चंद फ़िरंगियों की दास्तानें / बावरा बटोही / सुशोभित

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चंद फ़िरंगियों की दास्तानें
सुशोभित


जोनाथन गिल हैरिस की अनूठी किताब है, ‘द फ़र्स्ट फ़िरंगीज़’।

लेकिन पहले तो यही जान लें कि ‘फ़िरंगी’ यानी क्या।

आमतौर पर माना जाता है कि ‘फ़िरंगी’ यानी ‘बर्तानवी’ या ‘अंग्रेज़’। यह धारणा पूरी तरह से ग़लत भी नहीं है, क्योंकि ‘फ़िरंगी’ शब्द की उत्पत्ति का एक आधार एशियाइयों की भूरी त्वचा की तुलना में यूरोपियनों का फीका रंग भी बताया जाता है, जिन्हें कि अरबी में ‘फ़िरंग’ कहा जाता था। उस ज़माने में गोरे-चिट्टे भारतीयों के नाम भी ‘फ़िरंगीमल’ या ‘फ़िरंगीलाल’ रखे जाते थे।

बर्तानवियों के मुक़ामों के आधार पर ‘फ़िरंगी चॉल’, ‘फ़िरंगी छावनी’ जैसे नाम भी चलन में आए। लेकिन सच्चाई तो यही है कि ‘फ़िरंगी’ लफ़्ज़ केवल अंग्रेज़ों तक ही सीमित नहीं है। यह मूलत: प्रवासियों के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द है, जिसमें कोई भी वो शख़्स शुमार हो सकता है, जो हिंदोस्तां के बाहर से यहाँ पर किसी भी मक़सद से आया हो। जोनाथन गिल हैरिस की यह किताब उन ‘फ़िरंगि‍यों’ पर अपना ध्यान केंद्रित करती है, जो पहले-पहल हिंदोस्तां में दाख़िल हुए।

हैरिस की रिसर्च सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में हिंदोस्तान में आए ऐसे ‘फ़िरंगियों’ पर एकाग्र है, जिनके पास कुछ बेजोड़ कहानियाँ थीं और जिनकी ख़ुद की कहानियाँ भी कोई कम दिलचस्प नहीं थीं। सनद रहे कि यह हिंदुस्तानी अतीत का वो ‘ट्वाइलाइट ज़ोन’ है, जहाँ पर आकर इतिहास ठिठक-सा जाता है, यानी मुग़ल और सल्तनत काल के क़िस्से और ब्योरे तो आपको ख़ूब मिलेंगे, और बाद उसके, ‘प्लासी से पार्टिशन तक’ के इतिहास का भी ‘डॉक्यूमेंटेशन’ बड़ी मुस्तैदी से ही हुआ है,

लेकिन सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में, जब सल्तनत की चूलें हिल रही थीं और यूरोपियन औपनिवेशिकता के पैर अभी जमे नहीं थे, उस अनमने संझलोके दौर के ब्योरों और अफ़सानों को लेकर माज़ी चुप्पी-सी साध जाता है।

यह जोनाथन गिल हैरिस की शोधवृत्ति का ही परिणाम है कि उन्होंने उस वक़्त से कुछ ऐसे चेहरों को हमारे सामने पेश किया, जिनका हमें आज तसव्वुर भी नहीं हो सकता था। ‘द फ़र्स्ट फ़िरंगीज़’- यानी वे लोग, जो फ़ारस, मध्येशि‍या, मंगोलिया, मध्यपूर्व, पुर्तगाल, यूनान, फ्रांस आदि इलाक़ों से यहाँ आए, और यहाँ आकर हिंदोस्तां के ‘कल्चरल मिक्स’ का हिस्सा बन गए। कुछ आम लोगों की भीड़ में खो गए, कुछ दरबारियों में शुमार हो गए, कुछ यायावर कहलाए। कौन थे वो लोग और क्या थी उनकी कहानियाँ?

मसलन, होडल के डकैत, बम्बई के हकीम, दीव के नौसेनापति और खड़की के वक़ील-उल-सल्तनत। ये तमाम लोग ‘फ़िरंगी’ थे। फ़तेहपुर सीकरी का नक़्क़ाश तो ‘मांडु फ़िरंगी’ ही कहलाता था। इसी में जोड़ लीजिए आगरा के झवेरी, लाहौर की बेगम, अजमेर के फ़कीर, जोगबाई के जागीरदार, हैदराबाद के क़लंदर और मद्रास के सिद्ध वैद्य की दास्तानें, और आप मान सकते हैं कि आपके हाथ एक ख़ज़ाना लग गया है, जो महज़ चंद दिलअफ़शां अफ़साने ही बयाँ नहीं करता, बल्कि इतिहास की एक करवट के भीतर झांककर उस वक़्त के सांस्कृतिक ब्योरों और लोकवृत्त की भी जानकारी देता है। ‘इडियोसिनक्रेसी’ यानी व्यक्ति-वैचित्र्य तो ख़ैर इसमें निहायत इफ़रात में है ही।

अर्जेंतीना का सबसे बड़ा क़िस्सागो ख़ोर्खे लुई बोर्ख़ेस हरदम ऐसी ही कहानियों की तलाश में रहता था। बंबई के अटॉर्नी मीर बहादुर अली पर उसने ऐसी ही एक कहानी लिखी भी है- ‘द अप्रोच टु अल-मुतसीम’। उम्बेर्तो इको, इतालो कल्वीनो, ये तमाम ‘पोस्ट-मॉडर्निस्ट’ ऐसी दास्तानों के दीवाने थे, क्योंकि उनके आख्यान का लैंडस्केप आज के यक़सां या ‘होमोजेनियस’ सांस्कृतिक भूगोल से इतना मुख़्तलिफ़ था कि उन्होंने इसे अपने आपमें एक मूल्य स्वीकार किया था।

फिर, क़िस्सागोई के अठपहलू तो उसमें ख़ैर थे ही।

इतिहास युद्धों, साम्राज्यों और शासकों की गाथा बांचता है।

लेकिन कवि, कथाकार और वृत्तांतकार हाशिए के उन लोगों की दिलचस्प और मानवीय कहानियाँ तलाश करते हैं, जिन्हें इतिहास ने भुला दिया था।

भारत की यात्रा करने वाले पहले फ़िरंगियों की खोज-पड़ताल करने वाली गिल हैरिस की यह किताब वास्तव में एक इतिहासकार के छद्मवेश में एक कवि, कथाकार वृत्तांतकार का काम है।

और हो भी क्यों ना? गिल हैरिस भी तो उन्हीं फ़िरंगी भारतयात्रियों की कड़ी में अगला नाम है!