गद्य एवं काव्यपरक भाव कथाएँ / बलराम अग्रवाल

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खलील जिब्रान मुख्यत: भाववादी चिंतक, कवि और कथाकार हैं। अगर गहराई से देखा जाए तो उनकी रचनाओं का केन्द्रीय प्रभाव पारम्परिक दृष्टान्तपरक, उपदेशपरक और अध्यात्मपरक कथा-रचनाओं से काफी अलग महसूस होता है। ऐसा लगता है कि उनकी रचनाओं के रूप में जो ‘गीता’ हम पढ़ रहे हैं, उसमें व्याप्त विचार और संदेश हमारे दैनिक जीवन को छू रहे हैं। वे हमें चमत्कृत या भ्रमित नहीं करते, बल्कि प्रभावित करते हैं, अपने पक्ष में हमारा समर्थन प्राप्त करते हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाएँ सर्वग्राह्य एवं सार्वकालिक हैं। उनके संग्रहों ‘द मैडमैन’ (प्रथम प्रकाशन 1918, अंग्रेजी में), ‘द फोररनर’ (प्रथम प्रकाशन 1920, अंग्रेजी में), ‘सैंड एण्ड फोम’ (प्रथम प्रकाशन 1926, अंग्रेजी में), ‘द वाण्डरर’ (प्रथम प्रकाशन मृत्योपरांत 1932, अंग्रेजी में) तथा ‘टीअर्स एण्ड लाफ्टर’ (प्रथम प्रकाशन : 1946, अंग्रेजी में; अरबी भाषा से अंग्रेजी में यह अनुवाद सम्भवत: ए॰ आर॰ फेरिस (A.R.Ferris) ने किया था। जिब्रान की कु्छ काव्यपरक और गद्यपरक रचनाओं का एक संकलन अरबी भाषा में ‘अ टीअर एंड अ स्माइल’ नाम से सन 1914 में प्रकाशित हुआ था। इसका एक अनुवाद सन 1950 में एच.एम. नहमद (H.M.Nahmad) ने किया था जो न्यूयॉर्क से प्रकाशित हुआ था तथा 1950 में ही एक अनुवाद अल्फ्रेड ए॰ नोफ (Alfred A. Knopf) ने भी किया था) में समुचित संख्या में कथापरक लघु-रचनाएँ मिलती हैं।

‘पागल’ खलील जिब्रान की अति उच्च-स्तरीय लघुकथा है। इस कथा की शुरुआत जिब्रान ने यों की है — ‘आप मुझसे पूछते हैं कि मैं पागल कैसे हुआ? हुआ यों कि … एक सुबह मैं गहरी नींद से जाग उठा। मैंने देखा कि मेरे सभी मुखौटे चोरी हो गए हैं… ’ इसमें रेखांकित करने वाली बात यह है कि मुखौटों के चोरी हो जाने का पता आदमी को वस्तुत: तभी लग पाता है जब वो गहरी नींद से जाग जाने की स्थिति में पहुँच गया हो। लेकिन यह उसको ज्ञान प्राप्त हो जाने की स्थिति नहीं है। नींद से जाग जाने भर से मुखौटों के प्रति उसका मोह समाप्त नहीं हो जाता। सांसारिकता से छुटकारा पा जाना इतना आसान नहीं है। कुछ लोग ऐसे आदमी को देखकर उसका उपहास उड़ाते हैं तो कुछ मारे डर के घर में घुस जाते हैं। उसे लगता है कि मुखौटों के साथ वह सुरक्षित भी था और सम्मानित भी। अत: वह उन्हें पुन: प्राप्त करने के लिए दौड़ लगाता है। लेकिन इसी दौरान ‘जब मैं बाजार में पहुँचा तो अपने घर की छत पर खड़ा एक नौजवान चिल्लाया — वह पागल है! उसकी झलक पाने के लिए मैंने ऊपर की ओर देखा। सूर्य की किरणों ने उस दिन पहली बार मुखौटाविहीन मेरे नंगे चेहरे को चूमा। मेरी आत्मा सूरज के प्रति प्रेम से दमक उठी। मुखौटों का खयाल मेरे जेहन से जाता रहा; और मैं विक्षिप्त-सा चिल्लाया — ‘सुखी रहो, सुखी रहो मेरे मुखौटे चुराने वालो।’ … इस तरह मैं पागल बन गया।’ तात्पर्य यह कि सांसारिकों की नजर में वह आदमी, जो मुखौटों से विहीन है, सूर्य के प्रेम से जिसकी आत्मा दमक रही है — पागल है। खलील जिब्रान कहते हैं कि ‘अपने इस पागलपन में ही मैंने आजादी और सुरक्षा पाई हैं।’

