ए वेरी ईज़ी डेथ / भाग 2 / सिमोन द बोउवा

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उसने उँगली उठाई - फुसफुसी आवाज में बोली - अपेंडिसाइटिस नहीं पेरिटोनाइटिस...

क्‍या? पेरिटोनाइटिस?

हाँ...

इस क्लीनिक में आने से वह बच पाई तो धोखा शुरू हो गया था - मामन नहीं जानती थी कि उसे कैंसर है, वह खुश थी कि अब कोई ट्यूब उसके शरीर से नहीं लगी थी।

पेट की गंदगी बाहर निकल जाने से सूजन कम हो गई थी और अब दर्द भी नहीं था। अपनी दोनों बेटियों को बिस्‍तर के पास देख कर वह सुरक्षित अनुभव कर रही थी। डॉ. पी. और डॉ. एन. मामन की प्रगति से आश्‍वस्‍त थे - 'मरीज ने आश्‍चर्यजनक प्रगति दिखाई है।' वास्‍तव में यह अचंभे में डालनेवाली बात थी। कल तक की जराजीर्ण, गठरी-सी बुढ़िया वापस जीवन की ओर लौट रही थी।

शंताल की लाई वर्ग पहेली की किताब मैंने मामन को दिखाई। मामन ने तुरंत नर्स को बताया - मेरे पास नई द राउजे डिक्‍शनरी है, मैं उस में से देख कर ये सारी वर्ग पहेलियाँ सुलझा लेती हूँ। वह डिक्‍शनरी उसकी अंतिम इच्छित वस्‍तुओं में से एक थी। मैंने उसे ला कर देने का वायदा किया।

"और हाँ, वो उपन्‍यास 'एडिपे' भी लाना - वह तो मुझे मिला ही नहीं।"

मामन की आवाज सुनने के लिए बहुत धैर्य और एकाग्रचित्‍तता की जरूरत थी, वह बमुश्किल बोल पा रही थी, शब्‍द अनसुने ही हवा में विलीन हो जाते थे। उसकी स्‍मृतियाँ, इच्‍छाएँ समय और काल से परे थीं। मौत का नैकट्य और बच्‍चों-सी आवाज में इच्‍छाओं की अभिव्‍यक्ति उसे किसी अन्य लोक का प्राणी बना रहे थे।

लेटे-लेटे ही नली के द्वारा कुछ बूँदें उसके गले में डाली जातीं, वह कागज के नैपकिन में थूकती जो नर्स उसके मुँह के पास ला कर लगा देती। मादामोसाइले लौरेन्‍ट उसको सीधा लिटा देती, क्‍योंकि बीच-बीच में खाँसते-खाँसते मामन दोहरी हो जाती। आज मामन के चेहरे पर चार दिनों के बाद हँसी देखी।

पपेट नर्सिंग होम में मामन के साथ रात में रुकना चाहती थी - "दादी और पापा के अंतिम समय में तुम उनके पास थीं, मैं तो बहुत दूर थी, अब मामन के अंतिम वक्‍त में उसके पास सिर्फ मैं रहूँगी और उसकी देखभाल करूँगी।" मैं राजी थी, लेकिन मामन ने हतप्रभ हो कर पूछा - "तुम यहाँ किसलिए सोओगी?"

'जब लॉयनल का ऑपरेशन हुआ था, तो मैं ही उसके कमरे में सोई थी, इसमें चौंकने की क्‍या बात है?"

'अच्‍छा, ऐसा है।'

घर पहुँचते-पहुँचते मुझे कँपकँपी के साथ बुखार आ गया। क्लीनिक के भीतर बहुत गर्मी थी और उसके मुकाबले बाहर नमी भरी ठंड थी, नतीजतन मुझे फ्लू हो गया। मैं दवा ले कर बिस्‍तर पर लेट गई, फोन बंद नहीं किया : मामन किसी भी क्षण मर सकती थी, डॉक्‍टरों का कहना था - मोमबत्‍ती की डूबती हुई लौ है अब मामन की जिंदगी। भोर में चार बजे घंटी बजी - 'तो मामन चली गई।'- फोन उठाया, स्‍वर अपरिचित था, कोई राँग नम्‍बर था। फिर सूर्योदय तक नींद नहीं आई। लगभग साढ़े आठ बजे टेलीफोन बजने पर मैं दौड़ी। किसी और ने यूँ ही फोन किया था।

जब से मामन का ऑपरेशन हुआ था - हर क्षण कानों में यही गूँजा करता था -

'यह अंत है! यह मामन का अंत है।'

मामन को लगता था वह ठीक हो जाएगी। उसने डॉक्‍टरों की आपसी बातचीत सुनी थी। एक ने कहा था - 'यह आश्‍चर्य की बात है।'- मामन को बहुत कमजोरी थी। और खुद भी वह थोड़ी-सी भी मेहनत नहीं करना चाहती थी, वह चाहती थी कि ताजिंदगी नली से तरल पदार्थ उसके पेट में उतरता रहे।

'मैं अब कभी नहीं खाऊँगी।'

लेकिन तुम्‍हें तो खाना बहुत पसंद था।

मादामोसाइले लेबलोन कंघी ले कर मामन के बाल सुलझाने बैठी, मामन ने दृढ़ता से आदेश दिया - 'इन्‍हें काट कर फेंक दो।' शायद वह बालों को काट कर फेंकने से अपने आराम को जोड़ कर देख रही थी। अब आराम उसके लिए सबसे ज्यादा महत्‍वपूर्ण था, उसके आगे केश-सज्‍जा का क्‍या काम था। नर्स ने चुपचाप बाल सुलझा कर चोटी बाँध दी और सिर पर चाँदी के रंग का रिबन बाँध दिया। मामन का निश्चिन्त चेहरा एक अप्रतिम पवित्रता से दमकने लगा। मुझे लगा यह लियोनार्डो की बनाई हुई खूबसूरत वृद्ध स्‍त्री की पेंटिंग है।

'तुम बहुत सुंदर हो।'

वह मुस्‍कुराई, 'मैं कुरूप कभी नहीं थी,' लगभग रहस्‍यमयी आवाज में वह नर्स को बताने लगी - 'जवानी के दिनों में मेरे बाल बड़े सुंदर थे, जिन्हें मैं जूड़े में बाँधा करती,' वह बहुत देर तक खुद के बारे में ही बात करती रही। कैसे उसने लाइब्रेरियन का डिप्‍लोमा लिया, पुस्‍तक-प्रेम वगैरह। नर्स ग्‍लूकोज और अन्‍य जरूरी पोषक पदार्थों का मिश्रण तैयार कर रही थी 'ये तो पौष्टिक काकटेल था,' - मैंने लक्ष्‍य किया।

मैं और पपेट पूरे दिन मामन को भावी योजनाओं के बारे में बताते रहे, वह आँखें मूँदे चुपचाप सुनती रही। अल्‍सेस में पपेट और उसके पति ने अभी-अभी एक पुराना फार्म हाउस खरीदा था। अब वे उसे सजाने और व्‍यवस्थित करने जा रहे थे। मामन वहीं जा कर रहेगी - उसके पास बड़ा निजी कमरा होगा जहाँ वह पूरी तरह स्‍वास्‍थ्‍य-लाभ कर सकेगी।

'लॉयनल ऊब तो नहीं जाएगा, अगर मैं बहुत लंबे समय तक वहाँ रही?'

