वह दुनिया के साथ-साथ आखिरत (परलोक) के इम्तिहानात में कामयाब रहेगा। उसने स्वयं को पूर्ण-रूपेण उस धार्मिक आंदोलन के लिए समर्पित कर रखा था।

और एक आस्थावान, धार्मिक प्रवृत्ति का साधारण युवक सलीम गुजरात के दंगों की भेंट चढ़ गया था।

यूनुस सलीम भार्इ की याद में खो गया था...

उसे आज भी याद है वो दिन जब आधी रात घर की साँकल बजी थी।

घर में यूनुस और बेबिया भर थे।

अब्बा आफिस के काम से शहडोल गए थे।

अम्मा पड़ोसी मेहताब भार्इ के साथ गढ़वा पलामू गर्इ हुर्इ थीं।

मेहताब भार्इ की मँगनी होने वाली है। उसने स्वयं अम्मा को अपने साथ ले चलने की जिद की। अंधे को क्या चाहिए दो आँख। अम्मा को तो घर छोड़ने का कोर्इ न कोर्इ बहाना चाहिए। बेबिया और यूनुस तो हैं ही घर के कुत्ते। भौंक-भौंक कर घर की रखवाली यही लोग तो करते हैं।

बाकी लोग तो मालिक ठहरे।

दुबारा साँकल बजी तो यूनुस ने आवाज लगार्इ - 'कौन?'

लगा नन्हू चच्चा की आवाज है - 'मैं हूँ भार्इ, नन्हू...!'

यूनुस को आश्चर्य हुआ कि नन्हू चच्चा और इस समय!

बेबिया अंदर वाले कमरे में घोड़ा-हाथी बेच कर सो रही थी।

यूनुस ने जल्दी से चड्डी पर गमछा लपेटा और दरवाजा खोला।

नन्हू चच्चा ही तो थे।

पतली-दुबली काया, लुंगी और कुर्ता पहने, सिर पर दुपल्ली टोपी।

बेतरतीब सी खिचड़ी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोले - 'गुल्लू का फोन आवा है... तुहरे अब्बा कहाँ हैं?'

यूनुस ने उन्हें सलाम किया और अंदर आने को कहा।

नन्हू चच्चा बेहद घबराए हुए थे - 'अब्बा-अम्मा कौनो नहीं हैं का?'

यूनुस मन ही मन डर गया।

जाने क्या बात है कि नन्हू चच्चा ऐसे घबरा रहे हैं।

उसने जिगर कड़ा कर पूछा - 'का बात हो गर्इ चच्चा?'

नन्हू चच्चा की आँखें नम हो आर्इं।

'कुछ न पूछो, बस अपने अब्बा या अम्मा से बात करा दो बचवा!'

'दोनों नहीं हैं घर में, अब्बा तो शहडोल गए हैं, किसी भी समय आ सकते हैं लेकिन अम्मा बिहार गर्इ हुर्इ हैं। आप हम्में बताइए न का बात है?'

नन्हू चच्चा के बेटे गुल्लू यानी पीर गुलाम ने ही एक बार बताया था कि यूनुस का बड़ा भार्इ सलीम गुजरात के बड़ोदा शहर में रहता है।

वह तब्लीगी-जमात वालों के साथ गुजरात चला गया था।

वहीं एक तब्लीगी मियाँ भार्इ इस्माइल सिद्दीकी ने उसे अपना घर-जमार्इ बना लिया।

इस्माइल सिद्दीकी की छोटी-मोटी दुकानदारी है। इकलौती बेटी के लिए नेक दामाद सलीम। सलीम वहीं मजे में है।

पीर गुलाम जब भी बड़ोदा से कोतमा आता, सलीम भार्इ का संदेश लेकर आता। उसने एक बार बताया था कि अभागे सलीम ने ससुराल वालों के सामने अपने सगों को मरा हुआ मान लिया है। अब वह कभी लौटकर इधर नहीं आएगा। उसने अपने जीवन का मकसद जान लिया है। सलीम सरेआम ऐलान करता है कि उसने अल्लाह की बनार्इ इस कायनात में अपने नए माँ-बाप पाए हैं। उसकी मुमताज महल बीवी उसे अपना बादशाह, शहंशाह और सरताज मानती है।

उनके एक बेटा भी है शाहजादा सलीम की तरह...

