ए वेरी ईज़ी डेथ / भाग 1 / सिमोन द बोउवा
24 अक्टूबर सन 1963 को फोन पर मामन के चोटिल होने की खबर, बोस्ट ने दी। बो़स्ट और ओल्गा ने मामन को अस्पताल पहुँचाया। बेचारी मामन - पाँच हफ्ते पहले मैंने उसे देखा था - वह मास्को से तुरंत लौटी थी और बेहद थकी हुई दिखाई दे रही थी। कौन कह सकता था कि ये वही स्त्री है जो हमेशा खुद को युवती समझती और समझाती आई थी। युद्ध के बाद ही मामन को गठिए ने जकड़ लिया था, तमाम मालिश और दवा-दारू के बावजूद वह बमुश्किल चल-फिर पाती थी, फिर भी मामन ने कभी हार नहीं मानी। गिरने से उसकी जाँघ की हड्डी खिसक गई थी। नर्सिंग होम में शांत लेटी मामन जिंदगी के तमाम झंझावातों को झेल कर चुकी-थकी हुई सतहत्तर वर्षीया वृद्धा, मुझे अपरिचित-सी लगी। मुझे देख बोली "तुमने मुझे दो महीनों से कोई पत्र नहीं लिखा।" मैंने बताया कि मैं रोम से, लगातार पत्र देती रही हूँ, मामन ने बहुत अविश्वस्त भाव से यह सब कुछ सुना। उसकी आँतों में कमजोरी थी। डॉक्टर का कहना था लगातार तीन महीने बिस्तर में आराम करने से वह पूरी तरह ठीक हो जाएगी। बोस्ट को मामन के पूर्ण स्वस्थ होने में संदेह था। बिस्तर पर लगातार लेटने से पीठ में घाव होने का खतरा था, इस उम्र में घाव भी तो जल्दी ठीक नहीं होते। लेटने से फेफड़े थक जाते हैं और न्यूमोनिया का खतरा बढ़ जाता है। लेकिन मैं, मामन की बेटी, जानती थी कि माँ सख्तजान है, वैसे भी वह बहुत बूढ़ी हो चली थी, उस उम्र तक पहुँच चुकी थी, जब मृत्यु की प्रतीक्षा ही बच रहती है।
मेरी बहन पपेट! उसे पहले से ही आशंका थी। पिछली बार मामन जब पपेट के घर गई थी तो उसने एक रात तेज पेट-दर्द की शिकायत की। सुबह तक दर्द कम हो गया। मामन वहाँ से लौटते वक्त खुश थी, मगर अभी दसेक दिन पहले फ्रांसिस दिआतो ने पपेट से फोन पर कहा, "आज मैं तुम्हारी माँ के साथ 'लंच' कर रहा था। वह बहुत ही अस्वस्थ और जीर्ण दीख रही थी, सोचा, तुम्हें आगाह कर दूँ।" पेरिस आ कर पपेट ने मामन को रेडियोलॉजिस्ट को दिखाया, डॉक्टर ने कब्जियत दूर करने की और शक्तिवर्धक दवाइयाँ दीं। हम चाहते थे कि अपने फ्लैट में वह अकेली न रहे, कम से कम रात में कोई औरत साथ में रहे, लेकिन मामन कभी तैयार नहीं हुई।
अस्पताल में एक रात गुजार कर, मामन शहर के सबसे अच्छे नर्सिंग होम में ले आई गई। लगातार कंपन करनेवाले उपकरण से जुड़ा बिस्तर, खिड़की के पार हरा-भरा बगीचा, आरामदेह और साफ-सुथरा कमरा, देखभाल के लिए हरदम तैनात नर्सें, सुस्वादु भोजन - कुल मिला कर मामन की देखभाल बहुत अच्छे ढंग से हो रही थी। मामन आज कुछ बेहतर ढंग से बात कर पा रही थी, लेकिन क्या वह कभी ऊँची आवाज में बोल पाएगी? इतनी ऊँची आवाज - जो उसे खुद सुनाई दे! शायद नहीं, कभी नहीं। लेकिन उसमें जीने की अदम्य इच्छा है - अपरिमित जिजीविषा - अभी भी। पपेट को दु:स्वप्न के बारे में सुनाया उसने - "लगता है कोई मेरा पीछा कर रहा है, दौड़ रही हूँ। दौड़ती ही जा रही हूँ। दौड़ते-हाँफते एक दीवार तक आ पहुँची हूँ, मुझे बचने के लिए दीवार के पार कूदना है। दीवार के पार क्या है - मालूम नहीं! ये स्वप्न डराता है मुझे। वैसे, मृत्यु अपने-आप में मुझे डराती नहीं, पर उस छलाँग से डरती हूँ, आतंकित रहती हूँ जो जीवन के पार, मृत्यु की सीमा में ले जाएगी मुझे! दुर्घटना के बाद जब मैं टेलीफोन तक पहुँचने के लिए फर्श पर रेंग रही थी, तो लगा कि यही वक्त 'छलाँग' का है - जो अब आन पहुँचा है।"
मामन गिरने के वक्त को याद नहीं करना चाहती, न ही अपने फ्लैट में वापस जाना चाहती थी, जहाँ वह चोटिल हुई। हालाँकि वह फ्लैट उसे बहुत प्रिय था, जिसे उसने पति की मृत्यु के बाद अपने ढंग से सजाया था। ये बात और थी कि मुझे वहाँ रहना अच्छा नहीं लगा, एक अजीब-सी मनहूसियत की गंध थी, उस फ्लैट में। अब मामन की चिंता थी कि नर्सिंग होम से वह कहाँ जाएगी! उसके लिए 'रेस्ट हाउस' ढूँढ़ने की जिम्मेदारी मेरी थी।