'नहीं, वहाँ तो खूब सारी जगह है - तुमसे उन्‍हें क्‍या परेशानी होगी? शरबर्जन तो बहुत छोटा था ना, वैसी परेशानी अल्‍सेस में नहीं होगी।'

फिर हम मेरीगेन के बारे में बातें करने लगे! मामन विगत यौवन की स्‍मृतियों में खो गई। स्‍मृतियों ने उसे चैतन्‍य कर दिया। जीन को वह बहुत चाहती थी जिसकी सुंदर-सुंदर तीन बेटियाँ थीं।

'मुझे नातिनों का बड़ा शौक था और उन बच्चियों की नानी नहीं थी, सो मैं उनकी नानी बन गई।'

वह ऊँघ रही थी। मैं अखबार पढ़ने लगी। आँखें खोल कर उसने पूछा - शैगन में क्‍या हो रहा है? मैं समाचार सुनाने लगी, इतने में डॉक्‍टर पी. आए जिनसे उसने कहा- 'मुझे मालूम है मेरी पीठ का ऑपरेशन हुआ है।' हँसते हुए डॉ. पी. की तरफ देख बोली - 'यही हैं जिम्‍मेदार।' मैंने सुना कि डॉ. पी. ने उससे थोड़ी देर बातचीत की। मैंने मजाक में कहा - 'तुम वास्‍तव में विशिष्ट हो। तुम यहाँ अपनी जाँघ की हड्डी ठीक कराने आई और उन्‍होंने पेरिटोनाइटिस का ऑपरेशन कर डाला।

'बिल्‍कुल सही कहा, मैं असाधारण स्‍त्री हूँ।'

हम काफी दिनों तक इस बात पर मजाक करते रहे - प्रो. बी. पैर का ऑपरेशन करने आए लेकिन डॉ. पी. ने पेरिटोनाइटिस का ऑपरेशन कर डाला।

और जिस दिन मामन ने स्‍पर्श अनुभव करना शुरू किया, वह दृश्‍य हम सबके दिलों को छू गया। अठहत्‍तर वर्ष की उम्र में रूप, रस, गंध, स्‍पर्श को नए सिरे से अनुभव करना वैसा ही था जैसे पुनर्जन्‍म लेना। हुआ यों कि नर्स द्वारा तकिए को ठीक-ठाक करने के क्रम में ट्यूब का धातुवाला हिस्‍सा उसकी जाँघ से छू गया - 'ये शीतल है, बिल्‍कुल शीतल, कितना अच्‍छा लग रहा है।' यूडीकोलोन और टेल्‍कम पाउडर की गंध को सूँघ कर बोल उठी - 'कितनी सुगंध!' पहिएदार मेज पर फूलों का गुच्‍छा रखा गया, गुच्‍छे में गुँथे गुलाबों को देख बोल उठी - मेरीगेन में इस मौसम में भी गुलाब मिल रहे हैं! ये वहीं के हैं। उसने खिड़की से पर्दे खिसका देने को कहा ताकि वह वृक्षों के सुनहरे पत्‍तों को देख सके। 'कितना खूबसूरत! अपने फ्लैट से तो मैं उन्‍हें कभी देख नहीं पाती। वह मुस्‍कुराई - यह वही मुस्‍कान थी, जिसे हमने बचपन में उसके चेहरे पर देखा था। वह कांतिमयी - युवा मुस्‍कान! ये अब तक कहाँ थी?

यदि वह ऐसे ही खुश रहना चाहती है, यदि उसके जीवन के कुछ ही दिन बचे हैं तो उसे खुश होने देना चाहिए। जीवन के इन अंतिम दिनों में हम उसे इतनी खुशी तो दे ही सकते हैं - पपेट ने कहा : लेकिन यह सब किस कीमत पर?

अगले दिन रोगी का कमरा देख कर अचानक मुझे लगा कि वह "मृत्‍यु-कक्ष" है। खिड़की के ऊपर गहरा नीला पर्दा था। खिड़की का शटर टूटा हुआ था, जिसे खिसकाया नहीं जा सकता था (पहले तो टूटी खिड़की के पार से आती रोशनी से मामन को कोई तकलीफ नहीं थी, वह अँधेरे में आँखें मूँद लेती थी)। मेरे द्वारा अपने हाथ में उसका हाथ लेते ही वह धीमी आवाज में बोली - "यह सीमोन है! मैं तुम्‍हें देख ही नहीं पा रही।" पपेट के जाने के बाद मैंने एक जासूसी कहानी निकाली। बीच-बीच में मामन उच्‍छ्वास भरती थी, "मेरा दिमाग नहीं है, डॉ. पी. के आने पर बोली - "मैं कोमा से गुजर रही हूँ।"

"तुम्‍हें कैसे मालूम?"

"कोमा में जानेवाले को खुद कैसे मालूम होगा कि वह कोमा में है?"

इस उत्‍तर ने उसे आश्‍वस्‍त किया। मामन का कहना था कि उसका बहुत बड़ा ऑपरेशन हुआ है। एक शाम पहले ही उसने अपने स्‍वप्‍न के बारे में बताया कि कई डरावने आदमी नीले वस्‍त्र पहने हुए उसे लेने के लिए आए हैं और कॉकटेल पिलाने ले जाना चाहते हैं। तुम्‍हारी बहन ने उन्‍हें वापस भेज दिया - मुझे नहीं ले जाने दिया। वास्‍तव में, मामन की अर्धचेतनावस्‍था में जो बातें हुई थीं उन्‍हें वह स्‍वप्‍न समझ रही थी। नीली यूनिफार्मवाले पुरुष नर्स उसे ऑपरेशन के बाद कमरे में लाए थे, कॉकटेल तो मैंने ही कहा था, जब नर्स उसके लिए पोषक मिश्रण तैयार कर रही थी।

मामन ने मुझसे फिर खिड़की खोलने को कहा, खिड़की तो खुली हुई थी- "ताजा हवा कितनी सुखद है - पंछी गा रहे हैं, उनका गीत मुझे बड़ा अच्‍छा लग रहा है।" "पक्षी!" मैं बाहर देखने लगी कि पक्षी कहाँ हैं?

तभी वह बोली - "अजीब बात है मुझे अपने बाएँ गाल पर एक पीले प्रकाश का अनुभव हो रहा है।"

डॉ. पी. से मैंने पूछ ही लिया - "क्‍या ऑपरेशन सफल था?"

