गाँधी जी खड़े बाज़ार में / अमरेन्द्र कुमार / पृष्ठ 3

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संपूर्णता और संपन्नता का संगम कहानी संग्रह "गांधीजी खड़े बाज़ार में"


पिछले दिनों सुश्री देवी नागरानी अमेरिका प्रवास पर थीं. उन्होंने कहानी संग्रह "गांधीजी खड़े बाज़ार में" की समीक्षा लिखी

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संपूर्णता और संपन्नता का संगम कहानी संग्रह "गांधीजी खड़े बाज़ार में"

लेखन कला की मांग है सम्पूर्णता और सम्पन्नता. लिखना कोई शब्दों की इमारत गढ़ना नहीं है, मानव मन के भीतर की उथल-पुथल, अहसासों का मंथन, जब लगन एवं कथ्य शिल्प से तराश कर एक मुकम्मल स्वरूप पाता है तब वह एक बिम्ब को जन्म देता है और लिखना भी तब ही साकार हो पाता है. यहां मुझे श्री हिमांशु जोशी जी का कथन याद आता है - "लिखना स्वयं एक तपस्या है, आधे मन से लिखा साहित्य अधूरा ही रह जाता है, व्यक्त हुए बिना....!"

लेखन की पहली कसौटी यही है कि वह पाठक को अपनी रौ में बहा ले जाया. लेखक का रचनात्मक कौशल मानवीय संबंधों को उजागर करता हुआ कहानी का रूप धारण करता है, जहां पात्र और परिवेश की कलात्मक अभिव्यक्ति से कहानियां परिपक्वता पाती है. ऐसी ही कलात्मक सम्पूर्णता श्री अमरेन्द्र कुमार की कहानियों में पायी जाती है, जिनका पहला कहानी संग्रह " चूड़ीवाला और अन्य कहानियां " अपनी रचनात्मक ऊर्जा से अपनी पहचान पा चुका है और उनका यह दूसरा कहानी-संग्रह "गांधी जी खड़े बाज़ार में" अब हमारे हाथों में है. उनके अपने शब्दों में, " एक कहानीकार का असली कथ्य उसकी कहानियां ही है.." तो आईये उनकी कहानियों की यात्रा में पात्र, परिवेश और समाज, यहाँ तक की लेखक के साथ हम भी इस तीर्थ के सहयात्री बनें. कहानी लिखना भी तो एक तीर्थयात्रा है.

समाज में हर रोज सामना करते नौजवानों की समस्या है, नौकरी की तलाश! आये दिन की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्यायों में इज़ाफ़ा करती यह समस्या "पहला सबक" बनकर सामने आई है. सच ही तो है - पढ़ा-लिखकर, सर्टिफिकेट की तहों को संभालते-संभालते आज का नौजवार हताश-सा हो जाता है, जब राज्य सरकार की ओर से कुछ हजार रिक्तियों के लिए दस लाख से ऊपर आवेदन आ जाते हैं. नौकरी के लिए आवेदन पत्र भेजने से लेकर, प्रवेश-पत्र पाने के आशावादी सफ़र तय करने के पश्चात, पुरसकूं जायज़ बनता है बुलावा पत्र, जिसके आते ही एक नए सफ़र का, यानी अपने निश्चित स्थान पर पहुँचने का विवरण. उफ़ !! विपत्तियों की चिंता भी कहाँ उसे सुविधाजनक बन पाती है.

