फ़ैनी का रोज़नामचा / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
भारत आए यूरोपीय यात्रियों और अध्येताओं की फ़ेहरिस्त कभी ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती। लेकिन सबसे दिलचस्प हैं ब्रिटिश राज के दौरान कुछ शौक़िया लेखकों द्वारा दर्ज़ किए गए ब्योरे। जॉन लैंग की ‘वांडरिंग्स इन इंडिया एंड अदर स्केचेज़ ऑफ़ लाइफ़ इन हिंदोस्तां’ इसमें विशेष उल्लेखनीय है। जोनाथन गिल हैरिस की ‘द फ़र्स्ट फ़िरंगीज़’ और फ़र्डिनांड माउंट की ‘द टियर्स ऑफ़ द राजाज़’ भी इसी में शुमार है। लेकिन इन सबसे ऊपर हैं, फ़ैनी पार्क्स के जर्नल्स, जिन्हें विलियम डेलरिम्पल ने सम्पादित करके ‘बेगम्स, ठग्स एंड इंग्लिशमेन’ शीर्षक से प्रकाशित करवाया है। 1822 से 1846 तक भारत में रहीं फ़ैनी की उत्सुक किंतु निरपेक्ष दृष्टि जहाँ ‘कलोनियल गेज़’ से मुक्त है, वहीं एक सच्ची ‘जर्नलिस्ट’ की तरह ब्योरों पर उनकी नज़र भी पैनी है। अलबत्ता इलाहाबाद को वे ‘Prag’ यानी ‘प्रयाग’, कानपुर को ‘Cawnpore’, अवध को ‘Oude’ लिखती हैं। उस ज़माने के जर्नल्स में हिंदुस्तान के विभिन्न इलाक़ों को इसी वैचित्र्य के साथ पुकारा जाता था।
फ़ैनी की किताब में तत्कालीन भारत के साधुओं, ठगों, नटों, रेसीडेंसियों, शादियों-बारातों, दिवाली-मुहर्रमों, हैजा, अकाल, ज़नाना, खंडहरों, रियासतों आदि का बहुत सुदीर्घ और विवरणों से भरा लेखाजोखा है। किताब में फ़ैनी का क्रमिक भारतीयकरण भी ध्यातव्य है, जिसे सलमान रूश्दी ने अपने सुपरिचित चुटीले अंदाज़ में ‘चटनीफ़िकेशन’ कहा है। किताब ख़त्म होते-होते तो हम फ़ैनी को भारत से सम्मोहित होते देख सकते हैं। इतिहास, नॉस्टेल्जिया और कलोनियलिज़्म में दिलचस्पी रखने वालों के लिए फ़ैनी एक ज़रूरी नाम है। आलम यह है कि जब शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी भारत-आख्यान को अपने सुदीर्घ उपन्यास कई चांद हैं सरे आसमां का विषय बनाया, तो उन्होंने उसमें फ़ैनी पार्क्स को किसी से कम महत्ता नहीं दी है। फ़ैनी की गणना अर्ली-विक्टोरियन भारतयात्रियों में की जाती है। उनका वास्तविक नाम फ्रांसेस सुसान्ना आर्चर था और वे 1794 में वेल्स में जन्मी थीं। फ़ैनी की ज़िंदगी में 25 मार्च 1822 की तारीख़ का बड़ा महत्व है। इसी साल चार्ल्स क्रॉफ़र्ड पार्क्स से उनका ब्याह हुआ। चार्ल्स लेखक थे। लेकिन इससे ज़रूरी तफ़सील यह कि वे ईस्ट इंडिया कम्पनी में काम करते थे।