"अगर आँतें अपना काम दो-तीन दिनों में करना शुरू कर दें तो कहा जा सकता है कि ऑपरेशन सफल हुआ, पर इसके लिए तो हमें दो-तीन दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।"

अच्‍छे लगे डॉ. पी., उनका आशावाद, रोगी को भी 'मनुष्‍य' समझने की मानवीयता, हमारी जिज्ञासाओं का समाधान करने को पर्युत्‍सुक। जबकि डॉ. एन. स्‍मार्ट, जानकार, तकनीकी रूप से कुशल होते हुए भी मुझे अच्‍छे नहीं लगे, वे मामन को प्रयोगशाला के नमूने के तौर पर देखते थे, हाड़-मांस के जीते-जागते मनुष्‍य के रूप में नहीं। उन्‍होंने तो हमें डरा ही दिया था।

मामन की एक रिश्‍तेदार थी, जो छह महीनों से कोमा में थी। मामन ने उसी संदर्भ में कहा था - "मुझे ऐसे मत रखना, ये बहुत डरावना है।"

पपेट ने रविवार सुबह मुझे फोन पर बताया कि उन्‍होंने मामन को एनिमा देने की कोशिश की, नाकामयाबी हाथ लगी।

डॉ. एन. कभी अपनी ओर से बातचीत की पहल नहीं करते थे, उन्‍हें रोक कर मैंने ही पूछ लिया - "मामन को यंत्रणा देना जरूरी है क्या?" मैंने उनसे मामन को और यंत्रणा न देने की भीख माँगी।

अत्‍यंत प्रतिहिंसक स्‍वर में उत्‍तर मिला - "यातना नहीं दे रहा हूँ, जो करना चाहिए वही कर रहा हूँ।"

नीला पर्दा खिसका देने से मामन के कमरे में थोड़ा ज्‍यादा प्रकाश आ रहा था। मेरे जाते ही उसने वह काला चश्मा उतार दिया जिसे वह अपने साथ ही लाई थी - "ओह, आज मैं तुमको देख पा रही हूँ।"

आज वह बेहतर महसूस कर रही थी। बड़ी शांत आवाज में उसने पूछा - "बताओ तो मेरा दाहिना पासंग है कि नहीं?"

"क्‍या मतलब! दाहिना पासंग वो क्‍यों नहीं होगा।"

"बड़ा हास्‍यास्‍पद है, कल वे बोले कि मैं ठीक लग रही हूँ। लेकिन मैं सिर्फ बाईं ओर से ठीक लग रही थी। दूसरी ओर तो बिल्‍कुल सुन्‍न-सा लगा। ऐसा लगा मेरा दाहिना पासंग है ही नहीं, अब कुछ-कुछ महसूस हो रहा है।"

मैंने उसका दाहिना गाल स्‍पर्श किया - "कुछ महसूस हुआ?"

"हाँ, लेकिन जैसे ये कोई सपना है।"

बायाँ गाल छुआ।

"हाँ ये तो महसूस हुआ।"

जाँघ की टूटी हड्डी, ऑपरेशन की चीड़फाड़, दवा-पट्टी, ट्यूब, इंजेक्‍शन - सब कुछ बाईं तरफ ही हुआ। क्‍या इसीलिए मामन को लगा कि उसका दाहिना पासंग है ही नहीं?

"तुम खूब अच्‍छी दीख रही हो, डॉक्‍टर तुमसे बहुत प्रसन्‍न हैं।"

"ना, ना डॉक्‍टर मुझसे प्रसन्‍न नहीं। वो चाहता है मैं उसे पाद कर दिखाऊँ।" और हँस कर बोली - वापस लौट कर मैं उसे कुत्‍तोंवाली चॉकलेट का डिब्‍बा भेजूँगी।

यद्यपि उसके दोनों घुटनों के बीच रूई के पैड थे, पैर बिस्‍तर पर न टकराएँ इसकी पूरी व्‍यवस्‍था थी। फिर भी, उसकी पीठ में "बेड सोर" हो गए। दोनों पैर गँठिया से जकड़े, दाहिनी बाँह शक्तिहीन, बाईं बाँह में ड्रिप लगी थी। वह स्‍वयं हिलने-डुलने में बिल्‍कुल असमर्थ थी।

"मुझे जरा ऊपर खींचो तो।"

मुझ में यह साहस नहीं था, उसकी नग्‍नता के कारण नहीं, अब वह मेरी माँ नहीं रह गई थी, रह गई थी यंत्रणा पाते एक शरीर की स्‍वामिनी, मुझे डर था, डर था उस भयानक रहस्‍य के खुलने का, पट्टियों में बँधे शरीर को मैं और तकलीफ नहीं पहुँचाना चाहती थी।

अगली सुबह उसका एनिमा लेना जरूरी था। मादामोसाइले लेबलॉन को इसमें मेरी सहायता चाहिए थी। कंकाल मात्र... जिसके ऊपर नीली चमड़ी का खोल चढ़ा था, उसकी दोनों बगलों के नीचे हाथ लगा कर मैंने उसे धरा। हम जब मामन को दूसरी करवट दिलाने लगे तो वह डर से रोने लगी, उसे लगा व‍ह गिर जाएगी। हमने उसे सावधानी के साथ फिर से बिठा दिया। एक क्षण बाद ही बोली -

"मैंने अभी हवा निकाली है... जल्‍दी बेड-पैन!"

मादामोसाइले लेबलॉन और लाल बालोंवाली नर्स ने उसे बेड-पैन पर बिठाने की कोशिश की। मामन रोने लगी। मुझे लगा वो दोनों उसे घुटनों के बल बिठा रही हैं। मामन चीख रही थी, उसका शरीर दर्द से खिंच रहा था। "उसे अकेला छोड़ दो!" मैंने कहा।

मैंने नर्स से कहा - "कोई बात नहीं, उसे अपने बिस्‍तर में ही निवृत्‍त हो लेने दो।"

"ये तो बड़ा शर्मनाक है। फिर बिस्‍तर से दुर्गंध उठेगी और दूसरे रोगी यहाँ कैसे रह पाएँगे - नर्स ने प्रतिवाद किया। बिस्‍तर पर मल त्‍यागने से उसकी पीठ के घाव और बदतर हो जाएँगे - ऐसा ललछौंहें बालोंवाली नर्स का कहना था।

"तुम कपड़े तुरंत बदल देना।"

"लाल बालोंवाली नर्स दुष्‍टा है," मेरे लौटने पर मामन ने छोटे बच्‍चे जैसी आवाज में शिकायत की।

वह बिस्‍तर में ही निवृत्‍त होने के लिए तैयार थी, यहाँ तक कि बेहद पीड़ादायक इंजेक्‍शन लेने के लिए भी। वह दर्दनाक इंजेक्‍शन लेने के पहले कहती - चूँकि यह मेरे लिए अच्‍छा है, मेरे ठीक होने के लिए यह जरूरी है।