मामन कभी-कभी स्वस्थ-सी दिखाई देती लेकिन कभी-कभी असम्बद्ध बातें करती। रविवार को तो उसकी जुबान भी लड़खड़ाने लगी, आँखें अधमुँदी हो गईं, लेकिन सोमवार की सुबह वह आसानी से आसपास की चीजों को पहचान और बातचीत कर पा रही थी। वह उन पुलिसवालों को धन्यवाद देना चाहती थी, जिन्होंने दुर्घटना के बाद मामन की सहायता की, उन लोगों और पड़ोसियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहती थी, जिन्होंने हमें दुर्घटना की सूचना दी।
तकिए के सहारे पीठ टिकाए, मेरी ओर सीधे देखती हुई भी वह कहीं और थी - "जरूरत से ज्यादा ही काम किया, मैंने इतने साल। खुद को थका डाला, बेइंतहा! सोचा नहीं था कि इतनी बूढ़ी और लाचार हो जाऊँगी। लेकिन उम्र तो सभी को स्वीकार करनी ही पड़ती है। कुछ ही दिनों में अठहत्तर की हो जाऊँगी। परिपक्व उम्र है, अब इसी के हिसाब से मुझे अपना जीवन व्यवस्थित कर लेना चाहिए। यहाँ से निकल कर जीवन का नया अध्याय शुरू करने की सोच रही हूँ...।" मेरी निगाह में उसके लिए तारीफ थी। यह वही स्त्री थी, जिसे कभी उम्र याद दिलाया जाना पसंद नहीं आया, आज वह बड़ी बहादुरी के साथ अपनी उम्र स्वीकार कर रही थी। पिछले तीन दिनों के धुँधलके के बाद उसे अपना चेहरा साफ दिखाई देने लगा था - उसने अपनी अठहत्तर वर्ष की उम्र स्वीकार करने की शक्ति बटोर ली थी। वह भविष्योन्मुख थी, इस निश्चय के साथ कि 'मैं अपने जीवन का नया अध्याय शुरू करने की सोच रही हूँ।'
पति के मरने के बाद भी दुखी, व्यथित अकेली मामन ने जीवन का नया अध्याय शुरू किया था। चौवन वर्ष की उम्र, दो बेटियाँ, निर्धनता - मामन ने साहस दिखाया। पढ़ाई-लिखाई की, लाइब्रेरियन बनी, ऑफिस जाने के लिए फिर से साइकिल चलाना सीखा। मामन कभी बेकार नहीं बैठी। मेरे आत्मनिर्भर होने और हमारी आर्थिक स्थिति सुधरने के बाद भी मामन काम करती रही, कभी लाइब्रेरी में, कभी चैरिटी शो में। उसे तकरीरें सुनना, यात्रा करना, लोगों से घुलना-मिलना खूब पसंद था। फ्लोरेंस, रोम, मिलान घूमी, हॉलैंड और बेल्जियम के संग्रहालयों में भी गई। गठिए के बावजूद, यात्रा के नाम से ही उसमें स्फूर्ति आ जाती, उसे कार में घूमना बेहद भाता लेकिन मित्रों और रिश्तेदारों के आमंत्रण पर ट्रेन से भी यात्रा करती। मेरे पिता की बदमिजाजी के कारण दोस्तों ने उनसे दूरी बना ली थी, उनकी मृत्यु के बाद मामन ने टूटे हुए संबंधों और संपर्कों को साधा, उन्हें घर बुलाया और मान-सम्मान दिया।
मामन के जीवट और साहस के प्रति मुझमें आश्चर्य-मिश्रित सम्मान का भाव था। इन दिनों, मामन कई बार असम्बद्ध बातें भी करती। अभी कल ही तो वह गरीब, निचले तबके की औरतों के प्रति अस्पतालवालों के दुर्व्यवहार की आलोचना कर रही थी, फिर कुछ बुदबुदाई जो मुझे समझ में नहीं आया। उसका रोगी शरीर और उसके दिमाग में भरी ये बातें विरोधाभासी लगीं। मुझे उदासी और चिंता हुई।
फिजियोथेरिपिस्ट मामन को देखने आया। मामन के शरीर पर पड़ी चादर को सरका कर बायाँ पैर उठाया। मामन ने सामने से खुली नाइट ड्रेस पहन रखी थी। वह लगभग अनावृत्त थी - पेट की चमड़ी सूख गई थी - आड़ी-तिरछी लकीरें, अनगिन झुर्रियाँ थीं, पेड़ू और उसके नीचे रोमहीन-सूखी-सी योनि - सब कुछ दिखाई दे रहा था - "अब मुझमें किसी चीज को ले कर कोई शर्मिंदगी नहीं बची है।"- उसके नि:संकोच, असम्पृक्त स्वर ने आश्चर्य में डाल दिया। "तुम बिल्कुल ठीक कहती हो,"- मैंने कहा तो, पर बागीचे की तरफ आँखें घुमा लीं। नग्नप्राय माँ!! नग्नता, मामन की नग्नता ने मुझे विचलित कर दिया। बचपन में, मैं इसी शरीर के कितने नजदीक थी। कैशोर्य में, मामन से शारीरिक नैकट्य कुछ संकुचित कर देता। लेकिन बुढ़ापे का यह 'शरीर' मुझे वितृष्ण और असहज कर गया। क्या मैं मामन को हमेशा युवा और स्वस्थ देखना चाहती थी? लेकिन मामन भी तो साधारण स्त्री ही थी ना! तो फिर मैं उसके जीर्ण-नग्न शरीर को देख इतनी व्यथित क्यों हूँ? ऐसा - जैसे कोई तिलिस्म टूट गया हो! मामन - मेरी मामन, नित्यप्रति छीजते जा रहे शरीर को वहन कर रही है - वह सामान्या है, विशेषा नहीं - क्या इस सत्य के साक्षात्कार से विचलित हूँ, या मामन का निर्लिप्त स्वर, शरीर से परे हो कर बात करना मुझे डरा गया?
