कृपया दायें चलिए / अमृतलाल नागर / पृष्ठ 2

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एक घोषणा-पत्र

इस बार भी अगस्त के महीने में जब हमारी किताबों की रायल्टी की राशि चढ़ती महंगाई के मुकाबिले में एकदम औसत ही आई, तो हम अपने पेशे की आय रूपी अकिंचनता से एकदम चिढ़ उठे, हमने यह तय किया कि अब लिखना छोड़कर कोई और धंधा करेंगे। मगर क्या करें, यह समझ में न आता था। कई बिगड़े रईसों के बारे में सुना था कि जिन आदतों से वे बिगड़े थे, उन्हीं में नये लक्ष्मीवाहनों के पट्टों को फंसाकर रईस बन गए थे। हमारी लत तो बुरी ही नहीं निकम्मी भी थी, यानी साहित्यकार बन गए थे। और यह साहित्यिकता आमतौर से रईस छौनों के मनबहलाव की वस्तु ही नहीं होती, इसलिए हमारे वास्ते यह साहित्यिक इल्लत उस रूप में भी बेकार थी। दूसरा विचार आया कि पान और भंग-ठण्डाई की दुकान खोल लें। जगत्-प्रसिद्ध साहित्यिक नहीं बन सके, तो न सही, ‘जगत्-प्रसिद्ध तांबूल विक्रेता’ का साइनबोर्ड टांगने का शानदार मौका मिल जाना भी अपने-आप में कम-महत्त्वपूर्ण उपलब्धि न होगी। ठंडाई के तो हमें ऐसे-ऐसे नुस्खे मालूम हैं कि शहर के सारे ठंडाईवाले हमारे आगे ठंडे हो जाएंगे। सीधे गर्वनर से ही दुकान का उद्धाटन कराया जाएगा; उन्होंने अपने शासनकाल में अब तक हर तरह के उद्घाटन कृपापूर्वक कर डाले हैं, बस पान-ठंडाई की दुकान ही अब तक नहीं खोली, खुशी से चले आएंगे। धूम मच जाएगी। बस यही होगा कि चार हमारा मज़ाक उड़ाएंगे कि नागरजी ने पान-ठंडाई की दुकान खोली है। अरे उड़ाया करें, ‘आहारे-व्यवहारे, लज्जा नकारे।’ जब इतने बड़े महाकवि जयशंकर प्रसाद अपने पैतृक-पेशेवश सुंघनीसाहु कहलाने से न सकुचाए, तो पान-ठंडाई-सम्राट कहलाने से भला हम ही क्यों शर्माएं !


भांग के गहरे नशे में इस स्कीम पर हम जितना ही अधिक गौर करते गए, उतनी ही हमारी आस्था भी बढ़ती गई। हमें यही लगा कि जैसी आस्था हमें इस व्यापार-योजना में मिल रही हैं, वैसी किसी साहित्यिक योजना से अब तक मिली न थी। अस्तित्ववाद, शाश्वतवाद, रस-सिद्धान्त, पूंजीवाद, लोकतंत्रवाद, भारतीय संस्कृतिवाद, आदि हर दृष्टि से हमारी यह दुकान-योजना परम ठोस थी। इसलिए मन पोढ़ा करने हमने अपने दोनों लड़कों को बुलाकर अपने मन की बात कही। छोटा बोला, ‘‘बाबूजी, मैं तो सपने में भी यह कल्पना नहीं कर सकता कि आप दुकानदार बन सकते हैं !’’ हमने आस्थायुक्त स्वर में उत्तर दिया, ‘‘बेटे, यथार्थ सदा कल्पना से अधिक विचित्र रहा है। जहां इच्छा है, वहां गति भी है। जवाहरलाल नेहरू का एक वाक्य है कि सफलता प्राय: उन्हीं को मिलती है, जो साहस के साथ कुछ कर गुजरते हैं; कायरों के पास वह क्वचित् ही जाती है।’’ बड़े बेटे ने कहा, ‘‘आप जैसे जाने-माने लेखक के लिए यह शोभन नहीं लगता, बाबूजी। यदि अपनी नहीं, तो कम से कम हम लोगों की बदनामी का ही खयाल कीजिए।’’ हमने तुर्की-बतुर्की जवाब दिया, ‘‘तुम लोगों का यह आबरूदारी का हौवा निहायत पेटी बुर्जूआ किस्म का है। हम घर आती हुई छमाछम लक्ष्मी को देख रहे हैं। तुम लोग क्यों नहीं देखते कि दुकान की सफलता के लिए हमारी साहित्यिक गुड़विल, पान और भांग-रसिया होने के संबंध में हमारी अनोखी किंवदंतियों-भरी ख्याति कितनी लाभकारी सिद्ध होगी। चार-पांच हजार रूपये महीने से कम आमदानी न होगी। तुम लोग चाहे कुछ भी कहो, हम दुकान जरूर खोलेंगे। हज़ार-दो हजार की लागत में लाखों का नफ़ा। हम यह अवश्य करेंगे।’’ लड़के बेचारे हमारे आगे भला क्या बोलते। उठकर चले गए और जाकर अपनी मां के आगे शंख फूंका।

तोप के गोले की तरह लाल-लाल दनदनाती हुई वह हमारे कमरे में आई और बोलीं, ‘‘ये दुकान खोलने की बात आखिर तुम्हें क्यों सूझी ?’’