शाम को उसका मुस्‍कुराना बंद था। बार-बार बस एक ही बात दोहरा रही थी - "देखा मैंने शीशे में खुद को, मुझे लगा कि मैं बहुत ही बदसूरत हो गई हूँ।" वह इन्‍ट्रावेनस ड्रिप नहीं ले पा रही थी, बाएँ हाथ की नसें बुरी तरह सूज गई थीं, अब दाहिने हाथ की बारी थी। वह रात से डरती थी, रात में हाथ के हिलने-डुलने से इन्‍ट्रावेनस ड्रिप की सुई इधर-उधर खिसकने पर दर्द होता था और वह दर्द से कराहती रह जाती। उसकी गुजारिश थी - रात को ड्रिप का ध्‍यान रखा जाए। उसकी सूजी हुई नसें, जिनमें जबरदस्‍ती जिंदगी के बहाने दर्द प्रवाहित किया जा रहा था - उसे देख कर मैंने खुद से पूछा - "किसलिए यह सब?"

नर्सिंग होम में मामन को मेरे सहारे की आवश्‍यकता थी, थूकने, शौच निवृत्ति के लिए, करवट बदलवाने के लिए, कपड़े पहनने, तकिए के सहाने बैठने, खिड़की खोलने-बंद करने, उसकी ड्रिप न हिल जाए इसका ध्‍यान रखने में समय कट जाता था। मामन को निर्भर होना रास आ रहा था। वह बार-बार हर काम के लिए हमें पुकारती, लेकिन ज्‍यों ही मैं घर लौटती, दु:सह व्‍यथा और उदासी से मेरा सिर फटने लगता। मेरे भीतर भी एक कैंसर पल रहा था... वह था अनुताप।

"उसका ऑपरेशन मत कराओ" रह-रह कर यही आवाज मेरे कानों में गूँजती थी। मैं ऐसे कई परिवारों को जानती थी जहाँ कोई सदस्‍य किसी असाध्‍य या लंबी बीमारी से जूझ रहा होता - तब रोगी के प्रति परिवार के सदस्‍यों की उपेक्षा और वितृष्‍णा मुझे हमेशा व्‍यथित करती। सोचती इससे तो अच्‍छी थी "मर्सी किलिंग" - कम से कम वह सुख से मर तो जाता, रोज-रोज की यातना से तो बचता, लेकिन हमारा समाज, नैतिकता, मूल्‍य "मर्सी किलिंग" की इजाजत देते हैं क्‍या भला! शायद मुझे मौका दिया जाए तो, उनको, जिनके लिए जीवन असहृा है, एक क्षण में मार दूँ - जीवन की यंत्रणा से मुक्‍त कर दूँ।

सार्त्र का कहना है कि मैं ऐसा कर नहीं पाऊँगी। ठीक ही तो कहता है, मैंने ही ऑपरेशन के लिए सहमति दी थी। सार्त्र कहता है - तकनीक मुझ पर हावी हो गई है - नई तकनीक, डॉक्‍टरी खोजें, डॉक्‍टरों की भविष्‍यवाणी। एक बार अस्‍पताल पहुँच जाने पर रोगी उनकी संपत्ति है - उनके हाथ से रोगी को निकाल लेना तुम्‍हारे वश की बात नहीं।

उस बुधवार को दो ही विकल्‍प थे - ऑपरेशन या मर्सी किलिंग।

मामन का दिल बहुत मजबूत था। हो सकता है कि वह आत्‍मबल से कुछ दिन, यूँ ही बिना ऑपरेशन के जी जाती या डॉक्‍टर उसे मर्सी किलिंग की इजाजत नहीं देते और उसका जीवन मृत्‍यु से भी बदतर हो जाता। मैं तो ऑपरेशन के एक घंटे पहले तक नर्सिंग होम में थी न, क्‍यों नहीं कह पाई कि छोड़ दीजिए मामन को। बल्कि उसकी जगह मैंने क्षीण याचना की कि उसे और यंत्रणा मत दीजिए। उस युवा डाक्टर ने मुझे डाँट दिया, पूरी पुरुषोचित आक्रामकता से जो निश्चय ही उसका कर्तव्‍य था। डॉक्‍टर मुझ से कह सकते थे कि मैं ऑपरेशन का विरोध कर उससे कई वर्ष और जीने का अवसर छीन रही हूँ। भीतर की ऊहापोह, सवाल-जवाब ने मेरी मानसिक शांति छीन ली थी। पंद्रह वर्ष की थी तो देखा, अंकल मौरिस पेट के कैंसर से मरे। अंतिम दिनों में कहते थे - "मुझे खत्‍म कर दो, लाओ मेरी पिस्‍तौल। मार दो मुझे... " - उनकी आवाज कानों में गूँजती है।

डॉक्‍टर ने पपेट से वायदा किया था - मामन और नहीं भुगतेगी। उन्‍होंने वायदा नहीं निभाया। मृत्‍यु और यंत्रणा के बीच दौड़ शुरू हो गई थी। खुद से पूछती हूँ कि कोई प्रियजन जब खुद पर दया करने की याचना करे तो क्‍या करना चाहिए?

और अंतत: यदि मृत्‍यु को ही विजयी होना था तो फिर यह लज्‍जाजनक घृणित धोखा क्‍यों! मामन को लगता था कि हम उसके साथ हैं - बने रहेंगे जबकि हम अपने-आपको बहुत दूर कर चुके थे, वह अपनी पीड़ा-यंत्रणा में बिल्‍कुल एकाकी थी - नितांत असहाय और निरुपाय, स्‍वस्‍थ होने की तीव्र इच्‍छा उसकी सहनशीलता, उसका साहस - सब धोखा! इतनी यंत्रणा सह कर भी उसे क्‍या मिलेगा! कुछ नहीं...। वह दर्द सह रही थी यह सोच कर कि यह उसके ठीक हो उठने के लिए जरूरी है। मैं ऐसे पापकर्म की भागी थी, जिसके लिए मैं उत्‍तरदायी नहीं थी और जिसका प्रायश्चित असंभव था।

मामन ने वह रात आराम से काटी, लेकिन नर्स उसका हाथ थामे रहती क्‍योंकि मामन आधी रात को डर जाती। इन परिस्थितियों में मामन के पास रात को किसी का होना जरूरी था। पपेट रात को अपनी मित्र के पास सोती, सुबह नर्सिंग होम आती। सार्त्र अगले दिन प्राग के लिए रवाना होना चाहते थे। मैं उनके साथ जाऊँ या नहीं - ऊहापोह में थी। कभी भी कुछ हो सकता था, या उसी स्थिति में मामन महीनों पड़ी रह सकती थी। सार्त्र का कहना था प्राग से पेरिस पहुँचने में बस डेढ़ घंटे लगते हैं, फिर टेलीफोन तो है ही।

