गाँधी जी खड़े बाज़ार में / अमरेन्द्र कुमार / पृष्ठ 1
- अपनी बात
मेरी कहानियों का दूसरा संग्रह आपके हाथों में है । एक कहानीकार का असली कथ्य उसकी कहानियां ही है फिर भी अपनी बात के माध्यम से कुछ साझा करना अच्छा लगता है ।
कहानी लिखना क्रिकेट में गेन्दबाजी की तरह लगता है । गेन्दबाज अगर तेज हुआ तो जिस तरह वह गेन्द फेंकने से पहले दौड़ लगाता है उसी तरह एक कहानीकार कहानी लिखने से पूर्व कहानी की पूरी योजना बनाता है। इसके पहले कहानियों के प्लॉट जहां कहीं और जब कभी उसे मिलते हैं उन्हें वह लिख कर रख लेता है। कहानी के प्लॉट अक्सर अक्स्मात ही आते हैं । कहीं कोई घटी घटना, प्रेरक प्रसंग, दृश्य अथवा मन के करीब की कोई विषय-वस्तु प्लॉट और बाद की कहानी के केन्द्र में होते हैं । तेज गेंदबाज जितनी लम्बी दौड़ लगाता है और संवेग प्राप्त करता है उतनी ही दक्षता के साथ वह गेंद को फेंक पाता है । इसी तरह एक अच्छा कहानीकार भी जितनी कहानियों को पढता और मनन करता है सम्भवत: वह भी उतनी अच्छी कहानी लिख पाता है । यह तो बात हुई कहानी लिखने से पहले की तैयारी की । गेंदबाज चाहे जितनी लम्बी दौड़ लगाये लेकिन अगर गेंद फेंकते हुए जरा सी चूक हो जाये तो गेंद "फुल टॉस" अथवा "शार्ट पिच" हो जाती है और बल्लेबाज द्वारा पिट जाती है । वैसे ही अगर कहानी लिखते हुए संतुलन बनाये रखने में थोड़ी चूक हो जाये तो कहानी के बिगड़ जाने की प्रायिकता बढ जाती है । इसी तरह एक दुर्बल कहानी पाठक की नापसन्द और आलोचक की आलोचना का शिकार हो सकती है जैसे बल्लेबाज कमजोर गेंद को दूर उछाल फेंकता है । एक दूसरे किस्म के गेंदबाज जिसे ’स्पिनर’ कहा जाता है वह दौड़ता तो दो कदम है लेकिन अपनी गेंद में ’स्पिन’ यानि ’पेंच’ डालकर वह उसे प्रभावशाली बनाता है । कहानी में भी कुछ सार्थक ’पेंच’ कहानी को प्रभावशाली बनाते हैं । कुछ गेंदबाज तेज गेंद में ’स्पिन’ दे सकते हैं वैसे ही कुछ कहानीकार भी कहानियों में संवेग और पेंच दोनों का बराबर प्रयोग करते हैं । इस अर्थ में एक अच्छी कहानी में कला और कथ्य के बीच एक संतुलन होता है ।
कहानी लिखना कई बार किसी अंजाने पहाड़ी रास्ते से गुजरने जैसा है । शुरु तो आप करते हैं लेकिन उसके रास्ते पहले से तय होते हैं । कहां पर मोड़ आयेगा, कहां पर चढ़ाई और कहां ढलान है इन पर कदाचित ही हमारा कोई अधिकार होता है । इतना जरूर है कि बहुत सी अनिश्चतत्ताओं के मध्य किसी जंगली फूल, कोई रंग-बिरंगी चिड़िया अथवा किसी पहाड़ी सोते अथवा झरने की तरह कुछ आश्चर्ययुक्त और सुखद चीज घट जाती है जिसकी कल्पना कभी किसी कहानी के प्लाट में नहीं की गयी होती । कहानी लिखना पहाड़ी यात्राओं की तरह ही श्रम-साध्य कार्य भी है । लेकिन जैसा कि हम किसी पहाड़ की चोटी पर पहुंचकर शांत, तल्लीन और अंतर्मुखी हो जाते हैं कुछ-कुछ वैसी ही अनुभूति कहानी लिखने के उपरांत भी होती है।