खलील जिब्रान की लघुकथा ‘ईश्वर’ भी ‘पागल’ जैसी ऊँचाई वाली रचना है। ईश्वर को द्वैत-भाव नापसंद है। वह ‘मैं’ और ‘आप’ के भाव को नहीं जानता। बहुत-से लोग स्वयं को आस्तिक घोषित करते हुए जीवन बिता देते हैं जबकि वास्तव में वे नहीं जानते कि ‘आस्तिक’ का वास्तविक अर्थ क्या है? सच्चाई यह है कि इसके वास्तविक अर्थ से अनजान लोगों की बात ईश्वर तक नहीं पहुँच पाती। ईश्वर उनके समीप से कभी तूफान की तरह गुजर जाता है तो कभी पंख फड़फड़ाते पक्षियों की तरह और कभी वह पहाड़ों पर छाई धुंध की तरह पास से निकल जाता है। हृदय से जब तक द्वैत समाप्त नहीं होगा और ‘अस्ति एक:’ अर्थात एकत्व की भावना का उदय नहीं होगा, तब तक ईश्वर का सान्निध्य, उसका प्रेम नसीब नहीं होगा। अद्वैत की स्थिति में पहुँचने पर होता यह है कि ‘जब मैं पहाड़ से नीचे उतरकर घाटियों और मैदानों में आया, ईश्वर को वहाँ मौजूद पाया।’ असलियत यह है कि ‘तू’ व ‘तेरा’ और ‘मैं’ व ‘मेरा’ के भाव को मिटा चुका व्यक्ति किसी पहाड़ (यहाँ यह अहं का प्रतीक है) पर टिक ही नहीं सकता, वह उतरकर नीचे आएगा ही; और वहाँ हर जगह उसे ईश्वर मौजूद मिलेगा।

उनकी एक अत्यंत प्रसिद्ध लघुकथा है — ‘पवित्र नगर’। वहाँ का हर निवासी ईश्वरीय शिलालेख का अनुसरण कर रहा है। लेकिन शिलालेखों या कहें कि पवित्र पुस्तकों का जड़ अनुसरण मात्र मनुष्य को ईश्वर का सच्चा अनुयायी बना सकता है? इस सवाल का जवाब देते हुए अकबर इलाहाबादी कहते हैं —

दिल मेरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला।

   बुत के बन्दे तो मिले अल्लाह का बन्दा न मिला॥

निपट मूर्ख हो या बुद्धिमान, हर मनुष्य दो अवस्थाओं से हर पल गुजरता है — सुप्त और जाग्रत। उसके कुछ विचार उसकी सुप्तावस्था को प्रकट करते हैं तो कुछ जाग्रतावस्था को। ‘सोना-जागना’ के माध्यम से खलील जिब्रान ने मनुष्य की इन दोनों अवस्थाओं का चित्रण माँ और बेटी, दो महिलाओं के माध्यम से किया है। भौतिक भोग-विलास की क्रियाओं में रुकावट से उत्पन्न रोष — इन रुकावटों के कारण-रूप अपने निकट से निकट और प्रिय से प्रिय व्यक्ति को भी रास्ते से हटा देने का मन बना लेता है। अपनी ही बेटी के बारे में माँ सोचती है कि — ‘काश! मैंने तुझे जन्मते ही मार दिया होता।’ और बेटी यह कि — ‘काश! तू मर गई होती।’ इस तरह के विध्वंसकारी सोच को खलील जिब्रान ने सुप्तावस्था की सोच माना है। जागने पर माँ बेटी पर प्यार उँड़ेलती है और बेटी माँ को आदर देती है यानी कि प्यार और आदर जाग्रतावस्था में ही सम्भव हैं।