मामन मेरे प्राग जाने के पक्ष में थी। मेरे जाने ने उसे आश्‍वस्‍त कर दिया कि वह अब खतरे से बाहर है।

मामन, जिसे पहले कभी अपना ध्‍यान रखने की आदत ही नहीं थी - उसकी शारीरिक स्थिति ने इस बात के लिए विवश कर दिया था कि वह अपने अंग-प्रत्‍यंग के बारे में खूब गौर से सोचे। बिस्‍तर पर लेटी-लेटी वह जनरल वार्ड के रोगियों से खूब सहानुभूति जतलाती। उसका कहना था, बुढ़ापे में, उसे स्‍वस्‍थ रखने में ढेर सारा युवा रक्‍त खर्च हो गया, बीमारी ने बहुत-सा समय नष्‍ट कर दिया। उसे लगता कि उसकी अस्‍वस्‍थता ने हमें आतंकित कर दिया है और इसके लिए वह शर्मिंदा थी। उसकी चिंता की परिधि में, मैं और पपेट थे। उसे याद था कि पपेट नाश्‍ते में जैम खाना पसंद करती थी।

मेरी पुस्‍तक की बिक्री के परिणामों से मामन चिंचित रहती। मकान-मालिक द्वारा मादामोसाइले लेबलॉन को घर से निकाल दिए जाने पर मेरी बहन ने मामन से कहा कि लेबलॉन को मामन का स्‍टूडियोवाला फ्लैट रहने के लिए दिया जा सकता है। पहलेवाली बात होती तो मामन साफ इनकार कर देती, अपने फ्लैट में किसी को भी पैर न धरने देती। लेकिन, बीमारी ने उसके अभिमान और आभिजात्‍य गर्व के कवच को तोड़ डाला था। अब उसका एक ही एजेंडा था - जल्‍दी से जल्‍दी स्‍वस्‍थ होना। शारीरिक यंत्रणा ने उसे मानसिक रूप से परिष्‍कृत कर दिया था। देर से ही सही, पर अब उसमें ईर्ष्‍या-द्वेष का लेशमात्र भी नहीं बचा था। उसने हृदय से सबको क्षमा कर दिया था, उदारमना हो आई थी, इसलिए रोगिणी होते हुए भी उसकी मुस्‍कान में शांति और पवित्रता की झलक थी - मृत्‍यु शय्या पर विशिष्‍ट किस्‍म की प्रसन्‍नता।

ऑपरेशन से पहले उसने मार्था से कहा था - मेरे लिए प्रार्थना करना, क्‍योंकि जब हम बीमार और असहाय होते हैं - कुछ भी करने में अक्षम - तो प्रार्थना भी नहीं कर सकते। ईश्‍वरीय शक्ति में अगाध आस्‍था उसने संस्‍कारवश पाई थी, डॉक्‍टर ने भी कहा था इतने शीघ्र स्‍वास्‍थ्‍य लाभ करने का अर्थ ही है कि ईश्‍वर आप पर विशेष कृपालु हैं।

"हाँ, मेरे संबंध ईश्‍वर से बहुत अच्‍छे हैं, लेकिन अभी मैं उसके पास जाना नहीं चाहती।"

मामन मरना नहीं चाहती थी। मरने के पहले प्रायश्चित भी नहीं करना चाहती थी, चाहती तो निश्चित तौर पर किसी पादरी से मिलना चाहती, लेकिन अभी तक उसने किसी पादरी को बुलाने की इच्‍छा जाहिर नहीं की थी।

मैं दोपहर को, मामन की हालत जानने के लिए नर्सिंग होम फोन करती। उसकी तबीयत बेहतर थी। बृहस्‍पतिवार और शुक्रवार को वह स्‍वस्‍थ महसूस कर रही थी। मेरे फोन से वह खुश हो जाती थी, क्‍योंकि उसे लगता था इतनी दूर से मैं सिर्फ उसी की हालत जानने के लिए फोन कर रही हूँ। शनिवार को, मैं उसे फोन नहीं कर सकी। रविवार को टेलीग्राम मिला, "मामन बहुत बीमार है, तुम वापस आ सकती हो क्‍या?" रात को पपेट नर्सिंग होम में मामन के पास ही सोती थी, उसी ने बाद में मुझे बताया कि मामन को ऐसा लग रहा था कि वह सीमोन को देख नहीं पाएगी। इसलिए मुझे तार भेज कर बुलाना पड़ा।

मैंने अगली सुबह साढ़े दस बजे की उड़ान में, लौटने की सीट बुक करने के लिए एजेंट से कहा। यूँ ही, अचानक सारे कार्यक्रम बीच में छोड़ कर चले जाने के पक्ष में सार्त्र नहीं थे, वे चाहते थे, मैं एकाध दिन रुक कर सारे काम पूरे कर के जाऊँ। दरअसल, मृत्‍यु से पहले अंतिम बार मामन को देखने की, मेरी कोई इच्‍छा नहीं थी, लेकिन यह मेरे लिए अकल्‍पनीय था कि मामन अपनी आँखों से, अंतिम बार मुझे देखने की अतृप्‍त इच्‍छा लिए मर जाए। अंतिम इच्‍छा इतनी महत्‍वपूर्ण क्‍यों हो उठती है, जबकि हम जानते हैं कि उसकी कोई स्‍मृति नहीं रहेगी - जब मनुष्‍य ही जीवित नहीं रहेगा तो... और ऐसा कोई अनुबंध भी तो हमारे बीच बचेगा नहीं। मुझे लगता है, मेरे अस्तित्‍व का सबसे आंतरिक तंतु उस मरणासन्‍न स्‍त्री से कहीं अविच्छिन्‍न रूप से संपृक्‍त है - अंतिम क्षणों में, मेरा उसके पास होना - शायद उसे मुक्ति दे।