मामन उस शरीर से मुक्ति पा रही थी, जिसने इतने दिनों उसे बाँधे रखा था - वह स्त्री-सुलभ संकोच और लज्जा - जो प्रत्येक स्त्री के बंधन और दमन के कारण हैं - को भी त्याग रही थी। 'औरतपने' के बंधन से मुक्ति की भूमिका ही तो थी यह - शरीर के मोह से मुक्ति - अनंत आकाश में विचरण की स्वच्छंदता - अब मुझे अपने-आपको उसके शरीर का अंत, जीवन का अंत देखने के लिए तैयार करना होगा। इससे पहले मैं जब कहती, 'अरे उसकी तो मरने की उम्र हो चली है' तो खुद को समझाने के लिए कहती - उसमें मामन से विलगाव की व्यंजना नहीं होती। पहली बार, उसकी कल्पना, 'मृत शरीर' के रूप में मूर्तिमान हो उठी और वह वाक्य - मेरा खुद का वाक्य, अर्थवान हो कर भीतर तक, गहरे धँसता चला गया।
अस्पताल में नर्सों, परिचारिकाओं का व्यवहार बहुत अच्छा था, कम से कम डॉक्टरों की अपेक्षा। नर्सें आत्मीयता से पेश आतीं, और मामन का हौसला बढ़ातीं। एक्सरे करने के पहले उसे बेरियम मिल्क पिलाया जाता, जिसे वह बिल्कुल पसंद नहीं करती। वह हमेशा भोजन के बारे में चर्चा करती, बिल्कुल बच्चों की तरह - मुझे अजीब-सा लगता। पेट और फेफड़ों की एक्सरे रिपोर्ट सामान्य आने पर वह संतुष्ट दिखाई दी। धुले कपड़े पहने, वर्ग पहेलियाँ सुलझाती, किताबें पढ़ती, 'वाल्टेयर इन लव' और 'जीन द लेटी' की ब्राजील यात्रा का वृत्तांत उसने इसी दौरान पढ़ डाला। मिलने, हाल-चाल पूछने बहुत-से लोग आते, कमरा फूलों, चाकलेट के डिब्बों और उपहारों से भर जाता, उसे यह सब अच्छा लगता। नर्सिंग होम में लोगों के आकर्षण का केंद्र थी, खूब बातें करती, यहाँ से जाना उसके लिए अकल्पनीय था। एक नर्स, जो उससे हमेशा यहाँ से जाने के बारे में पूछा करती, उस पर कुपित रहती। उसे डर था कि अगर वह ठीक हो गई तो घर वापस लौटना पड़ेगा, जहाँ वह बिल्कुल अकेली रहेगी। नर्सिंग होम के सुविधाजनक दिन उसे रास आ रहे थे। मैंने बताया कि नर्सिंग होम से निकलने पर 'ऐई' (पेरिस का एक उपनगर) में हम किराए का घर लेंगे, जहाँ वह खुली धूप में किताबें पढ़ेगी और सिलाई-बुनाई करेगी और जीवन के दिन आराम से गुजार सकेगी। वह आश्वस्त हो बोली - "अब तक तो मैं सिर्फ दूसरों के लिए ही जीती आई। इसके बाद सिर्फ अपने लिए जीना चाहती हूँ।"
एक अन्य युवा डॉक्टर मामन के पेट का एक्सरे दुबारा करना चाहते थे। मुझे तीन-चार दिनों के लिए बाहर जाना पड़ा, लौट कर देखा मामन अत्यंत दुर्बल और बीमार दीख रही थी। उसकी आवाज खरखरा रही थी - "उन्होंने मुझे समूचा निचोड़ लिया।" एक्सरे के चौबीस घंटे पहले से उसे खाली पेट रखा गया था। वह चिंतित और भयभीत थी। रात को, पपेट पेरिस आनेवाली थी। घर लौट कर मुझे फोन पर सूचना मिली - मामन की रिपोर्ट चिंताजनक है, छोटी आँत में एक ट्यूमर है। मामन को कैंसर था।
कैंसर! तो यह कैंसर था! मामन की गिरती तबीयत, आँखों के गिर्द काले साए! लेकिन हम इतने दिनों से डॉक्टरों के पास दौड़ रहे थे, सब ने कैंसर की आशंका से भी इनकार किया था। आँतों की कमजोरी, कब्ज, गठिया आदि की दवाएँ चलती रहीं, लेकिन अंतत: निकला 'कैंसर' - लाइलाज रोग, जिसे मेरा मन स्वीकार करने को प्रस्तुत नहीं। 'कैंसर' - जिस रोग से वह जीवन भर डरती रही। तीस साल पहले वह छाती के बल गिर गई थी, तब से वह कहा करती -"अब मुझे छाती में कैंसर हो जाएगा।" एक मित्र के पेट के कैंसर का ऑपरेशन हुआ था, तो मामन बोली - "मेरे साथ भी यही होनेवाला है।" मैंने बेपरवाही से कहा था - "कब्ज और कैंसर में बहुत अंतर होता है, तुम्हारे लिए तो इमली की जेली ही काफी है।" क्या पता था मामन की दुराशंका ही सच निकलेगी। वह अपने शरीर की बदलती गंध से कैंसर को पहचान गई थी।
पपेट - उसे कैसे बताऊँ। वह मेरी अपेक्षा मामन के ज्यादा करीब थी। वह बुधवार 6 नवम्बर का दिन था, गैस, बिजली, परिवहन की सार्वजनिक हड़ताल थी, अस्पताल से फोन आया कि मामन ने रात भर कै की है और शायद अधिक दिन न जी पाएगी। वहाँ पहुँच कर देखा पपेट आ चुकी है, रो-रो कर बेहाल है और नया डॉक्टर मामन की नाक में नली लगा कर पेट की सफाई कर रहा है। पपेट की गुजारिश थी, "मामन तो वैसे ही मरनेवाली है, तो उसे और तकलीफ देने से क्या लाभ!" मैंने, उस सपाट, प्रतिक्रियाहीन चेहरेवाले युवा डॉक्टर की ओर देखा, जिसके लिए मामन मनुष्य नहीं बल्कि परीक्षण की वस्तु थी। "जब कैंसर का पता चल ही गया है, और उम्मीद की कोई किरण भी बाकी नहीं तो उसे इतनी यंत्रणा देने से क्या लाभ?" "जो करना चाहिए मुझे, वही कर रहा हूँ..." रूखा उत्तर मिला।
मामन का बिस्तर फिर से पुरानी जगह पर खिसका दिया गया था। उसकी बाईं ओर इन्ट्रावेनस ड्रिप, नाक में पारदर्शी नली, जिसका दूसरा सिरा एक बड़ी-सी मशीन से हो कर शीशे के मर्तबान में डला हुआ था। मामन ने धीमी आवाज में बताया कि ट्यूब से कोई खास दिक्कत नहीं है, लेकिन उसे बड़ी प्यास लग रही है। नर्स होंठों को थोड़ा-सा गीला-भर कर दे रही थी। मामन पानी की बूँद को चाटने के लिए होंठों को गोल कर ले रही थी। मुझे उसके गोल होंठ देख कर याद आया कि जब भी वह शर्मिंदा होती थी, यूँ ही होंठों को गोल कर लिया करती थी। डॉक्टर ने जार में भरते जा रहे पीले लिसलिसे पदार्थ की ओर इंगित करते हुए कहा - "क्या आप चाहती हैं कि मैं ये सारा कचरा इनके पेट में ही छोड़ दूँ?" मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। डॉक्टर का कहना था शाम तक मामन के पास बमुश्किल चार घंटे की जिंन्दगी बची थी, उसने उसे पुनर्जीवन दे दिया।
"जीवन... किसलिए?" उसकी ओर देख कर पूछने का साहस मैं जुटा नहीं पाई।
विशेषज्ञों से सलाह-मशविरे का दौर चलता रहा। सूजे हुए पेट और दर्द से कराहती रही मामन। राहत के लिए मारफीन के इंजेक्शन दिए जाते, लेकिन उसकी भी तो एक सीमा थी। ज्यादा मारफीन उसकी आँतों को सुन्न कर सकता था। डॉक्टर मामन के ऑपरेशन का विचार कर रहे थे। सर्जन का कहना था रोगी बहुत कमजोर है अत: ऑपरेशन तत्काल संभव नहीं। एक बुजुर्ग और अनुभवी नर्स गोन्ट्राँ के मुँह से अचानक निकला - "उसे ऑपरेशन से दूर रखो।" मेरे बार-बार कारण पूछने पर भी वह चुप रही और मैं सोचती रही आखिरकार नर्स ने ऐसा क्यों कहा!