बाज़ और नन्हीं चिड़िया अबाबील के माध्यम से जिब्रान ने यह स्थापित करने का यत्न किया है कि सभी मनुष्य एक ही कुल के हैं। कोई भी स्वयं को राजा और दूसरे को प्रजा (यानी स्वयं द्वारा शासित और स्वयं से कमजोर) कहने का अधिकारी नहीं है। कोई ताकतवर अगर किसी कमजोर को हेय दृष्टि से देखता है तो कमज़ोर द्वारा बुद्धिमत्ता और साहस के बल पर अपनी तुलना में कहीं अधिक ताकतवर पर भी पार पाया जा सकता है, उसके अहं को चूर किया जा सकता है। इस सत्य का चित्रण ‘ बेचारा बाज़’ में बखूबी हुआ है।

अपने ग्रंथ ‘नाट्यदर्पणम्’ में लेखकद्वय रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने व्यवस्था दी है कि —

कवित्वबन्ध्या: क्लिश्यन्ते सुखाकर्तुं जगन्ति ये।

नेत्रे निमील्य विद्वांसस्तेऽधिरोहन्ति पर्वतम्॥1/12॥

अर्थात् कविताशक्ति से रहित जो विद्वान अपनी कोरी विद्या के आधार पर जगत को प्रसन्न करने का कष्ट उठाते हैं, वे मानो आँखें मींचकर पर्वत पर चढ़ने का यत्न करते हैं अर्थात उनका यह प्रयास अविवेकपूर्ण है। खलील जिब्रान ने अपनी लघुकथा ‘विद्वान और कवि’ में जैसे इसी सूत्र को काव्य-कथात्मक प्रस्तुति दी है। अकबर इलाहाबादी ने इसी बात को अपने एक शेर में यों कहा है —

गुल के ख्व़ाहाँ तो नज़र आए बहुत इत्रफ़रोश।

तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला॥

(ख्व़ाहाँ=चाहने वाले ; इत्रफ़रोश=इत्र बेचने वाले ; तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा=फूलों पर न्योछावर होने वाली बुलबुल के नग्मों को चाहने वाला)

लघुकथा ‘कागज़ का बयान’ अहं में डूबे ऐसे ‘व्हाइट-ड्रेस्ड’ सम्भ्रान्तों की कथा है जो अपने आसपास के परिवेश को निहायत तुच्छ और स्वयं को श्रेष्ठ मानते हैं। ऐसे व्यक्तियों का हश्र आखिरकार क्या होता है? खलील जिब्रान बेहद तीखा व्यंग्य प्रस्तुत करते हैं — ‘स्याही से भरी दवात ने कागज की बात सुनी। मन-ही-मन वह अपने कालेपन पर हँसी। उसके बाद उसने कागज के नज़दीक जाने की कभी जरूरत नहीं समझी। बहुरंगी पेंसिलों ने भी कागज की बात सुनी। वे भी कभी उसके नज़दीक नहीं गईं।’ परिणाम क्या हुआ? खलील जिब्रान चोट करते हैं — ‘बर्फ-सा सफेद कागज़ ज़िन्दगीभर बेदाग़ और पावन ही बना रहा… शुद्ध, पवित्र… और कोरा!’

जीवन का सच्चा सुख बच्चे जैसा निर्मल और निश्छल बने रहने में है। पैगम्बर शरीअ को बच्चा पार्क में मिलता है। वह अपनी आया को झाँसा देकर मुक्त भ्रमण का आनन्द लेने को निकल पड़ा है, लेकिन वह जानता है कि आया से वह अधिक समय तक अपने-आप को छिपाकर नहीं रख सकता है। यहाँ ध्यान देने कि बात यह है कि आया द्वारा खोज लिए जाने की चेतना सिर्फ उन्हीं लोगों में सम्भव है जिन्होंने बच्चे-जैसा मन पाया है और जो ‘जानबूझकर गुम होने का सुख’ लूटना जानते हैं। अपने अन्तर में छिपे बच्चे से बात करने की कला को जो लोग नहीं जानते, ‘सिद्ध और बच्चा’ के अन्तर्भाव तक पहुँचना उनके बूते से बाहर की बात है।