सोमवार को डेढ़ बजे मैं कमरा नं. 114 में पहुँची। मामन को मेरे आगमन के बारे में पहले से ही बता दिया गया था, उसे लगा मेरा लौटना पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ही है। मुझे देख कर, अपना काला चश्‍मा उतार कर वह मुस्‍कुराई। नींद की दवाएँ लेते रहने से, वह जैसे एक संभ्रम की स्थिति में थी। उसका चेहरा बदला-सा लग रहा था, आँखों के पपोटे कुछ सूजे-से और चेहरे का रंग पीलापन लिए हुए था। मेज पर, वापस फूल रख दिए गए थे। मादामोसाइले लेबलॉन जा चुकी थी, क्‍योंकि अब मामन को इन्‍ट्रावेनस ड्रिप नहीं दी जा रही थी और अब रात भर किसी नर्स के रुकने की जरूरत नहीं थी। जिस दिन मैं गई थी उसी दिन मादामोसाइले लेबलॉन ने ट्रांस्‍फ्यूजन के लिए ड्रिप लगाई - मामन को ड्रिप लेने में असहनीय यंत्रणा हो रही थी। उसकी नसें इतनी कमजोर हो गई थीं कि वे रक्‍त का बोझ भी वहन नहीं कर पा रही थीं, मामन के रुदन से पपेट बहुत व्‍यथित थी, उसने नर्स से ट्रांस्‍फ्यूजन रोकने के लिए कहा। नर्स ने कहा कि वह डॉक्‍टर को क्‍या जवाब देगी। पपेट का कहना था - "उसकी चिंता तुम्हें नहीं करनी होगी, वह मेरी जिम्‍मेदारी है।" डॉक्‍टर भली भाँति जानते थे कि घाव का भरना अब मुश्किल है। आँतों के मुहाने पर फिश्तुला बन रहा था, उनके खुलने-सिकुड़ने का मार्ग अवरुद्ध हो गया था और वे पूरी तरह काम नहीं कर पा रही थीं। मामन और कितने वक्‍त तक सँभाल पाएगी?

जाँच से पता लगा था कि ट्यूमर निकाले जाने के बाद भी शरीर में मवाद फैला हुआ था और उसने पूरे शरीर को अपनी गिरफ्त में ले लिया था।

वह अपने पिछले दो दिनों का लेखा-जोखा मुझे देने लगी। शनिवार को उसने सीमेनन का एक उपन्‍यास पढ़ना शुरू किया और वर्ग पहेली हल करने में पपेट को हरा दिया। उसकी टेबल पर कटे हुए कागजों का ढेर लगा हुआ था, वह "पेपर आर्ट" का अभ्‍यास कर रही थी। शनिवार को उसने आलू का भुर्ता खाया जिसे पचाने में उसे दिक्‍कत हुई - एक लंबा स्‍वप्‍न देखा, जिसने उसे नींद से जगा दिया, कि वह एक गड्ढे के ऊपर नीली चादर में लिपटी पड़ी है - पपेट ने चादर का एक सिरा पकड़ रखा है, मामन पपेट से आरजू कर रही है, मुझे गड्ढे में गिरने से बचा लो और पपेट कह रही है, डरो मत, मैंने तुम्‍हें अच्‍छी तरह पकड़ा हुआ है- तुम गिरोगी नहीं।

पपेट ने वह रात आरामकुर्सी पर बैठे-बैठे गुजारी। आम तौर पर मामन, जो हमेशा पपेट के आराम के लिए चिंतित रहा करती थी, बोली- "जागती रहो, मुझे जाने मत देना। अगर मैं सो जाऊँ तो मुझे जरूर जगा देना। मैं नींद में ही मर नहीं जाना चाहती।" मामन ने अपनी आँखें बंद कर लीं, वह थकी हुई थी - उसने चादर को मुट्ठियों में ज़ोर से पकड़ा और बोली - मैं जिंदा हूँ, जिंदा हूँ।

तनाव और चिंता से बचने तथा नींद के लिए डॉक्‍टर ने नींद की दवा और इक्‍वानिल के इंजेक्‍शन भी दिए। मामन दवा और इंजेक्‍शन लेने में उत्‍साह दिखाती। पूरा दिन वह अच्‍छे मूड में रहती। बीच-बीच में उसे अजीबो-गरीब चीजें दिखाई पड़तीं। उसे मेरी अपेक्षा पपेट पर ज्‍यादा भरोसा था। उसे लगता था कि पपेट को चूँकि लॉयनेल की देखभाल का अनुभव है, इसलिए वह चाहती थी कि हर रात पपेट ही उसके पास रहे।

मंगलवार अच्‍छी तरह गुजर गया। रात में, मामन को डरावने स्‍वप्‍न आते, उन्‍होंने उसे एक बक्‍से में बंद कर दिया है, वे बक्‍से को उठा कर ले जानेवाले हैं। पपेट से उसने कहा, मुझे लोगों को उठा कर मत ले जाने दो। कुछ देर तक पपेट मामन के माथे पर हाथ रखे रही - "तुम से वादा करती हूँ तुम्‍हें बक्‍से में नहीं ले जाने दिया जाएगा।"

उसने इक्‍वानिल के एक और इंजेक्‍शन की माँग की, सो गई। बाद में पपेट से उसका सवाल था - उस सब का क्‍या मतलब है, उस बक्‍से का, और वो लोग? "कुछ नहीं, वो तुम्‍हारे भीतर ऑपरेशन की स्‍मृतियाँ हैं, पुरुष नर्स तुम्‍हें स्‍ट्रेचर पर ले कर गए न ,वही है।"

मामन सो गई, लेकिन अगली सुबह बलि के लिए ले जाए जा रहे पशु की-सी कातरता उसकी आँखों में उतर आई थी। नर्स बिस्‍तर बदलने आई, मामन को करवट बदलते वक्‍त थोड़ी तकलीफ हुई। उसने पूछा डॉक्‍टर से, "आपको क्‍या लगता है, मैं बच पाऊँगी?"

मैंने डाँटा उसे - "ये सब क्‍या बोलती हो।"

मामन की चिंता थी, कहीं डॉक्‍टर नाराज न हो जाएँ उससे।

मामन डॉक्‍टर से पूछे बिना नहीं रह पाई -

"आप खुश हैं मुझसे?"

डॉक्‍टर ने तो यूँ ही "हाँ" में जवाब दे दिया, लेकिन मामन तो ऐसी हो गई जैसे डूबते को तिनके का सहारा। वह अपनी थकान का कोई न कोई बहाना ढूँढ़ ही लेती, जैसी डिहाइड्रेसन या आलू का भुर्ता पेट में भारी हो गया। एक दिन तो उसने नर्स पर इल्‍जाम ही लगा दिया कि उसने दिन में चार बार के बजाय तीन बार ही ड्रेसिंग की। उसने बताया - "डॉक्‍टर तो आग बबूला हो गया, शाम को नर्स पर खूब चिल्‍लाया।" कई बार मामन यही दोहराती रही, "डॉक्‍टर आग बबूला था।" उसके स्‍वर में प्रच्‍छन्‍न तुष्टि थी। मामन के चेहरे की सारी सुन्‍दरता नष्‍ट हो चुकी थी, चेहरे की मांसपेशियाँ अजीब ढंग से सिकुड़ गई थीं, घृणा, कड़वाहट और तरह-तरह की माँगें, वापस उसके स्‍वर में सुनी जा सकती थीं।

"मैं बहुत थक गई हूँ," उसने नि:श्‍वास भरा। आज दोपहर को मार्था का छोटा भाई, जो युवा पादरी था, आनेवाला था। "तुम कहो तो उसे आने को मना कर दूँ।"

"नहीं, तुम्‍हारी बहन उससे मिलना चाहती है। वे थियोलॉजी पर बात करेंगे। मैं अपनी आँखें बंद कर लूँगी, मुझे बोलने की जरूरत नहीं।"

उसने खाना नहीं खाया, यूँ ही सिर को सामने की ओर झुका कर सो गई, पपेट ने दरवाजा खोला - उसे लगा सब खत्‍म हो गया। चार्ल्‍स कोर्डोनियर सिर्फ पाँच मिनट रुका। वह उन दावतों का याद करता रहा, जिन पर उसके पिता हर सप्‍ताह मामन को बुलाया करते थे।

"मैं किसी बृहस्‍पतिवार को रास्‍पैल के पार्क में तुम्‍हें फिर से देखने की उम्‍मीद करता हूँ।"

...मामन ने आश्‍चर्य से ताका, उस ताकने में अविश्‍वास और यंत्रणा थी -

"तुम्‍हें लगता है मैं वहाँ फिर कभी जा पाऊँगी?"