पाँच बजे शाम को पपेट ने मुझे सार्त्र के घर फोन किया। वह आशान्वित थी - "सर्जन ऑपरेशन करना चाहते हैं। खून की रिपोर्ट ठीक-ठाक है। डॉक्टर का कहना है मामन ऑपरेशन झेल लेगी। और वैसे भी, यह तो पक्का नहीं कि उसे कैंसर ही है, हो सकता है यह सिर्फ पेरिटोनाइटिस (पेट की झिल्ली का रोग) हो। क्या तुम सहमत हो?"
मैंने कहा तो कि 'मैं सहमत हूँ' लेकिन कानों में नर्स की चेतावनी गूँज रही थी - "उसका ऑपरेशन मत कराओ।" "तुम दो बजे तक आ जाओ। मामन को ऑपरेशन के बारे में नहीं बताएँगे, कहेंगे कि उसका एक्सरे लिया जाना है।"
उन्हें आपरेशन मत करने दो -
विशेषज्ञों, डॉक्टरों के ठोस निर्णय के विरुद्ध एक रुँधा, टूटा-सा प्रतिवादी स्वर कानों में फिर गूँज गया। बहन की आशाओं का मद्धिम प्रतिवाद भी नहीं कर सकी, बावजूद यह जानने के, कि संभव है यह मामन की अंतिम नींद हो !
तो...तो क्या बीमारी इतनी बढ़ गई कि तुरंत ऑपरेशन जरूरी है? ऐसा तो नहीं कि मामन मौत के बहुत करीब है? या... या इस ऑपरेशन के बाद वह तुरंत मर सकती है - क्या उस नर्स का यही मतलब तो नहीं था?
एक घंटे के भीतर ही पपेट फोन पर सुबकती हुई बोली - "जल्दी आओ सीमोन! मामन के पेट से कैंसर की बड़ी गाँठ निकली है...।" मेरे हाथ से रिसीवर छूट गया। सार्त्र ने मुझे सहारा दिया और नीचे आ कर नर्सिंग होम के लिए टैक्सी में बिठा दिया। मेरा गला रुँधा जा रहा था।
नर्सिंग होम पहुँचने पर, व्यथित पपेट को देख जी उमड़ आया। डॉक्टरों ने मामन को स्वाभाविक ढंग से सिर्फ यही बताया कि उसे एक्सरे के लिए ले जा रहे हैं, एनीस्थिसिया के दौरान पपेट उसका दाहिना हाथ थामे रही। पपेट किस मानसिक तनाव से गुजरी होगी, इसका अंदाजा मुझे था। बूढ़ी, थकी, कमजोर, पूरी तरह नग्न स्त्री - जो उसकी माँ थी - उसे देखना और आश्वस्त करना - कितना कठिन रहा होगा यह सब! कुछ देर में मामन की आँखें मुँद गईं और मुँह थोड़ा खुल गया। पपेट कैसे भुला पाएगी वह दृश्य! डॉक्टरों का कहना था पेट में जगह-जगह मवाद जमा बैठा है, झिल्ली फट गई है और एक बड़ी गाँठ है - बहुत ही भयंकर किस्म का कैंसर! सर्जन पेट का वो-वो हिस्सा काट कर अलग कर रहा था, जिसे अलग किया जा सकता था।
युवा डॉक्टर ऑपरेशन की सफलता से आह्लादित था। ऑपरेशन के बाद पैदा होनेवाली दिक्कतों से उसका कोई लेना-देना नहीं था। पपेट ने उससे पहले ही कह दिया था - "ऑपरेशन कीजिए, लेकिन यदि कैंसर निकला तो वायदा कीजिए आप उसे और यंत्रणा नहीं देंगे, उसे चुपचाप छोड़ देंगे बाकी दिन शांति से जीने के लिए मृत्यु की प्रतीक्षा में।" सर्जन ने वादा तो किया, लेकिन निभाया क्या?
मामन एनीस्थिसिया के प्रभाव से अभी भी सो रही थी, मोम-सा निष्प्रभ चेहरा, सूखी नाक, मुँह खुला हुआ - मैं घर लौट आई। सार्त्र से बातें कीं, फिर हमने संगीत सुना। अचानक लगभग ग्यारह बजे भीतर से रुदन का आवेग आया, लगा मैं उन्माद के दौर से गुजर रही हूँ। इतना रोई कि खुद पर आश्चर्य हुआ। पिता के मरने पर तो मेरी आँख से एक बूँद आँसू न टपका। मुझे लगा था मामन के वक्त भी मैं रोऊँगी नहीं। पता नहीं, कैसे उस एक रात में, सभी दु:ख बाढ़ की तरह उमड़ आए। पीड़ा, उदासी, यंत्रणा, रुदन - किसी पर मेरा वश नहीं था। जैसे मेरे भीतर ही कोई दूसरी औरत समा गई थी जो चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी, बिलखती जा रही थी अनवरत!