‘‘पैसा कमाने के लिए।’’

‘‘पैसा तो खाने-भर को भगवान दे ही रहा है।’’ ‘‘हमें ऐश करने के लिए पैसा चाहिए।’’

‘‘इस उमर में ! अब भला क्या ऐश करोगे ! जो करना था, कर चुके।’’

‘‘ऐश का अर्थ सिर्फ औरत और शराब ही नहीं होता, देवी जी। हम कार, बंगला, रेफ्रिजिरेटर, कूलर और डनलोपिलो के गद्दे चाहते हैं। प्राइवेट सेक्रेटरी हो, स्टेनोग्राफर हो, हांजी-हांजी करने वाले दस नौकर हाथ बांधे हरदम खड़े रहें, तब साहित्यिक की वकत होती है

आजकल। साले पेटभरू, चप्पल चटकाऊ साहित्यिक का भला मूल्य ही क्या रह गया है, भले ही वह तीस नहीं, एक सौ तीस मारखां ही क्यों न हो ! हम पूछते हैं, क्या तुम्हें चाह नहीं होती इस वैभव की ?

’’पत्नी शांत हो गई, गंभीर स्वर में बोलीं, ‘‘जब मुझे चाह थी, तब तो यह कहते थे कि साहित्य का वैभव साहित्यिक होता है.....’’

‘‘वो हमारी भूल थी। सोशलिस्ट विचारों ने हमारा दिमाग खराब कर दिया था।’’

‘‘पर मैं तो समझती हूं कि तुम्हारी वह दिमाग-खराबी ही बहुत अच्छी थी।’’

‘‘तुम कुछ भी समझती रहो, पर हम तो अब पैसे वाले बनकर ही रहेंगे।’’

‘‘बनो, जो चाहो सो बनो, पर कान खोलकर सुन लो, मैं इस काम के लिए एक कानी कौड़ी भी न दूंगी इस रायल्टी की रकम में से।’’ पत्नी अब तेज हो चली थीं।

हमने भी अकड़कर कहा, ‘‘न दो, हम एक नया उपन्यास लिखकर एडवांस रायल्टी ले लेंगे।’’

‘‘जो चाहो सो करो। जब अपनी बनी तकदीर बिगाड़ने पर तुल ही गए हो, तो कोई क्या कर सकता है ! हि:, रूपये की दो अठन्नियां भुनाना तो आता नहीं, बिज़नेस करेंगे ये !’’ पत्नी तैश में आकर बड़बड़ाती हुई बाहर चली गई और बरामदे में खड़ी होकर गरजने लगीं,

‘‘ये बिज़नेस करेंगे ! अरे, चार बरस पहले नरेन्द्र जी का लड़का परितोष आया था। कितना छोटा था तब वह, फिर भी खेल ही खेल में इन्होंने जब उससे कहा कि हम-तुम साझे में पान की दुकान खोल लें, तो वह बोला कि नहीं चाचाजी, आपके साथ साझा करने में घाटा हो जाएगा। सारे पान और भांग तो ये और इनके यार-दोस्त ही गटक जाएंगे। न ये अपनी आदतें छोड़ सकते हैं और न मुहब्बत। बिज़नेस करेंगे मेरा कपाल !’’

कविवर नरेन्द्र जी के बेटे वाली बात ध्यान में आ जाने से गुस्से का चढ़ाव न चाहते हुए भी थमने लगा। यह झूठ नहीं कि ठंडाई और पान के शौक में ऐसे बहुत-से परिचित मित्र हमारी दुकान पर रोज़ आ जाएंगे, जिनसे पैसा वसूल करना हमारे लिए टेढ़ी खीर हो जाएगा। सोचा कि घरैतिन ठीक ही कहती है, इस धंधे में घाटा होने की संभावना ही अधिक है। फिर धीरे-धीरे मन यहां तक मान गया कि हम न तो धंधा करने के योग्य हैं और न कोई नौकरी ही, चाहे वह बढ़िया वाली ही क्यों न हो। अपनी अयोग्यता और अभागेपन पर झुंझलाहट होने लगी।

दूसरे दिन इतवार था। इतवार औरों के लिए छुट्टी और हमारे लिए सिर दर्द का दिन होता है। अभी घड़ी में पूरे-पूरे सात भी न बजे थे कि बेटी ने आकर मोहल्ले के कई व्यक्तियों के पधारने की सूचना दी। हमने सोचा कि शायद मध्यवधि चुनाव के सिलसिले में किसी उम्मीदवार के नाम का प्रस्ताव लेकर आए होंगे। इस विचार ने मन को स्फूर्ति दी। सोचा, इस बार हम क्यों न खड़े हो जाएं। पान की दुकान न सही, नेतागिरी सही, इन दोनों ही पेशों की आमदानी सदा इनकमटैक्स विभाग वालों की पकड़ से बाहर ही रहती है। इस विचार से एक बार फिर आस्था रूपी जीवनमूल्य की उपलब्धि हुई। तब तक हाथ में अपना हुक्का उठाए हुए बड़े बाबू, लल्लों बाबू, पत्तो बाबू, सत्तो बाबू, सुनत्तो बाबू वगैरह-वगैरह ढब-बेढब नामों के चार-पांच शिष्ट जन पधारे। बड़े बाबू आते ही बोले,

‘‘पंडित जी, गली वाली नाली देखी आज आपने ? गंगा-गोमतियां फ्लडियाया करती थीं, अब साली नाली में फ्लड आता है। ये ज़माना है, ये गवरमेंट है साली!’’‘‘

आज पूरी गोबरमिंट है साहब, राज की गोबरनर का है। हम तो कहते हैं कि इस बार मध्यावधि चुनाव में इसे पूरी तरह बदल डालिए’’

अपनी भावी वोटर भगवान को जोश दिलाने की कामना से हमने ज़रा नेता मार्का नाटकीय अंदाज साधा।