चुनौतीपूर्ण यात्रा साधनों का इस्तेमाल करते हुए, हालातों की कशमकश से गुजरने के पश्चात भी देखिये किस सुन्दरता से सकारात्मक दार्शनिक पहलू सामने उभरा है - थकावट एक छतरी की तरह मन और शरीर पर तनी होने के बावजूद भी लेखक अपनी सोच की कड़ी से कड़ी जोड़ते हुए अपने हौसलों के साथ लेकर हर कदम पुख्तगी से ज़िंदगी की पगडंडियों पर धरते हुए लिखता है - "कुछ समय हमारे जीवन में ऐसा आता है जब इच्छा और अनिच्छा का अस्तित्त्व मिट जाता है, सिर्फ काल और उसकी गति रहते हैं जो निरंतर चलायमान होते हैं. " सुखद समाचार यह रहा कि कहानी का किरदार अपनी मंजिल तक आन पहुँचा, एक नए सफ़र की शुरुआत के लिए ! अमरेन्द्र जी की भाषा, शैली में एक ख़ासा आकर्षण है जो पढ़ते रहने पर कभी बोरियत को पास फटकने नहीं देता, पढ़ते हुए आभास होता है जैसे हम पाठक भी उस सफ़र के हम सफ़र हैं. ऐसी ही एक कहानी "तलाश" में भी परिवेश की साधारण समस्याओं और हासिल न होने वाले समाधानों की ओर इशारा है. दस रिक्तियों के लिए दो लाख आवेदन पत्र पाए जाते हैं और इसी दौरान सामाजिक व्यक्ति अपनी अपनी शिक्षा की मरीचिकाओं के बाहर निकलकर जीवन की सच्चाईयों से आँख मिलाने के लिए कतारों में खड़े पाए जाते हैं.

दरअसल साहित्य एक ऐसा लोकतंत्र है जहां हर व्यक्ति अपनी क़लम के सहारे अपनी बात कह और लिख सकता है. यह आज़ादी उसका अधिकार है पर नियमों की परिधि में रहकर. इसी क्रांतिमय साहित्य के माध्यम से समाज की आसपास की समस्याओं को कथा या कहानी की विषय वस्तु बनाने से समाज के बदलाव की अपेक्षा की जा सकती है. एक तरह से साहित्य और समाज एक दूसरे के सहयोगी हैं. "एक दिन सुबह" कहानी भी इन्ही सब उलझी हुई कड़ियों की पेचकश है जिसमें रिटायर्ड जीवन में किरदार की अपनी दिन भर की दिन-चर्या और सुबह टहलने से लेकर आस-पास के कुदरती सौंदर्य का वर्णन है. फिर पार्क में जाने अनजाने लोगों से रोज़ मिलते हुए एक नया रिश्ता कायम हो जाता है और वहां कभी किसी बात पर, कभी किसी बात पर चर्चा होने की संभावना बनी रहती है. यहां समाज के मूल्यों के "तब और आज" के तुलनात्मक लक्ष्य ज़ाहिर किये गए हैं, जहां भाषा के शिल्प सौंदर्य के अनेक अंश अमरेन्द्र जी की लेखनी से अभिव्यक्त हुए हैं. बदलाव को लेकर वे लिखते हैं - "कुछ परिवर्तन एक खतरनाक षडयंत्र की तरह आता है या लाया जाता है. यह ऐसे धीमे ज़हर की तरह है कि हम मृत्यु की तरफ तो बढ़ते हैं लेकिन हम उसे विकास का नाम देते चलते हैं...!" विकास के पुराने और नए मूल्यों में कोइ संधि नज़र नहीं आती. पहले समाज के लोगों के भले के लिए प्रयत्न हुआ करते थे, अब हर कार्य को करने के पीछे एक बौद्धिक आधार होता है. अब वे प्रयास सियासत की चौखट पर व्यापार और सौदेबाज़ी की दुकानें सी लगने लगे हैं. इस कहानी में बड़े ही सलीकेदार शैली और शब्दावली से मानवता के सिद्धांतों को सोच, कथनी और करनी को हित और अहित के पलड़ों पर तोला गया है.

ऐसे परिवेश में तब्दीलियाँ आये दिन, आये पल आँखों के सामने रक्स करती हैं. उसी धरातल पर खड़ा होकर रचनात्मक ऊर्जा से लेखक, ऐसी ही किसी सुलगती चिंगारी के तहत अपने ही अंदर का कोई हिस्सा अभिव्यक्ति के माध्यम से व्यक्त करके अपनी पहचान पा लेता है, कभी शब्दों का जाल बुनकर अपने मन की पीड़ा को व्यक्त करता है, तो कभी भीतर की भावनात्मक अहसासों को एक आकार देकर चिंतन की आधार शिला पर कहानी का भव्य भवन बनाता है.