सार्त्र को बताया मैंने सब कुछ - मामन का खुला मुँह - जो सुबह देखा था, अपना लालच - मामन को और जीता देखने का लालच, दीनता, नम्रता, आशा, व्यथा और पीड़ायुक्त मामन का करुण चेहरा, उसके समूचे जीवन का सूनापन, मृत्यु का भय - और न जाने क्या-क्या। सार्त्र का कहना था मैं खुद को मामन समझ रही हूँ, उसकी प्रतिलिपि। उसकी पीड़ा, व्यथा सब अपने ऊपर ओढ़ ली है - मेरे भीतर मेरी माँ ही समा गई है, इसलिए मेरा रुदन मेरे भीतर की मामन का रुदन है।
मुझे नहीं लगता कि मामन का बचपन खुशनुमा रहा होगा। वह बचपन की चर्चा बहुत कम करती। उसकी यादें मधुर न थीं। उसके पिता हमारी लिलि मौसी को मामन से ज्यादा प्यार करते, वह बचपन में गुलाबी खूबसूरत गुड़िया लगती, उसके सामने मामन अति साधारण थी। लिलि मौसी उससे पाँच साल छोटी थी, फिर भी मामन हमेशा उससे ईर्ष्या करती। स्कूल के दिनों में वह मदर सुपीरियर से बहुत प्रभावित थी, पुराने फोटो में अन्य लड़कियों के साथ बंद गले के स्वेटर, लम्बी स्कर्ट और टोपी में मामन भावहीन चेहरे समेत कैद थी। ननों द्वारा थोपे आचार-विचार, नैतिक कायदे-कानून उसने बाने की तरह ओढ़ लिए थे। बीस वर्ष की उम्र में प्रेम की असफलता से उसे गहरा आघात लगा, जिसे वह ताउम्र भुला नहीं पाई।
विवाह के प्रारंभिक वर्षों में उसने शारीरिक, मानसिक और भौतिक रूप से परितृप्त जीवन जिया। पिता के अनेक प्रेम-संबंध थे, फिर भी मामन पति से बहुत प्रेम करती। पिता का विश्वास था कि रखैल और युवा पत्नी से समभाव से प्रेम करना चाहिए। मामन उनके संबंधों के बारे में जान गई थी। वे कई बार उसे प्रताड़ित भी करते, लेकिन वह किसी के सामने वास्तविकता जाहिर नहीं करती। याद है एक सुबह - मैं छह या सात वर्ष की रही होऊँगी - मामन कारीडोर के लाल कालीन पर नंगे पाँव, सफेद गाउन में चल रही थी, मैं उसका आह्लादित मुख देखती ही रह गई। उसकी मुस्कान में एक रहस्य था - जिसे मैं आज तक भूल नहीं पाई - वह रहस्य उस शयनकक्ष से जुड़ा था, जिससे वह अभी-अभी निकल कर आ रही थी। वयस्क होने पर ही मैं उस परितृप्त स्त्री की आह्लादित रहस्यमयी मुस्कान का अर्थ समझ पाई - जो मेरी माँ थी।
पिता स्वार्थी थे, मामन उदार। मामन को बहुत-सी इच्छाएँ पति के कारण दबानी पड़तीं। वे अहम्मन्य और कड़े स्वभाव के थे। नाना के दिवालिया हो जाने के कारण उन्हें शादी में वायदे के अनुरूप दहेज नहीं मिला था, मामन को ताजिंदगी इसका अपराधबोध रहा, इसलिए और ज्यादा क्योंकि पिता ने इसके लिए पत्नी को कभी जिम्मेदार नहीं ठहराया।
इन सबके बावजूद वह अपने वैवाहिक जीवन, खूब प्यार करनेवाली दो बेटियों और थोड़ी समृद्धि से - कम से कम युद्ध समाप्त होने तक, संतुष्ट थी। उसे अपने भाग्य से कोई खास शिकायत नहीं थी। मिलनसार, हँसमुख, स्नेही मामन - जिसकी मुस्कान बहुत अच्छी लगती।
बचपन की कई स्मृतियों को भुलाना संभव नहीं। मामन की खुशियाँ भी थोड़े दिन की ही थीं। हनीमून के दौरान ही पिता का स्वार्थीपन उसने देख लिया, वह इटली की झीलें देखना चाहती थी, वे नाइस से आगे गए ही नहीं, क्योंकि वहाँ घुड़दौड़ का मौसम शुरू हो गया था। मामन को घूमना बहुत पसंद था - 'मुझे खानाबदोश होना चाहिए था' वह कहती। वोस्गास से लग्जमबर्ग तक के रास्ते पर पैदल या साइकिल यात्रा का आयोजन उसके पिता किया करते - यह मामन के बचपन के सबसे खुशनुमा दिन थे। ऐसी कई चीजें उसे छोड़नी पड़ीं जिनका सपना वह बचपन से देखती आई थी। पिता की इच्छा सर्वोपरि थी। जिन सहेलियों के पति मेरे पिता को उबाऊ लगते, मामन को उन सहेलियों से मेल-मिलाप बंद कर देना होता। पिता को ड्राइंगरूम या मंच पर अभिनय करना पसंद था, यानी, पिता हमेशा आकर्षण का केंद्र बने रहना चाहते। वह प्रसन्नतापूर्वक पति का अनुगमन करती। उसे सामाजिक मेलजोल पसंद था, लेकिन वह इतनी आकर्षक और हाजिरजवाब नहीं थी। पैरिसियन समाज के लोग उसे गँवार समझते और मुस्कराते। वहाँ वह जिन औरतों से मिलती उनमें से कुछ के मेरे पिता से प्रेम संबंध थे। मैं कनफुसकियों, चुगलियों और धोखेबाजियों का अनुमान लगा सकती हूँ। पिता की मेज पर उनकी एक भूतपूर्व सुंदर और मेधावी प्रेमिका की फ्रेम जड़ी तस्वीर रखी थी, जो कभी-कभी अपने पति के साथ घर पर आती थी। तीस वर्ष बाद उन्होंने हँसते हुए मामन से कहा था - तुम उस तस्वीर की वजह से मुझसे दूर हो गयीं। उसके इनकार पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ। यह बात तो तय है कि मामन ने प्रेम और विवाह - दोनों में बहुत झेला, वह भावुक और हठी थी इसलिए उसके घाव धीरे-धीरे भरे।
यह कितना दयनीय है कि उसने अपने ऊपर उन पुराने मूल्यों को लादा, जिन्होंने उसे अपने बारे में, स्वतंत्र अस्तित्व के बारे में सोचने से रोका। जो काम उसने आगे चल कर, बीस साल बाद किया - यानी आर्थिक स्वावलंबन की चेष्टा - वह तो पहले भी किया जा सकता था, क्योंकि उसकी याददाश्त अच्छी थी, वह कहीं निजी सहायक या क्लर्क हो सकती थी, घर का काम खुद कर के, स्वयं को हीन समझने के बजाय बाहर काम कर के आत्मसम्मान को बनाए रखने में सफल हो सकती थी। उसके अपने निजी संपर्क हो सकते थे, वह परंपराबद्ध आश्रिता स्त्री की भूमिका से निकल कर स्वतंत्र व्यक्त्विशालिनी बन सकती थी। इसमें संदेह नहीं कि यदि वह ऐसा करती तो वह अपने भीतर की अनेक कुण्ठाओं से बच सकती थी।