कहानी लिखना एक तीर्थयात्रा भी है । तीर्थयात्रा में कोई अपना नहीं तो कोई पराया भी नहीं होता । यात्रा जैसे-जैसे आगे बढती है लोग मिलते और बिछड़ते जाते हैं। लेकिन वहां मिलने में न तो सुख होता है न ही बिछड़ने का कोई दु:ख । वैसे ही कहानियों की यात्रा में पात्र, परिवेश और समाज, यहां तक कि लेखक, पाठक और आलोचक सभी एक ही तीर्थ के सहयात्री की तरह हैं । पड़ाव सबके अलग-अलग हैं, कई बार रास्ते भी थोड़े अलग हो जाते हैं लेकिन लक्ष्य सबका एक ही होता है । कोई पहले शुरु करता है कोई देर से । कहानी को तो लक्ष्य तक एक कहानीकार पहुंचा देता है लेकिन क्या कहानीकार स्वयं अपने लक्ष्य तक पहुंच पाता है ? संभवत: उसकी कहानी ही बता सके कि वह अपने लक्ष्य से कितना पास अथवा दूर है ।
यह संग्रह अब जब तैयार है तो इसके पीछे कितने लोगों की प्रेरणायें और सहयोग हैं वह बताये बिना अपनी बात पूरी नहीं होगी । दिल्ली में डा. कमल किशोर गोयंका जी से भेंट के दौरान उन्होंने जो सुझाव दिये उनमें एक यह भी था कि पुस्तक नियमित रूप से प्रकाशित करवाते रहें । बाद में उन्होंने एक फोन संवाद में मेधा बुक्स, नई दिल्ली के श्री अजय कुमार जी का सम्पर्क दिया । पहली बार श्री अजय कुमार जी से जब फोन पर बात हुई तो उन्होंने दिल्ली में मिलने की बात कही । राउरकेला प्रवास के दौरान मैंने अपनी पाण्डुलिपि की प्रति अपने चाचा जी श्री कौशलेन्द्र कुमार सिन्हा को दी थी । चर्चा चाहे क्रिकेट मैच की हो अथवा भारत के समाज, राजनीति, बाजार अथवा साहित्य के बदलते परिदृश्य की सबमें वे सहर्ष और सहोत्साह शामिल रहते । बाद में पाण्डुलिपि की फोटो कापी कराने से लेकर डाक से मेधा बुक्स को भेजने का काम उनके कर्मचारी, खिलाड़ी, जो घर के सदस्य जैसा है, ने पूरा किया । अमेरिका लौटने से पहले समयाभाव में मेधा बुक्स के श्री अजय कुमार जी से मिलना नहीं हो पाया लेकिन इतना तो अवश्य है कि जितनी रूचि, आत्मीयता और परस्पर सम्मान की भावना उन्होंने दिखायी वह आज के समय में दुर्लभ होती जा रही है । मैं आभारी हूं श्री अजय कुमार जी और उनके अनुज श्री दीपक मोंगा जी का जिनके माध्यम से इस संग्रह का प्रकाशन सम्भव हो रहा है।
अंत में, यह पुस्तक आप तक पहुंच नहीं पाती अगर जो मेरी प्रिय पत्नी हर्षा प्रिया और मेरा नन्हा पुत्र, अच्युतम, जो अब बीस माह को हो चुका है ने यह सब करने के लिये समय नहीं दिया होता । जितना समय मैंने इस पुस्तक के लिये दिया वह सब उनके हिस्से से ही तो आया । रसोई में काम करते हुए, घर को सम्भालते हुए और बच्चे को सुलाते हुए हर्षा मुझे देख जाती कि अगर मैं कहानी टाईप कर रहा हूं तो वह दबे पांव लौट जाती । और तो और नन्हा अच्युत भी लैपटॉप के पीछे से झांक जाता कि मैं कहानी ही टाईप कर रहा हूं कि बस इन्टरनेट भ्रमण में व्यस्त हूं !!
यह पुस्तक अब अपयुक्त हाथों में पहुंच रही है यही एक लेखक का पारिश्रमिक भी है और पुरस्कार भी ।