एक अच्छी कहानी में कला और कथ्य के बीच का एक संतुलन का बरक़रार होना, अमरेन्द्र जी के तेजस्वी बयानों में पारदर्शी रूप से पाया जाता है. पठन के दौरान कहानी के तत्त्व, उनके पात्र, परिस्थितियाँ अपने अन्दर के संसार से तालमेल खाती हुई लगती है जैसे सभी एक ही डगर की यात्रा के सहयात्री हैं. कहानियों की श्रृंखला में एक कड़ी और "कुछ सोचा है" में बचपन से वृद्धावस्था तक विकसित और पुष्ट होती हुई प्रवृति के असर पर रोशनी डालते हुए कथाकार ने उस पीढ़ी और उस पीढ़ी की सोच को सलीके से ज़ाहिर करते हुए लिखा है - "जीवन के किसी मोड़ पर कई बार अपने भी इतने दूर निकल जाते हैं कि उनको पहचान पाना मुश्किल लगने लगता है. उनके ख्याल, उनकी सोच, और वे खुद आपकी पहुँच के बाहर हो जाते हैं, कुछ ख़ास अजनबियों की तरह - एक मुलायम अजनबीपन का अहसास लिए हुए." इस कथन में शब्द सरंचना का नमूना बेमिसाल है - "वो आपको देखेंगे और आप उन्हें भी, लेकिन संपर्क का तार टूटा ही रहता है. दोष उनका नहीं. यह गुज़ारे पल का अनचाहा हिसाब है.." रिश्तों के बीच की नाज़ुक कड़ियों को अपनी गहरी सोच के मंथन के उपरांत सुन्दर सलीके से शब्दों में बुनकर प्रस्तुत करने की यह सलाहियत अमरेंद्र जी की माहिरता में शामिल है.