मैं अपने पिता को दोष नहीं देती। यह एक कड़वा सच है कि पुरुष की इच्छाएँ क्षणभंगुर होती हैं। मामन ने यौवन की ताजगी खोई और पति ने ललक। मामन की आत्मा बड़ी आकुलता से पति से अपने प्रेम का प्रतिदान चाहती, लेकिन पति 'कैफे दी वैरिली' की युवतियों का सहारा लिया करता। मैं देखती, वे कई बार पूरी रात बाहर गुजार कर सुबह आठ बजे घर आते, शराब पी कर बड़बड़ाते और ऊटपटाँग किस्से सुनाते। मामन कभी कोई काण्ड नहीं करती, बल्कि उन किस्सों पर विश्वास कर लिया करती। लेकिन इस आपसी दूरी को वह मन से कभी स्वीकार नहीं कर सकी । मामन की स्थिति देख कर काफी हद तक मेरा विश्वास पुख्ता हो गया था कि बुर्जुआ विवाह संस्था बेहद अस्वाभाविक है। उँगली में पहनी विवाह की अँगूठी उसके सुखमय वैवाहिक जीवन का प्रमाण थी, उसकी इंद्रियाँ तृप्त होने के लिए व्याकुल थीं, पैंतीस वर्ष की अवस्था, यौवन के चरम समय में वह इंद्रियों को संतुष्ट करने के लिए स्वतंत्र नहीं थी। वह ऐसे आदमी के बगल में सोती रही, जिससे वह प्यार करती थी और वह जो उससे अब कभी प्यार जतलाता तक नहीं था। उसने प्रतीक्षा की, लालायित हुई, पर सब व्यर्थ। अपने ऊपर पूरी तरह संयम रखना उसके आत्मसम्मान के लिए, संकीर्ण सोच से ज्यादा आसान होता। मुझे आश्चर्य नहीं कि वह उससे चिड़चिड़ी हो गई, मारपीट, कांड, शिकायतें अकेले में ही नहीं, मेहमानों के सामने भी चलने लगीं। 'फ्रैंकोइस से विरक्ति होने लगी है,' मेरे पिता कहा करते। उसे खुद लगता कि वह अपने भावावेगों पर नियंत्रण नहीं रख पा रही है। परंतु उस दिन वह बुरी तरह आहत हुई जब सुना कि लोग कह रहे हैं कि 'फ्रैंकोइस बहुत निराशावादी है!' या 'फ्रैंकोइस विक्षिप्त हो रही है।'
युवावस्था में वह तरह-तरह के कपड़े पहनना पसंद करती थी। लोग जब कहते थे कि वह तो मेरी बड़ी बहन जैसी दीखती है, उसका चेहरा दीप्त हो उठता। पिता के एक चचेरे भाई जो सेलो बजाते थे, मामन पियानो पर जिनकी संगत कर चुकी थी, मामन के प्रति आदरपूर्ण अनुरक्ति दिखाते। उनकी शादी के बाद मामन ने उनकी पत्नी के प्रति नफरत जताई। यौन जीवन और सामाजिक मेल-जोल गड़बड़ा जाने के बाद मामन ने अपने कपड़ों, रूप-रंग पर ध्यान देना बंद कर दिया। अब वह अति महत्वपूर्ण अवसरों पर ही अच्छे कपड़े पहनती, वहीँ जाती, जहाँ जाना अनिवार्य होता। मुझे याद है एक बार छुट्टियों से लौटते हुए वह हमें स्टेशन पर मिली। उसने एक सुंदर मखमली टोपा, जिसमें छोटी-सी झालर थी, पहना था, थोड़ा पाउडर भी लगाया हुआ था। मेरी बहन खुश हो कर चिल्लाई, 'मामन, तुम बिल्कुल फैशनेबल लेडी दीखती हो!" वह ठठा कर हँसी, अब उसने गरिमापूर्ण व्यवहार का दंभ छोड़ दिया था। उसने स्वयं और अपनी बेटियों को साफ-सुथरा रहना सिखाया था - ठीक वैसे ही जैसा उसने कान्वेंट में सीखा था। अभी तक उसमें खुशामद करने-करवाने की इच्छा बाकी थी। खुशामदियों को वह नखरे और चोंचले भी दिखाती। पिता के मित्र ने अपनी लिखी किताब (जो उन्होंने खुद छपवाई थी) मामन को समर्पित की। "फ्रैंकोइस द बोउवार जिसके जीवन का मैं प्रशंसक हूँ" - यह एक श्लिष्ट और द्वयर्थक प्रशंसा थी, लेकिन मामन ने इससे बहुत गौरवान्वित अनुभव किया। उसने दूसरों से पाई प्रशंसा में अपने को भुला दिया।
शारीरिक आनंद से वंचित, आत्मप्रदर्शन के संतोष से भी वंचित, थकाऊ और उबाऊ अपमानजनक काम करने को विवश इस गर्वीली और हठी स्त्री ने कभी हार नहीं मानी। भावावेग और क्रोध के दौरों के बीच वह गाया करती, गप्पें मारती, चुटकुले सुनाती और मन में भरी शिकायतों के अंबार को शोर में डुबो देती। पिता की मृत्यु के बाद मेरी एक आंटी के कहने पर कि "वह एक आदर्श पति नहीं था" मामन बिफर पड़ी। 'उन्होंने मुझे हमेशा खुश रखा', यही बात तो वह खुद से भी कहती आई थी, लेकिन यह जबरन का आशावाद उसकी भूख मिटाने के लिए काफी नहीं था, उसे अपने ऊपर निर्भर बच्चों का पेट भरना था। 'कम से कम इतना तो है कि मैं आत्मकेंद्रित कभी नहीं रही, हमेशा दूसरों के लिए जी' - एक बार उसने मुझ से कहा था। इससे दूसरों पर जरूर प्रभाव पड़ा होगा, लेकिन दूसरे यानी मैं और पपेट इसके बारे में क्या सोचते हैं - यह मामन के लिए महत्वपूर्ण नहीं था, वह एकाधिपत्य चाहती थी। ऐसा संभव नहीं हो पाया क्योंकि बड़े होते ही हमने अपने-अपने एकांत और स्वतंत्रता का चयन कर लिया। मामन की दखलअंदाजी और बेटियों का निजी स्पेस - दोनों में टकराहटें भी हुईं और इससे पहले कि वह खुद को समझा पाती हम दोनों, उससे परे अपनी स्वतंत्र इयत्ताओं की खोज में निकल चुके थे।