मैंने इससे पहले कभी भी ऐसी नाउम्‍मीदी और दु:ख भरी दृष्टि नहीं देखी थी, उस दिन अनुमान लगा लिया था कि अब कोई उम्‍मीद उसके लिए बची नहीं। हमने उसके अंत को इतना नजदीक पाया कि जब पपेट वापस आ गई, तब भी मैं नहीं गई -

"तो मेरी हालत बदतर हो रही है, क्‍योंकि तुम दोनों हो यहाँ।" वह फुसफुसाई।

"हम हमेशा यहीं हैं।"

"पर कभी भी एक साथ एक ही समय में नहीं।"

एक बार फिर मैंने उसकी बात काटने की कोशिश की - "मैं यहाँ रुकी क्‍योंकि तुम मन से कुछ कमजोर दिखाई दे रही हो। लेकिन इससे अगर तुम्‍हें चिंता होती है तो मैं चली जाऊँगी।"

"नहीं, नहीं," वह डूबती आवाज में बोली।

अपने रूखेपन से मेरा ही हृदय ऐंठ गया। ऐसे समय में जब सत्‍य उसे रौंद रहा था, तब जबकि वह बचना चाहती थी, वह इस बारे में बात करके अपना डर कम करना चाहती थी, ऐसे में हम उसे चुप रहने के लिए कह रहे थे। हम उस पर अपनी चिंताएँ साझा न करने के लिए दबाव डाल रहे थे, उससे कहा जा रहा था कि वो अपने संदेहों का दमन करे, जैसा कि उसके साथ जिंदगी में हमेशा से होता चला आया था, वह अपराधी और गलत समझी गई थी। लेकिन हमारे पास और कोई रास्‍ता भी तो नहीं था, आशा उसके लिए अपरिहार्य थी। पपेट बुरी तरह थक गई थी। मैंने आज रात यहीं सोने का फैसला किया।

मामन अविश्‍वस्‍त भाव से बोली - "क्‍या तुम कर पाओगी? क्‍या तुम्‍हें मालूम है कि मेरे माथे पर कैसे अपना हाथ रखना है, जब मुझे डरावने सपने आएँ? "

""हाँ... जरूर.. जानती हूँ मैं..."

वह इस पर सोचती रही, फिर सीधे मेरी ओर देख कर बोली - "मुझे तुमसे डर लगता है।"

संभवत: मेरी बौद्धिकता ने मामन को हमेशा भयभीत किया, उस भय में सम्‍मान भी छुपा हुआ था, लेकिन अपनी छोटी बेटी के प्रति इस भाव का अभाव था। मामन के कपट व्‍यवहार ने मुझे पहले ही स्‍तब्‍ध कर दिया था। बच्‍ची के रूप में मैं एक उन्‍मुक्‍त छोटी लड़की थी, मैंने देखा कि वयस्‍क कैसे रहते हैं - निज की दीवारों में कैद। कभी-कभी मामन उन दीवारों के छेदों में से झाँकती - वे छेद तुरंत बंद भी हो जाते। "उसने अपने राज की बात मुझे बताई," मामन बड़े अर्थपूर्ण अंदाज में फुसफुसाती या कभी उन बंद दीवारों के बाहर से जब कोई दरार दिखाई दे जाती - "वह बहुत निकट है लेकिन कुछ बताती नहीं, पर ऐसा मालूम होता है कि..." वे आत्‍मस्‍वीकृतियाँ और गप्‍पें कुछ ऐसी रहस्‍यपूर्ण होतीं कि मैं उनके प्रतिरोध में, निजत्‍व की दीवारें अभेद्य कर लेना चाहती, ताकि कम से कम मामन उनके भीतर ताक-झाँक न कर सके। जल्‍दी ही, उसने मुझसे सवाल करना बंद कर दिया। एक-दूसरे के प्रति अनास्‍था का मूल्‍य हम दोनों को ही चुकाना पड़ा। आँसुओं ने मुझे दु:ख से भर दिया। जल्‍द ही मुझे यह अहसास हो गया कि उसके आँसू उसकी अपनी असफलता के थे, बिना इस बात की परवाह किए कि मुझ पर क्‍या गुजरी है। वह मुझ पर जबरन मित्रता थोपना चाहती थी। दूसरों से यह कहने के बजाय कि वे मेरी आत्‍मोन्‍नति के लिए प्रार्थना करें, यदि वह मुझे थोड़ी सहानुभूति और विश्‍वास देती तो हम में आपसी समझ विकसित हो सकती थी। आज मुझे मालूम है कि वो क्‍या चीज थी, जो उसे ऐसा करने से रोकती थी, उसे बहुत कुछ चुकाना था, बहुतेरे घावों को भरना था, खुद को दूसरे की जगह रखना था, सतह पर तो उसने सबके लिए बहुत-से त्‍याग किए, लेकिन वह कभी अपने से बाहर नहीं निकल पाई। इसके अलावा, वह मुझे समझने का प्रयास कैसे करती जबकि वह अपने-आप से बाहर निकल कर, खुद अपनी भावनाओं को ही समझ नहीं पाई, क्‍योंकि वह अपने भीतर झाँकने से कतराती रही। उसे लगा कि हमारे जीवन का ढाँचा ही ऐसा है कि हम कभी अलग हो ही नहीं सकते, अप्रत्‍याशितता ने उसे आतंकित कर दिया, वह जीवन में कभी इसके लिए प्रस्‍तुत नहीं थी, क्‍योंकि उसे हमेशा बने-बनाए फ्रेम के भीतर महसूस करना और कार्य करना सिखाया गया था, सोचना तो कभी सिखाया ही नहीं गया।