यह शायद अनायास नहीं है कि अनेक लोग ‘सूली चढ़ने पर’ में व्यक्त सवालों के लगभग ज्यों के त्यों भोक्ता हैं। ‘तुम अपने किस पाप का प्रायश्चित करना चाहते हो?’, ‘तुमने किसलिए अपनी बलि देने का निश्चय किया?’, ‘देखो, वह कैसा मुस्करा रहा है! सूली पर चढ़ने के कष्ट को क्या कोई इतनी आसानी से भूल सकता है?’जैसे कितने ही सवालों से उन्हें लगभग रोजाना ही टकराना पड़ता है। लेकिन क्या यह भी अनायास ही है कि इन सवालों के उनकी ओर से दिए जा सकने वाले हर जवाब को खलील जिब्रान ने दे डाला है! क्या इसका यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि खलील जिब्रान ऐसे जड़ प्रश्नकर्त्ताओं द्वारा हमारी तुलना में कहीं अधिक आहत किए जा चुके थे। ‘समंदर अपना-अपना’ में कूप-मंडूकता को समुद्र तक विस्तृत करके बताया गया है। गरज यह कि बुद्धि अगर संकुचित है तो समुद्र भी एक कुआँ ही है। ‘वज्रपात’ भी संकुचित मानसिकता को दर्शाने वाली ही रचना है। वस्तुत: तो हर पूजा-स्थल और तथाकथित धर्माचार्य, दोनों पर ही वज्रपात होना तय है, क्योंकि ये दोनों ही उस परम सत्ता के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते जिस पर विश्वास दिलाने के लिए ये बने होते हैं। मनुष्य के जीवन में परिवार के प्रति दायित्व-निर्वाह की भावना उसे शक्ति और सामर्थ्य दोनों प्रदान करती है। दायित्व-निर्वाह जैसी भावना से हीन व्यक्ति तैरने के तमाम कौशल से परिचित होने के बावजूद भी डूबने की स्थिति में पहुँच जाता है। दायित्व-निर्वाह की सकारात्मक भावना को खलील जिब्रान ने ‘सोने की बेल्ट’ शीर्षक लघुकथा में नाटकीय प्रभाव के योग से चित्रित किया है।

‘निर्द्वंद्व मूषक’ तथा ‘बेचारा बाज़’ सूझ और साहस की अत्यन्त रोचक लघुकथाएँ हैं। लघुकथा ‘दर्प-राग’ वचस्य अन्यत् मनस्य अन्यत् जैसे मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत की अभिव्यक्ति का अनुपम उदाहरण है। ‘छोटा तिनका, बड़ा तिनका’ तथा ‘छोटी चींटी, बड़ी चींटी’ लघुकथाएँ लगभग समान जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करती कथाएँ हैं। ये दो मनोवैज्ञानिक तथ्यों को उजागर करती हैं। एक तो यह कि सृष्टि का कोई भी जीव अपने परिवेश से अतिरिक्त विषय की कल्पना नहीं कर सकता यानी तिनका सिर्फ तिनके की कल्पना कर सकता है और चींटी सिर्फ चींटी की; और दूसरा यह कि धरती पर केवल मनुष्य है जो अगर चाहे तो अपने अज्ञान और अहंकार को जानने-पहचानने की सामर्थ्य रखता है, अन्यथा तुच्छ से तुच्छ प्राणी भी अज्ञान और अहंकार के दुष्चक्र में फँसा है।