कहानी "एक अरसे के बाद" पढ़ते हुए आभास हुआ कि जब मन में परिवार, परिवेश और आस-पास की स्थितियां चिंतन-मनन का कारण बन जाती हैं तब ही जाकर किसी रचना का निर्माण होता है, और अगर रचना सिलसिलेवार रूप से इंसान के साथ, उसके जीवन के साथ जुडी हुई होती है तो वह कहानी या उपन्यास का स्वरूप ले लेती है. दो पीढ़ियों के बीच का अंतर, रिश्तों की नयी परिभाषा बनकर सामने आया है. बच्चों के लिए माँ-बाप धूप में साया, बरसात में छतरी, सर्दी में कम्बल, अकेले में अपना और क्लेश में संबल बन जाते हैं. पर जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तब बात वैसी नहीं रहती. उनकी मुट्ठी बड़ी हो जाती है और आशाएं-आकांक्षाएं उससे भी बड़ी..! पाने और खोने का सिलसिला नए क्षितिज की तलाश में रहता है. हर दिन ज़िंदगी नया मोड़ लेती है और नये अनुभव के दरवाज़े खोलती है. हर नई राह पर हर इन्सान का संघर्ष अपना अपना होता है, अपने हिस्से की जंग उसे लड़नी पड़ती है चाहे उसे हार मिले या जीत. यह नियति है. वैसे भी मन की यात्रा लम्बी और द्रुत होती है, कई दिशाओं वाली. रेगिस्तान में भटकता मुसाफिर, सहरा की प्यास लिए अपने प्रयासों से जब कभी एक शबनमी ठंडक पाता है तब भी उसे लगता है कि यह वह नमी नहीं जो वह तलाशता फिरता है. परिवार को सरल सुंदर ढंग से परिभाषित करते हुए लेखक कहानी 'आने वाले कल के लिए' में लिखा है--"परिवार दो व्यक्तियों के एक-दूसरे के प्रति विश्वास की बुनियाद पर टिका होता है. यह बुनियाद आपसी मतभेद और अहम् से हिलती है और समय रहते अगर नहीं बचाया गया तो परिवार बिखर जाता है." आगे इसी सिलसिले में उनका कथन--"नाव जब बिखरती है तो इस बात का कितना अर्थ रह जाता है की किसी किनारे के हिस्से में क्या आया." सच ही तो है! क्या पता नियति ने अपने अंक में कितने तूफ़ान छुपा रखे हैं और देखते ही देखते वक़्त इंसान का कितना बड़ा हिस्सा खा जाता है. ऐसा ही तो हुआ है मशहूर फिल्म अभिनेता देवकुमार के साथ, जिसकी बेटी पारुल और पत्नी सुनयना की बेमौजूदगी ने उसके जीवन में वो खालीपन भर दिया जो ज़माने भर की दौलत और रौनकें न भर पायीं. परिवार के लोग आमने -सामने थे पर रिश्ते जैसी कोई बात नहीं रही. बहुत देर से उन्हें अहसास हुआ की आकाश अगर बुलंदी है तो धरती उसका आधार ! और फिर मिलने और बिछड़ने को भी तो कारण चाहिए. ऐसी रोचक कहानी जो पाठक को अपने बहाव में बहा ले जाने में सक्षम है के लिए अमरेन्द्र जी को बहुत बहुत बधाई. हर विषय पर कलम चलने की माहिरता अमरेन्द्र जी की कहानियों की विषय-वस्तु में पाई जाती है. अब उनकी कलम की रवानी हमें बनारस की गंगा के किनारे ले जाती है जहाँ 'मोती बनाम मुक्तेश्वर' नमक कहानी का किरदार मोती, गिरि महाराज के आश्रम में रहता था, एक योगी जो पिछले जन्म की एक भूल की एवाज़ कुत्ते की योनि में जी रहा था. जीवन अच्छाई-बुराई का संगम है, जिसे समाज में रहते हुए लेखक की पैनी नज़र देखती है, बुराई के पीछे अच्छाई, अँधेरे के पीछे रोश्नी. जो कुछ भी वह महसूस करता है, लेखनी को माध्यम बनाकर पाठकों तक वही बात पहुंचता है. कहानी तभी प्रभावशाली होती है जब वह हमारी सोच को अपने तत्वों के माध्यम से बांधे रखती है. पात्र, उनकी शैली, उनके संवाद सभी तत्व कहानी को सशक्तता प्रदान करते हैं. अमरेन्द्र जी ने प्रवेश के पन्नों में भी लिखा है कि अच्छी कहानी कला और कथ्य के बीच एक संतुलन होना बहुत ज़रूरी है. पात्रों की निजी समस्या को, उलझनों, आस्थाओं और विश्वासों का बिम्ब शब्द शिल्प द्वारा ज़ाहिर हो उसके लिए ज़रूरी है कि कहानी की बुनियाद कसी हुई हो ताकि पढ़ते हुए किसी रिक्तता का आभास न हो. अंत की ओर आते कहानी 'गांधीजी खड़े बाज़ार में' के कुछ अंश रोचक संवादों से मनोरंजन की दिशा दर्शा रहे हैं--ऐसे जैसे गांधीजी मनोरंजन की व्यवस्था का सामान बन कर रह गए हैं!! जिस जनता ने उन्हें 'बापू' और 'राष्ट्रपिता' का दर्जा दिया उसका आज यह हश्र है (इसे क्या कहें उपयोग, सदुपयोग, या दुरुपयोग!) कि सामाजिक दबाव के तहत किराये के गांधीजी पूरा समय झुककर खड़े रहे, कमर तक सीधी नहीं कर पाए, क्योंकि उनका झुक कर खड़े रहने का सौदा हुआ था और कम्पनी की इमेज बनाये रखने के लिए उन्हें झुककर ही खड़े रहकर, मुस्कराकर सभी का स्वागत करना पड़ा. अमरेन्द्र की कहानियाँ प्रशांत नदी की समतल भूमि में बहती धाराओं की तरह हैं, जो कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह जाती हैं, मर्म को छूती हुई हमें प्रभावित ही नहीं, अभिभूत भी करती हैं. कारण है उनकी शब्दावली, शैली, सहजता, सरलता और निश्चलता. यह संग्रह अतीत की सम्रतियों और वर्तमान की अनुभूतियों की सुंदर पारदर्शी अभिव्यक्ति है. इस कहानी कलश के लिए उन्हें हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !!

देवी नागरानी न्यू जर्सी, ४ अगस्त २०११, dnangrani@gmail.com http://charagedil.wordpress.com/ http://sindhacademy.wordpress.com/

कहानी संग्रह-- गाँधीजी खड़े बाज़ार में, क़लमकार-अमरेंद्र कुमार, पन्ने-१२८, मूल्य : २०० रूपये, प्रकाशकः मेघा बुक्स, एक्स ११, नवीन शहादरा, दिल्ली 1100३२


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