हमारे बीच अभेद्य सन्‍नाटा पसरा रहा। मेरे उपन्‍यास "शी केम टू स्‍टे" के आने तक उसे मेरे जीवन के बारे में लगभग कुछ नहीं मालूम चला। उसके नैतिकताबोध के अनुसार मैं "अच्‍छी लड़की" थी, अफवाहों ने उसके भ्रमों को तोड़ दिया, लेकिन उस बिंदु तक हमारे संबंध बदल गए थे। वह आर्थिक रूप से हम पर आश्रित थी, मुझसे सलाह लिए बिना वह कोई काम नहीं करती थी। मैं पूरे परिवार का खर्च चलाती थी - किसी बेटे जैसा ही। इन परिस्थितियों के कारण एक सीमा तक मुझे अपने जीवन की अनियमितताओं के लिए छूट भी मिली। स्‍वतंत्र रूप से सहजीवन का निर्णय अंतत: सिविल मैरिज से तो कम ही अपवित्र था। कभी-कभी मेरी किताबों में जो है - देख कर उसे सदमा लगता, लेकिन उनकी सफलता और ख्‍याति से वह खुश थी। लेकिन मेरी सत्‍ता की स्‍वीकृति ने संबंध और बदतर बना दिए, मैं बहसों से भागती और उसे लगता कि मैं उसके बारे में फैसले दे रही हूँ। "बच्‍ची" पपेट को मेरी अपेक्षा कम सम्‍मान मिला इसलिए उसे मामन की-सी दृढ़ता भी नहीं मिली, मामन के साथ उसके संबंध ज्‍यादा मुक्‍त थे। पपेट ने उससे वे सारे वायदे किए जिनकी कल्‍पना वह कर सकती थी, जिसका उल्‍लेख मैंने "मेमोआयर्स ऑफ ए ड्यूटीफुल डॉटर" में किया है। अपनी ओर से तो, मैंने फूलों का एक गुच्‍छा दे कर, सबसे सरल ढंग से क्षमा माँग ली। मैं यह भी जोड़ना चाहूँगी कि इससे वह उद्वेलित और स्‍तंभित भी हो गई। एक दिन वह मुझसे बोली, "अभिभावक अपने बच्‍चों को समझ नहीं पाते... इसमें दोनों पक्षों का योगदान होता है..." हमने आपसी गलतफहमियों के बारे में बात की, पर बहुत ही सामान्‍य तौर पर, हम मूल प्रश्‍न की ओर लौटे ही नहीं। मैं खटखटा सकती थी मौन का द्वार, कुछ सुबकियाँ, एक और नि:श्‍वास और वायदा, अपने आप से वायदा... कि इस बार हम आपस में बातें करेंगे, आपसी समझ विकसित करेंगे, परंतु पाँच मिनट बीतते न बीतते खेल खत्‍म हो जाता। हमारे बीच बहुत कम बातें ऐसी थीं जिन्‍हें हम बाँट सकें। हम अलग ढंग की किताबें पढ़ते थे। मैं उसे बातें करने के लिए उकसाती, उसे सुनती, विचार प्रकट करती लेकिन बेटी होने के नाते उसके बेकार के मुहावरे मुझे खिझा देते, शायद ऐसी हरकत कोई बाहर का व्‍यक्ति करता तो मेरी प्रतिक्रिया ऐसी नहीं होती और मैं उतनी ही जिद्दी अब भी थी, जितनी बीस वर्ष की उम्र में हुआ करती थी - "मुझे मालूम है तुम्‍हारी नजर में मैं बुद्धिहीन हूँ पर तुम्‍हें यह ओजस्विता मुझी से मिली है। यह विचार मुझे खुश कर देता है।" मुझे तो खुश होना चाहिए था कि मुझमें ये ओजस्विता उसी से आई है, लेकिन टिप्‍पणी की शुरुआत ने ही मुझे बिल्‍कुल बर्फ बना दिया। इस तरह हम दोनों ने एक-दूसरे को पंगु बना दिया। जब उसने कहा, तुमसे डर लगता है मुझे - मेरी आँखों में सीधे देख कर- तो उसका मतलब यही था।

मैंने पपेट की नाइटड्रेस पहनी। मामन के बिस्‍तर के बगलवाले काउच पर ही मैं लेट गई। ज्‍यों-ज्‍यों शाम ढली, कमरे में अँधेरा छा गया, सिर्फ बेडसाइड लैंप की रोशनी, जो मंद थी, पूरे कमरे को मनहूस और मौत-सा रहस्‍यमय बना रही थी। वास्‍तव में, मैं उस रात बेहतर ढंग से सोई, अगली तीन रातों को भी क्‍योंकि घर पर तो हमेशा फोन आने की चिंता, अनेकानेक दुश्चिंताएँ थी, जबकि यहाँ होने पर, सोचने को कुछ था ही नहीं।

मामन को कोई दु:स्‍वप्‍न नहीं आया। पहली रात वह प्‍यास से जगी। दूसरी रात वह रीढ़ की सबसे निचली तिकोनी हड्डी की टीस से परेशान थी। मादामोसाइले ने उसे दाहिनी ओर लिटाया, तो उसकी बाँह दुखने लगी, उसे एक गोल रबर कुशन पर बिठाया गया, ताकि उसे हड्डी में दर्द न हो, लेकिन फिर यह डर था कि कहीं इससे उसके नितम्‍बों की चमड़ी चोटिल न हो जाए, नीली झुरझुरी चमड़ी! शुक्रवार और शनिवार को वह आराम से सोई, बृहस्‍पतिवार से ही उसमें फिर से आत्‍मविश्‍वास आना शुरू हो गया, वो भी "इक्‍वानिल" के कारण, "तुम्‍हें लगता है कि मैं फिर से सामान्‍य जीवन जी पाऊँगी? आज मैं तुम्‍हें देख पा रही हूँ," उसने बड़ी खुशनुमा आवाज में मुझसे कहा - "कल मैं तुमको बिल्‍कुल देख ही नहीं पा रही थी।"

अगले दिन लिमोजेस जीनी आई जिसे मामन आशंका से कम अस्‍वस्‍थ दिखाई दी। उन दोनों ने लगभग घंटे भर गपशप की। शनिवार की सुबह जब वह शंताल के साथ आई तो मामन ने मजाक में कहा - "मैं कल ही थोड़े मरने जा रही हूँ, मैं तो सौ साल तक जिऊँगी।" डॉक्‍टर पी. का उलझन भरी आवाज में कहना था - "इनके बारे में कोई भी भविष्‍यवाणी करना संभव नहीं, पर इनकी जिजीविषा की दाद देनी पड़ेगी।"

मैंने जिजीविषावाली बात मामन को बताई, "हाँ, मुझ में जिजीविषा बहुत है।" उसने इसे प्रसन्‍नतापूर्वक ग्रहण किया, बल्कि उसे आश्‍चर्य था कि उसकी आँतें बेकाम होने पर भी डाक्‍टर जरा भी चौंकते नहीं।

"सब से महत्‍वपूर्ण बात यह है कि वे काम कर रही हैं - जो इनके पूरी तरह बेकाम न होने का प्रमाण है - डॉक्‍टर बहुत खुश हैं।"