अम्मा की ढेर सारी संतान हैं फिर भी वह पहलौठी औलाद सलीम को भूल न पातीं। उनका सलीम से लगाव कुछ ज्यादा ही था।

वह जितना सलीम भार्इ के बारे में उल्टी-सीधी सूचनाएँ पातीं, उनका दुख बढ़ता जाता। वह जार-जार आँसू बहातीं और अल्लाह-रसूल से उसके लिए दुआएँ माँगा करतीं।

पीर गुलाम से अम्मा ने सलीम की चोरी से बहू और बच्चे की फोटो भी मँगवार्इ थी। उस तस्वीर में सलीम भार्इ किसी मौलाना सा दिखलार्इ दे रहा था और उसकी बीवी बुर्के का घूँघट पलट कर चेहरा बाहर निकाले थी। उनका बच्चा ऐसा दिख रहा था जैसे रुई का गोला हो। अम्मा अपनी संदूकची में उस तस्वीर को सँभाल कर रखती है।

यूनुस ने नन्हू चच्चा से पूछा - 'क्या खबर आर्इ है?'

यूनुस के सामने केबिल टीवी के माध्यम से प्रसारित की जा रही गुजरात की दिल दहलाने वाली घटनाएँ कौंध गर्इं।

गोधरा-कांड के बाद गुजरात में मार-काट मची हुर्इ है। तमाम अखबार और टीवी के न्यूज चैनल गुजरात के दंगों को आम-जन के सामने लाने में भिड़े हुए हैं। एक से बढ़कर एक न्यूज रिपोर्टर कैमरा टीम के साथ जहाँ-तहाँ पिले पड़ रहे हैं ताकि दंगों का लाइव-कवरेज बना सकें।

ताकि उनके चैनल की टीआरपी अचानक बढ़ जाए।

ताकि उनके रिपोर्ट्स से मीडिया में तहलका मच जाए।

'ये देखिए, हाथ में पेट्रोल से भरी बोतलें लिए औरतें आगे बढ़ रही हैं। ये देखिए हरे रंग में पुता एक खास जाति के लोगों का मकान, पर्दे की ओट से झाँकती बुर्का ओढ़े औरतें, छत पर पत्थर र्इंट इकट्ठा करते बच्चे, नमाजें अदा करते बुजु़र्ग, और ये देखिए किस तरह तड़ातड़ बोतलें फेंकी जा रही हैं... यह एक्सक्लूसिव कवरेज सिर्फ इसी चैनल में आप देख रहे हैं... ये देखिए हमारे संवाददाता के साथ जनता कैसा बर्ताव कर रही है... लोग हमारा कैमरा तोड़ कर फेंक देना चाहते हैं... इस सड़क पर देखिए पुलिस के सिपाही मौन खड़े भीड़ को अवसर दे रहे हैं... वो देखिए एक गर्भवती महिला किस तरह भागना चाह रही है... किस तरह त्रिशूल और लाठियाँ लिए, माथे पर गेरुआ पट्टी बाँधे युवक उस महिला को चारों तरफ से घेर कर खड़े हो गए हैं... और... और... ये रहा उस महिला के पेट का त्रिशूल की नोक से चीरा जाना... देखिए किस तरह त्रिशूल की नोक पर अजन्मा बच्चा भीड़ के सिरों पर खुले आकाश में लहराया जा रहा है... याद रखिए ये लाइव-कवरेज हमारे चैनल पर ही दिखलाया जा रहा है... हमारे जाँबाज रिपोर्टरों ने अभी कुछ दिन पहले अफगानिस्तान में अमरीकी हमले के दौरान अमरीकी सैनिकों की बहादुरी और आतंकवादियों के सफाए का आँखों देखा हाल आप लोगों तक पहुँचा कर मीडिया की दुनिया में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया था... और अब गुजरात में क्रिया के बाद की स्वाभाविक प्रतिक्रिया को पूरी र्इमानदारी के साथ आप लोगों तक पहुँचाया जा रहा है। रात नौ बजे पूरे घटना-क्रम पर फिर एक बार निगाह डालता हमारा दंगा-विशेष देखना न भूलें। इस कार्यक्रम के प्रायोजक हैं हीरे-जवाहरात के व्यापारी, चरस-हीरोइन के स्मगलर, जूता, साबुन, कंडोम और नेपकिन्स के निर्माता...