खास अन्दाज़ में झुककर चलते ऐसे अनेक लोग अक्सर ही संपर्क में आते हैं जिनको देखते ही लगता है कि — यह आदमी ‘विद्वत्ता’ का बोझ अपने ‘सिर और कन्धों पर’ लादे घूम रहा है। दूसरों की ओर सामान्यत: ये लोग कनखियों से ही देख पाते हैं क्योंकि गरदन पूरी तरह दाएँ-बाएँ घूम नहीं पाती है। औसत आदमी को अपनी विद्वत्ता के आतंक से ये खदेड़े रखते हैं और उससे आत्मिक आनन्द प्राप्त करते हैं। ये बीमार मानसिकता के लोग हैं जो सोचने लगते हैं कि ‘डराकर भगाने का मज़ा ही कुछ-और है… ।’ ऐसे विद्वानों के लिए जिब्रान ने ‘काग-भगोड़ा’ विशेषण का प्रयोग किया है।

लघुकथा ‘तानाशाह की बेटी’ के सम्बन्ध में 11वीं शताब्दी के जैन महाकवि रामचन्द्र-गुणचन्द्र विरचित ‘जिन स्तोत्र’ का यह श्लोक ध्यातव्य है —

स्वतंत्रो देव! भूयासं सारमेयोऽपि वर्त्मनि।

मा स्म भूवं परायत्तस्त्रिलोकस्यापि नायक:॥

अर्थात हे देव! मैं स्वतंत्र रहूँ, भले ही गली का कुत्ता बनकर रहूँ। पराधीन होकर मैं तीनों लोकों का राजा भी नहीं बनना चाहता हूँ।

खलील जिब्रान की प्रत्येक लघुकथा में किसी-न-किसी दार्शनिक सूत्र की प्रस्तुति देखने को मिलती है। उनकी विशेषता यह भी है कि एक ही सूत्र अथवा सिद्धांत पर अनेक लघुकथाएँ गढ़कर उन्होंने उस सूत्र को संप्रेषीय बनाने का भरसक यत्न किया है। उनकी लघुकथाओं में प्रयुक्त सभी सूत्र जीवन की सात्विक गहराई से नि:सृत हैं। आधे-अधूरे ज्ञान को ही विद्वत्ता की पराकाष्ठा मान लेने वाले लोगों पर खलील जिब्रान ने अनेक लघुकथाएँ लिखी हैं। उनकी लघुकथा ‘चतुर कुत्ता’ का दीर्घकाय बिल्ला और कुत्ता, दोनों ही ऐसी मानसिकता के सजीव उदाहरण हैं। सामाजिकों में मुख्यत: दो प्रकार की प्रवृत्तियों के लोग पाए जाते हैं — एक वे, जिनके मन में भौतिक वस्तुओं के प्रति मोह है और दूसरे वे, जो उनके त्याग में विश्वास रखते हैं। मोह को दर्शन में शैतान का प्रमुख अस्त्र माना गया है। इसके द्वारा वह प्राणियों के मन में लोभ तथा मस्तिष्क में क्रोध का संचार करता है। लघुकथा ‘कथा कटोरे की’ में इन दोनों ही प्रवृत्तियों के दर्शन होते हैं।

अन्धी आस्था पाप भी है और अपराध भी; लेकिन पूर्वग्रहप्रेरित और कारणविहीन अनास्था पाप व अपराध दोनों है। सच्चा ‘महात्मा’ वह नहीं जो अपने आचरण पर पर्दा डाले रखकर लोगों को भ्रमित करता है; बल्कि सच्चा महात्मा वह है जो पश्चात्ताप की ज्वाला में जल रहे अपराध-वृत्ति वाले लोगों को जीने का सुरमय रास्ता दिखाता है, उन्हें गाना सिखा देता है; ऐसा गाना जिसे सुनकर स्वयं उससे त्रसित घाटियाँ खुशी से भर उठें। हर व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति का काम आसान और कम दायित्व वाला लगता है। फरिश्ते भी इस सामान्य मानवीय कमजोरी से बच नहीं पाए हैं। अपनी लघुकथा ‘ मुश्किल काम’ में खलील जिब्रान इस सत्य के साथ-साथ एक और सत्य पर से पर्दा उठाते हैं, वह यह कि तुलनात्मक दृष्टि से देवदूत भी किसी पापी पर निगाह रखने की अपेक्षा किसी संत पर निगाह रखने के काम को अधिक कठिन मानते हैं।