फिर भी, वह सबसे ज्यादा ताकतवर थी, उसकी इच्छाओं की ही विजय होती। घर में, हमें हमेशा अपने-अपने कमरे का दरवाजा खुला रखना होता, ताकि वह बैठी-बैठी हम पर नजर रख सके। रात को, पपेट और मैं गप्पें लड़ाते, एक बिस्तर से दूसरे पर जाते बोलने-बतियाने। मामन हमारे कमरे की दीवार से कान लगाए बातें सुनती और कहती - 'चुप रहो'। वह हमें तैरना नहीं सीखने देती, पिता को हमें साइकिल खरीद कर देने से मामन ने ही मना किया। वह मेरे और पपेट के बीच की हर बात जानना चाहती, हमारे कार्यकलाप में हिस्सा लेना चाहती। ऐसा नहीं कि उसके पास अपना 'निजी' कुछ नहीं था, पर वह अकेली छूटना नहीं चाहती थी। वह जानबूझ कर हमारी हर बात में टाँग अड़ाती, जानते हुए कि हमें कई बार उसकी उपस्थिति पसंद नहीं आती। एक रात 'द ग्रिलर' में हम सब चचेरे-ममेरे भाई-बहन इकट्ठा हुए और मैंने किचन में क्रेफ्रिश पकाने की योजना बनाई। ऐन वक्त मामन आ धमकी। वहाँ लड़के-लड़कियों के अलावा और कोई नहीं था, कोई वयस्क नहीं, ऐसे में मामन का अचानक आना अजीब-सा लगा - 'तुम्हारे साथ भोजन करने का मुझे पूरा अधिकार है' - कह कर उसने सब के उत्साह पर पानी उड़ेल दिया। एक बार हमारे चचेरे भाई जैक्स के साथ मेरा और पपेट का 'सैलून द आटम' के पास मिलने का कार्यक्रम तय हुआ। मामन ने हमें अकेला नहीं छोड़ा, वह भी हमारे साथ गई, जैक्स आया ही नहीं। बाद में बताया कि मामन को हमारे साथ, उसने दूर से देख लिया था, सो वापस लौट गया। मामन हमेशा अपनी उपस्थिति जतलाती थी। हम जब भी अपने मित्रों को घर बुलाते मामन टपक पड़ती, उसके आने से दोस्त चुप्पी साध लेते और मामन बोलती जाती। वियेना और मिलान के औपचारिक भोजों में वह स्वयं को बड़े अनौपचारिक ढंग से प्रस्तुत करती और मेरी बहन शर्मिंदा होती।
अपनी उपस्थिति दर्ज करने, खुद को दूसरों पर थोपने के अवसर अनेक नहीं थे, उसके निजी संपर्क बहुत कम बचे थे। जब तक पिता जीवित थे, वे ही हमेशा केंद्र में बने रहते। मामन का यह कहना कि 'यह मेरा अधिकार है' वस्तुत: स्वयं को पुनराश्वस्त करने का प्रयास भर था। कभी-कभी वह आत्मनियंत्रण खो कर कर्कश व्यवहार करती, लेकिन सामान्यत: वह अपमानित होने की सीमा तक दखलअंदाजी करती। मुझे याद है वह मेरे पिता से थोड़े-से पैसों के लिए भी झगड़ती, लेकिन कभी पैसे माँगती नहीं। यथासंभव अपने ऊपर खर्च नहीं करती - बच्चों के खर्चों में भी किफायत करती। उसने पति को पैसा उड़ाते देखा - मूक रही। हर शाम और साप्ताहिक अवकाश को घर से बाहर गुजारते देखा - पर कुछ बोली नहीं। उनकी मृत्यु के बाद जब वह मेरे और मेरी बहन पर आश्रित हुई तब भी उसमें वही झिझक बरकरार रही - दूसरे के लिए कभी परेशानी का कारण न बनने की कोशिश। ऐसा करके वह हमारे प्रति आभार व्यक्त करती थी, क्योंकि भावनाएँ जताने का और कोई तरीका उसके पास नहीं था।
मामन का प्यार हमारे लिए गहन और विशिष्ट था, इस प्यार के कारण हमें जितनी भी पीड़ा मिली वह मामन के व्यक्त्वि के अंतर्विरोधों के कारण थी। वह कभी-कभी आत्महंता-सी भी हो उठती। तीस-चालीस वर्ष पुरानी घटनाएँ और मन पर लगी चोटों को वह बड़ी शिद्दत के साथ याद करती थी, परिणामत: रुक्षता की हद तक खुला व्यवहार और ताने-तिश्ने उसके व्यवहार का अंग बन गए। हमारे प्रति उसका व्यवहार बिल्कुल अविचारित-सा होता। कभी-कभी वह हमें दुखी भी नहीं करना चाहती थी लेकिन स्वयं को अपनी ताकत दिखाना चाहती थी। एक बार पपेट ने मुझे पत्र में अपने किशोर सपनों, आशाओं, आकांक्षाओं, भावनाओं और समस्याओं के बारे में लिखा। उन दिनों मैं जाज के साथ छुट्टियाँ मना रही थी, मैंने भी उसका भावात्मक प्रत्युत्तर दिया, जिसे मामन ने पपेट के सामने खोल कर पढ़ा और बेइंतहा मजाक उड़ाया। पपेट क्रोध और अपमान से सुलग उठी और उसने मामन को कभी भी क्षमा न करने की कसम खाई। रो-रो कर बेहाल मामन ने मुझे पत्र लिख कर कहा कि पपेट के मन में उसके लिए जो कड़वाहट आ गई है उसे भुलाने में मैं मदद करूँ। मैंने यह किया भी।
हम दोनों बहनों के मैत्री संबंध से मामन को ईर्ष्या थी, क्योंकि वह पपेट को पूरी तरह अपने आधिपत्य में रखना चाहती थी। मैं अब उस पर विश्वास नहीं करती - यह सुन कर उसने पपेट से कहा- "मैं तुम्हें उसके प्रभाव से बचाऊँगी और तुम्हारी रक्षा करूँगी।" छुट्टियों में उसने हमारे आपस में मिलने पर पाबंदी लगा दी। हम मामन से और वह हमारे पारस्परिक सौहार्द से ईर्ष्या ही करती रही और अंत तक उससे हम अपनी अधिकांश बातें छुपाने की आदी बनी रहीं।
लेकिन कभी-कभी मामन हम पर अपना वात्सल्य भी लुटाती। अनजाने में ही सत्तरह वर्षीया पपेट पिता और उनके परम मित्र अंकल एड्रियन के बीच झगड़े का मुद्दा बन गई थी। मामन ने पति के विरुद्ध जा कर पपेट का पक्ष लिया, क्रोध में पिता ने कई महीने अपनी बेटी से बात नहीं की। बाद में, मामन ने चित्रकार बनने में पपेट की मदद की। रोजी-रोटी के लिए अपनी प्रतिभा का गला दबाने से रोका और भरसक उसका सहारा बनी। याद है, पिता की मृत्यु के बाद उसने मित्र के साथ मुझे यात्रा पर जाने के लिए प्रोत्साहित किया, तब जबकि उसकी एक हल्की उदासी, ठंडी-सी आह भी मुझे यात्रा पर जाने से रोकने के लिए काफी थी।