न्यूज के दूसरे-तीसरे चैनल भी यही सब दिखा रहे हैं। सभी दावा कर रहे हैं कि ये जो टीवी पर दिखाया जा रहा है, वह सब पहली बार उन्हीं के चैनल वालों ने दिखाया है। कि पूरे घटनाक्रम पर लगातार नजर रखी जा रही है। कि हमारे संवाददाता अपनी जान जोखिम पर डालकर दंगे की विश्वसनीय एवं आँखों देखी खबरें लगातार भेज रहे हैं। कि सिर्फ हमारा चैनल प्रस्तुत कर रहा है खसखसी दाढ़ी वाले मुख्य मंत्री और कवि-प्रधानमंत्री से सीधी बातचीत। मुख्य मंत्री, गृह मंत्री और प्रधान मंत्री कटघरे में। एकदम एक्सक्लूसिवली आपके लिए... जिसे प्रायोजित कर रहे हैं चड्ढी-बनियान, शीतल-पेय और बीयर के निर्माता...

विपक्ष में बैठे लोग, जिनके दामन में जाने कितने दंगों के दाग लगे थे, जिन्होंने अपने शासनकाल में बाबरी-मस्जिद शहीद होने दी थी, घड़ियाली आँसू बहा रहे थे।

गुजरात की सुलगती आग में उनके गैर-सांप्रदायिक कार्यकर्ता कहाँ थे, ऐसे कठिन समय में उनका रोल क्या था? क्या वे कभी इन सवालों का जवाब दे पाएँगे?

पक्ष-विपक्ष संसद में आपस में नोंक-झोंक कर रहे थे कि विपक्षियों के कार्यकाल में कितने दंगे हुए। सन चौरासी के सिख-विरोधी दंगे के आँकड़े के आगे तो गुजरात में कुछ ज्यादा नहीं हुआ है। सांप्रदायिक दंगों का इतिहास पलट लें, हर दंगों में स्त्रियों के साथ बलात्कार हुए हैं। मौजूदा सरकार के कार्यकाल में हुए इस 'सहज-प्रतिक्रियात्मक' कार्य में आँकड़ा उतना ज्यादा नहीं है। बहुसंख्यकों के आक्रोश का दमन स्थिति को और भयावह बना सकता था, इसलिए सरकार ने उन्हें थोड़ा सा मौका ही तो दिया था कि वे अपनी भावनाओं पर काबू पा लें। अभी तो कम ही हादसात हुए हैं।

मिलेटरी आदेश की प्रतीक्षा में कैंपों में दंड पेल रही थी।

पुलिस ऐसे समय में मूक दर्शक बनने की ऐतिहासिक भूमिका का तत्परता से पालन कर रही थी।

टीवी पर आती खबरों से फिर गुजरात धीरे-धीरे गायब होता गया कि नन्हू चच्चा ये कैसी खबर लेकर आ गए।

पीर गुलाम ने फोन पर क्या बात कही कि नन्हू चच्चा रात के बारह बजे समाचार पहुँचाने चले आए..

यूनुस का मन किसी अनहोनी की आशंका से विचलित हो रहा था।

नन्हू चच्चा चारपार्इ पर बैठे रहे।

फिर उन्होंने यूनुस से पानी माँगा।

लगता है कि बेबिया की नींद खुल गर्इ थी।

वह भकुआर्इ उठी थी।

यूनुस ने उससे चच्चा के लिए पानी लाने को कहा।

तभी दरवाजे की साँकल पुनः बजी।

लगता है कि अब्बा हैं, शायद ट्रेन से लौटे हों।

यूनुस ने लपक कर दरवाजा खोला, वाकर्इ अब्बा ही थे।

नन्हू चच्चा ने उन्हें सलाम किया और फिर अब्बा के लिए भी एक गिलास पानी मँगवाया।

अब्बा ने जब पानी पी लिया तो नन्हू चच्चा ने खँखारकर गला साफ किया और अब्बा के गले लगकर रो पड़े - 'अपना सलीम नहीं रहा... वो दंगे में मारा गया!'

यूनुस को काटो तो खून नहीं।

बेबिया तो दहाड़ मार कर रो पड़ी।

ये अचानक कैसी खबर सुन रहा था परिवार...