भारत को ‘ओसन ऑव टेल्स’ (Ocean of Tales) कहा जाता है। जिब्रान की लघुकथा ‘अंधेर नगरी’ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा सन 1881में लिखित नाटक ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ की ज्यों की त्यों संक्षिप्त प्रस्तुति प्रतीत होती है। इस जैसी दृष्टांत-कथाओं की भारत में वैसे भी कोई कमी नहीं है। विश्व कथा साहित्य में भी ये अनगिनत मिल जाएँगी। गाइ द मोपासां के पास भी हैं और अन्य अनेकों के पास भी।

‘बाज़ार’ व्यावहारिक स्तर की उत्कृष्ट कथा है। कथा के प्रारम्भ में लगता है कि ‘माले-मुफ़्त दिले-बेरहम’ वाली कहावत को लोग झुठला चुके हैं, बहुत स्वाभिमानी हो गए हैं। यह भी लगता है कि बाग का मालिक अपनी अमीरी का रुतबा लोगों पर जमाने के लिए बाग से उतरे अनारों को चाँदी के थाल में सजाकर घर के बाहर रखता है। वह अनारों को मुफ़्त में उठा ले जाने का विज्ञापन तो लिखकर रख देता है, लेकिन उन्हें ससम्मान बाँटने के लिए स्वयं वहाँ उपस्थित नहीं रहता। खलील जिब्रान का उद्देश्य परन्तु यहीं तक सीमित नहीं है। वे बाग-मालिक की नहीं, बल्कि सामान्य-जन की सोच और व्यवहार के इस बिन्दु की ओर इंगित करना चाहते हैं कि लोगों को दरअसल अच्छी और कीमती चीजों की पहचान नहीं है। पहचान न होने के अनेक कारण होते हैं। एक तो यह कि सम्बन्धित विषय या वस्तु में व्यक्ति की गति ही न हो, जैसा कि ‘पारखी’ में उन्होंने दिखाया है। दूसरा यह कि उनकी गति वस्तुत: कहीं हो ही नहीं, वे केवल विज्ञापन की भाषा ही समझते हों। ‘बाज़ार’ का स्थापत्य यही है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज का बहु-संख्यक वर्ग इस दूसरी श्रेणी का ही है। सामान्य-जन को बाज़ार अपनी ओर कैसे उन्मुख करता है, वह कौन-सी भाषा पहचानता है और उसे कैसे साधा जाता है, इस यथार्थ का उद्घाटन खलील जिब्रान ने अपनी इस लघुकथा में बेहद खूबसूरती से किया है।

ध्वनि-प्रदूषण आज एक दुरूह सामाजिक समस्या है। विश्व के अधिकांश राष्ट्रों की सरकारें इससे मुक्ति के उपायों के रूप में अनेक कानून अपनी-अपनी संसदों से पारित करा चुकी हैं। लेकिन हम हैं कि सुधार का नाम ही नहीं ले रहे। जिम्मेदार नागरिक होने का तमगा बरकरार रखने को शान्त वातावरण में भी शोर मचाए जा रहे हैं कि ध्वनि-प्रदूषण न फैलाएँ — ‘ताकि शान्ति बनी रहे’ परन्तु दिल है कि शोर किए बिना मानता ही नहीं। नींद है कि शान्त वातावरण में आने का नाम ही नहीं लेती। शोर उतपन्न करने वाले अवयव चिन्तित हैं कि आदमी उनके कारण चैन से सो नहीं पा रहा है, लेकिन आदमी परेशान है कि सब ओर शान्ति क्यों है? ‘मेढक’ एक बहुआयामी कथा है। इसमें मेढकी के मुँह से कहलवाए गए सांकेतिक संवादों द्वारा खलील जिब्रान ने ध्वनि-प्रदूषण के विरुद्ध हो रहे उपायों के खलनायकों पर करारा व्यंग्य किया है।