मामन ने अपने संबंध फूहड़पन के कारण खराब कर लिए थे। इससे ज्यादा दयनीय और क्या हो सकता था कि उसने अपनी ही दो बेटियों को एक-दूसरे से अलग करने की कोशिश की। जैक्स जब भी आता - मामन, मजाक में ही सही, उससे ऐसा व्यवहार करती कि वह चिढ़ जाता। धीरे-धीरे उसने आना बंद कर दिया। जब मैं दादी के घर रहने लगी, वह रोई तो, मगर कोई कांड उपस्थित नहीं किया। शायद आत्मसम्मान ने उसे ऐसा करने से रोका होगा। जब भी मामन के पास जाती, वह शिकायत करती कि मैं परिवार की उपेक्षा कर रही हूँ, जबकि यह सच नहीं था - मैं बार-बार घर जाया करती थी मामन और पपेट से मिलने के लिए। वो कभी मुँह खोल कर कुछ माँगती नहीं थी। इसके पीछे उसका मूल्यबोध हो या स्वाभिमान, लेकिन उसे हमेशा शिकायत रहती थी।
मामन अपनी समस्याओं पर किसी से बात नहीं कर पाती थी, यहाँ तक कि खुद से भी। किसी कार्य के निहित उद्देश्य और अपने निर्णयों पर पुनर्विचार करने की क्षमता उसमें नहीं थी। अधीनस्थता उसकी प्रकृति बन गई थी, लेकिन जिनका आधिपत्य वह ग्रहण करना चाह रही थी, वे खुद इतने ऊँचे नहीं थे कि मामन को अपनी छत्रछाया दे सकें। बचपन में, उसने कान्वेंट में, लेस आइसिअक्स में, मदर सुपीरियर की छत्रछाया पाई थी - पति और मदर सुपीरियर में कोई मेल नहीं था - फिर भी वह पति की गुलामी करती रही। अधीनता की पीड़ा को मैं समझ गई थी, इसलिए बचपन से आत्मविश्वास पैदा किया और अपने रास्ते पर खुद चली। मामन के लिए यह रास्ता बंद था, वह बहुत-से लोगों से बातचीत कर के एक सामान्य राय कायम करती थी, उसकी याददाश्त बहुत अच्छी थी, चाहने पर वह स्मृति और अर्जित ज्ञान के बल पर अपना व्यक्तित्व बेहतरीन ढंग से निखारने का प्रयास कर सकती थी। पिता की मृत्यु के बाद उसने बुद्धिमत्ता से लोगों से व्यवहार किया। वह उन लोगों से मिलती जो उसके जैसा सोचते-विचारते थे। उसने उन्हें कैथोलिक और इन्टीग्रीट दो खाँचों में बाँट दिया था। परंपरावादी थी वह, फिर भी मेरी राय उसके लिए महत्वपूर्ण थी। पपेट और लॉयनल तथा मेरी आँखों के सामने वह खुद को मूर्ख नहीं दिखाना चाहती थी। इसलिए वह हर बात में हामी भरती और किसी बात से आश्चर्यचकित नहीं होती थी (यदि होती तो दिखाती नहीं थी), इसलिए उसकी दिमागी उलझनें कभी खत्म नहीं हुईं। विगत वर्षों में जब वह अधीनस्थ थी - उस दौरान उसने अपना कोई निजी विचार, सिद्धांत कायम नहीं किया, अपनी अवधारणाओं को भी व्यक्त नहीं कर सकी, यही उसकी व्यग्रता और बेचैनी का कारण था।
स्व के विरुद्ध विचार करना कई बार अच्छे परिणाम भी सामने लाता है, लेकिन मामन के लिए प्रश्न दूसरा था - उसने तो वही जीवन जिया था जो उसके खुद के खिलाफ था। इच्छाएँ, लालसाएँ अनन्त थीं, जिन्हें दबाया और कुचला - जिन्होंने बचपन में क्रोध का रूप धारण कर लिया। बालपन में उसके तन, मन और मस्तिष्क - तीनों को सिद्धांत और नैतिकता के चौखटे में फिट करने के लिए निचोड़ा गया। उसे खुद से भी अपनी इच्छाओं को कहने से रोका गया, नैतिकता, मर्यादा के धागों से कसना सिखाया गया। रक्तमज्जा से बनी एक जीवंत स्त्री उसी के भीतर जीती रही, स्वयं से अपरिचित, विखंडित और विकृत।
सुबह उठते ही मैंने बहन को फोन किया। मामन को मध्य रात्रि में ही ऑपरेशन के लिए ले जाया गया था। उसे अपने ऑपरेशन के बारे में पता चल गया था पर उसने कोई आश्चर्य व्यक्त नहीं किया। मैंने नर्सिंग होम के लिए टैक्सी ली, वही यात्रा, वही नीला निरभ्र आकाश, वही नर्सिंग होम। लेकिन मुझे दूसरी मंजिल पर जाना था, पहले मामन को जिस मंजिल पर रखा गया था वहाँ पर 'अंदर आना मना है' की तख्ती लटका दी गई थी और बिस्तर पहलेवाली जगह पर खिसका दिया गया था। ऑपरेशन थियेटर-वाले हॉल को पार कर के, सीढ़ियों को जितनी जल्दी और साथ ही जितनी देर में हो सका पार करके, मैं मामन के इस कमरे में पहुँची जहाँ उसे ऑपरेशन के बाद वापस ले आया गया था। कमरा वही था, दृश्य बदल गया था। मिठाई के डिब्बे और किताबें रैक पर रख दिए गए थे, किनारे की बड़ी मेज पर पहले की तरह फूलों के गुच्छे नहीं थे, उनकी जगह बोतलों और परखनलियों ने ले ली थी। मामन सो रही थी, नाक और मुँह में कोई नली नहीं थी, जिससे अब उसकी ओर देखना कम पीड़ादायक था। बिस्तर के नीचे पेट और आँतों से जुड़ी नलियाँ और जार दीख रहे थे, बाईं बाँह में ड्रिप लगी हुई थी। उसके शरीर पर कोई कपड़ा नहीं था, जैकेट उसकी छाती पर रखी हुई थी, निरावृत्त कंधे दिखाई दे रहे थे। अत्यंत शालीन प्राइवेट नर्स मादामोसाइले लेबलोम, जिसने सिर पर स्कार्फ बाँध रखा था, ड्रिप की जाँच की और फ्लास्क को हिलाया-डुलाया ताकि प्लाज्मा उसमें जम न जाए। प्रो. बी ने पपेट को बताया कि मामन कुछ हफ्ते या कुछ महीने और जी सकती है और अगर कुछ महीने बाद रोग किसी और अंग में उभरा तब हम मामन से क्या कहेंगे - पपेट का सवाल था। "चिंता मत करो, हम कुछ न कुछ कह देंगे, हम हमेशा ऐसा करते हैं और रोगी हम पर विश्वास भी कर लेता है।" प्रो. बी ने समाधान किया।
शाम को मामन कुछ होश में आई, अस्पष्ट स्वर में कुछ बोली, जिसे समझना मुश्किल था। मैंने कहा - "तुम्हारी टाँग टूट गई और डॉक्टरों ने तुम्हारे अपेंडिसाइटिस का ऑपरेशन कर दिया..."