एकदम अप्रत्याशित खबर...

अब्बा की आँखें भी नम हो गर्इं - 'साफ-साफ बताएँ कि क्या बात है?'

नन्हू चच्चा के आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे - 'इधर जब से गुजरात सुलगा हुआ था, मेरे बेटे पीर गुलाम की भी कोर्इ खबर नहीं मिल पार्इ थी। बाद में पीर गुलाम का फोन मिला कि वह ठीक है। मामला जब ठंडाया तो पीर गुलाम डरते-डरते आपके बेटे सलीम के मुहल्ले गया था। वहाँ उसे पता चला कि सलीम तब्लीग-जमात में चिल्ला काट कर लौटा था। जमात के लोग स्टेशन से अलग-अलग ऑटो बुक कराकर अपने-अपने घरों को लौट रहे थे। सलीम दंगाइयों के बीच फँस गया था। सलीम को आटो-सहित जला कर मार डाला गया। तब्लीगी-जमात वालों ने ही घटना की खबर उसकी ससुराल में पहुँचार्इ थी। ससुराल वाले इस उम्मीद में थे कि शायद सलीम जान बचा कर कहीं छुपा होगा और मामला ठंडाने पर लौट आएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वह खबर सही थी। उस आटो के साथ सलीम भी जल कर खाक हो गया था।'

यूनुस को पीर गुलाम की बात याद हो आर्इ जो सलीम भार्इ को 'लादेन' के नाम से याद किया करता। तब्लीगी-जमात से जुड़ा होने के कारण सलीम भार्इ का गेट-अप एकदम ओसामा बिन लादेन की तरह दिखता था।

यूनुस को उसका लिबास और उसकी पहचान ले डूबी।

एक बार यूनुस खालू के इलाज के लिए पीजीआर्इ लखनऊ गया था।

वहाँ एक मौलवी नुमा बुजुर्ग दिखे तो आदतन उसने उन्हें सलाम किया।

वे बहुत नाराज दिखलार्इ दे रहे थे।

कैसा जमाना आ गया। हद हो गर्इ भार्इ। ये डाक्टर जिन्हें फरिश्ता भी कहा जाता है, मुसलमान मरीजों से चिढ़ते हैं। जान जाते हैं कि मरीज मुसलमान है तो फिर इलाज में लापरवाही करते हैं। सारे काफिर डाक्टर आरएसएस के एजेंट हैं। वे चाहते हैं कि 'मीम' का सही इलाज न होने पाए।

थोड़ी सी हुज्जत की नहीं कि इलाज ऐसा कर देंगे कि रिएक्शन हो जाएगा, दवा कोर्इ फायदा न करेगी।

यूनुस ने उन मौलवी साहब की बात का खंडन किया - 'अरे नहीं मौलवी साहब, एकदम गल्त कह रहे हैं आप! भला बताइए, हम भी तो मुसलमान हैं, लेकिन हमने तो ऐसा कोर्इ भेदभाव यहाँ नहीं होते देखा। डाक्टर बिचारे भरसक मरीज को तंदुरुस्त करने में लगे रहते हैं।'

फिर उसने मौलवी साहब का मन बदलने के लिए पूछा - 'आप कहाँ के रहने वाले हैं?'

उन्होंने कहा - 'जौनपुर जिले का रहने वाला हूँ।'

'ठीक है, लेकिन आपकी ये शिकायत वाजिब नहीं कि डाक्टर मरीजों से भेदभाव करते हैं। बीमारी जितनी बड़ी होगी, डाक्टर उतने सीरियस रहते हैं।'

'दुनिया देखी है मैंने बेटे, तुम मुसलमान जरूर हो, लेकिन तुम्हारा रहन-सहन एक आम हिंदू शहरी की तरह है। इसलिए तुम हिंदुओं के बीच खप जाते हो। हमें देखकर कोर्इ भी जान लेता है कि हम मुसलमान हैं। वे हमसे नफरत करने लगते हैं। सोचता हूँ कि इस मुल्क के उलेमा ये फतवा जारी कर दें कि मुसलमानों को दाढ़ी रखने की सुन्नत से छूट मिल जाए।'

यूनुस उन बुजुर्ग की बात सुनकर काँप गया था।