खलील का मानना है कि : ‘आदमी का आकलन उसके जन्मने या मरने से नहीं होता; न ही इससे कि अमुक स्थान पर वह लम्बे समय तक रहा है। आदमी अपने आने को जन्म के समय रोने और जाने को मृत्यु से घबराने के द्वारा दर्ज करता है।’ मनुष्य के कर्म ही उसकी सुकीर्ति या अपकीर्ति को तय करते हैं; और उन्हीं के साथ वह न सिर्फ जीवित रहते बल्कि जीवन के बाद भी लोगों के बीच अपनी उपस्थिति बनाए रहता है। ‘ लेडी रूथ’ के माध्यम से खलील जिब्रान ने इस तथ्य का कि कीर्ति या अपकीर्ति किस तरह सामाजिकों के बीच विद्यमान रहती है, बहुत सधा हुआ चित्र प्रस्तुत किया है।

ख्वाहिशें इतनी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले — ‘दाने अनार के’ में अनार के दानों की परस्पर बातचीत के माध्यम से जिब्रान ने बहुसंख्यक-सामाजिकों के बीच चलती रहने वाली निरुद्देश्य चिल्ल-पों का चित्रण किया है। उनका मानना है कि मनुष्य का संख्या में अधिक, रूप में सुर्ख, शरीरिक-दृष्टि से मजबूत, लेकिन कमजोर इरादों वाला होने की तुलना में संख्या में कम, दिखने में पीला और कमजोर लेकिन इरादों की दृष्टि से आशावादी होना बेहतर है।

शिशु-हृदय कितना निर्मल, निष्कपट और स्पष्टभाषी होता है — इस तथ्य को ‘इस दुनिया में’ लघुकथा के माध्यम से जाना जा सकता है। कितने कष्ट की बात है कि शैशव छूट जाने के बाद वही शिशु अपनी सारी निर्मलता, निष्कपटता और स्पष्टवादिता को भूल चुका होता है।

पर उपदेश कुशल बहुतेरे। ‘लेन-देन’ में निष्णात लोग दूसरों की हालत सुधारने के अनगिनत फारमूले तो बता सकते हैं, सुईभर भी उनकी मदद नहीं कर सकते। अगर गम्भीरता से देखा जाए तो ‘अंततोगत्वा’ भी लेन-देन में निष्णात लोगों में व्याप्त लालच और विवेकहीनता की स्थिति को ही दर्शाती है। जमाखोर और सूदखोर को वस्तुत: अपने द्वारा संरक्षित वस्तु के प्रति इतना अधिक मोह हो जाता है कि राज्य का गवर्नर, बिशप, यहाँ तक कि राजा भी उसे इस योग्य नहीं लगता कि उनका स्वागत वह अपने भण्डार में जमा शराब से कर सके। अतिथि की तुलना में उसे भण्डार में जमा शराब अधिक मूल्यवान महसूस होती है। लेकिन उसकी मृत्यु के उपरान्त वही अमूल्य शराब उन लोगों में बाँट दी जाती है, शराब की गुणवत्ता जिनके लिए कोई अर्थ नहीं रखती थी।

दुनिया में सबसे ज्यादा दयनीय आदमी वह है अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता और सबसे ज्यादा सम्माननीय वह है जो अपनी क्षमताओं से, अपनी सीमाओं से परिचित है। खलील जिब्रान की ‘अहं विखंडन’ में इस तथ्य को बहुत खूबसूरती से दर्शाया गया है।

‘दार्शनिक और मोची’ में बताया गया है कि जो व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के जूते में अपना पैर डालने को अपमानजनक स्थिति मानता है अर्थात दूसरे की परम्परा से, कार्य एवं चिन्तन शैली से अपना साम्य बैठाने में असहजता महसूस करता है, वह सच्चा दार्शनिक नहीं हो सकता।

लघुकथा ‘साम्राज्य’ ईशान नामक नगर है। ईशान को भारतीय वास्तुशास्त्र में शक्ति और उत्थान का कोण माना जाता है। धार्मिक दृष्टि से भी इसका अलग महत्व है। पंचमुखी भगवान शिव के एक शीश का नाम ईशान है। जिब्रान की इस कथा में वह प्रतीक रूप में आया हो सकता है।