ऐसे में ज़ाहिर है, फ़ैनी भी अपने पार्क्स साहब की मेमसाब के रूप में हिंदुस्तान चली आईं। साढ़े पांच माह की समुद्र यात्रा के बाद वे नवम्बर, 1822 में भारत पहुंची थीं। उनका बेड़ा कलकत्ते पहुंचा। चौरंगी में उन्होंने भाड़े पर कमरा लिया। पार्क्स महाशय सी कस्टम्स कलेक्टर के नायब बन गए। फ़ैनी मेमसाब के ऐशोआराम की दास्तान शुरू हुई। उनके घर में नौकर-चाकरों की फ़ौज लगी रहती। वे अरबी घोड़े की सवारी करतीं। लेकिन अध्ययन की प्रवृत्ति होने के कारण वे भारतीय संस्कृति का भी अध्ययन करने लगीं। उन्होंने हिंदी और संस्कृत की पढ़ाई शुरू कर दी। मुग़ल साम्राज्य तब देश में अंतिम सांसें गिन रहा था और फ़ैनी की दिलचस्पी थी कि ज़नानों और हरमों को जाकर देखें। वे यह जानना चाहती थीं कि बेगमों का दर्जा रखने वाली हसीनाएं कैसे चहारदीवारी में क़ैद रहकर जीती हैं।
वर्ष 1830 में फ़ैनी दम्पती कानपुर चले गए। 1832 में इलाहाबाद तबादला हो गया। और यहाँ से फ़ैनी की भारत-यात्राओं का दौर आरम्भ हुआ। फ़ैनी के कोई संतान नहीं थी, दूसरी तरफ़ घर में चाकरों का हुजूम था। वर्ष 1831 में फ़ैनी ने ख़ुद दर्ज़ किया है कि तब उनके घर में 57 नौकर-चाकर थे और उन्हें 14 और की ज़रूरत थी। यानी फ़ैनी के पास करने को कोई काम नहीं था, सिवाय इसके कि हिंदुस्तान की यात्राएं करें और इस अनूठे मुल्क के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानकारियाँ जुटाने की कोशिश करें, और यक़ीनन वे इसमें क़ामयाब हुईं। फ़ैनी ने वर्ष 1838 में अपनी डायरी में लिखा है कि अगर आपके पास एक अच्छा तम्बू और एक उम्दा अरबी घोड़ा है, तो आप हिंदुस्तान में हमेशा ख़ुश रह सकते हैं। फ़ैनी भारतयात्रा को लेकर आविष्ट हो चुकी थीं। अपने ख़ाविंद से भी उनकी बनती नहीं थी और फ़ैनी की यात्राओं का एक कारण पति को यह दिखलाने की ज़िद भी थी कि वह एक स्वतंत्र महिला हैं।
1838 में जब फ़ैनी हिमालय की तराइयों की ख़ाक़ छान रही थीं, तभी उन्हें संदेशा मिला कि उनके पिता की मृत्यु हो गई है। वे तुरंत इंग्लैंड रवाना हुईं। वे सत्रह वर्षों बाद अपने मुल्क लौटी थीं, लेकिन इस बार उन्हें इंग्लैंड ज़रा भी आकर्षित नहीं कर पाया। एक बार वे एक सार्वजनिक कार्यक्रम में अकेले ही जा पहुंचीं। श्रेष्ठि वर्ग ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए कहा कि भला कोई सभ्य महिला इस तरह से अकेले घूमती है। फ़ैनी ने तपाक से जवाब दिया कि उन्हें मालूम नहीं कि उन्होंने पूरे हिंदुस्तान की ख़ाक़ अकेले ही छानी है, तो यह जलसा क्या चीज़ है। साफ़ है कि भारत-यात्राओं ने फ़ैनी को आत्मविश्वास से भर दिया था। एक अर्थ में भारत-यात्राएं फ़ैनी के लिए स्वयम् की तलाश का भी एक उपक्रम सिद्ध हुई थीं। वर्ष 1845 में फ़ैनी फिर भारत लौटीं, लेकिन इस बार वे यहाँ केवल आठ माह ही रह पाईं। 1846 में उन्हें अपने मुल्क लौटकर जाना पड़ा। फ़ैनी की अपनी जीवन-यात्रा वर्ष 1875 में समाप्त हुई।
फ़ैनी का रोज़नामचा भारतीय इतिहास के विद्यार्थियों के लिए बेशक़ीमती हैं। उन्नीसवीं सदी के ब्रिटिश राज के ज़माने वाले हिंदुस्तान का ऐसा चटकीला और ब्योरेवार चित्र कम ही जगहों पर मिलता है। साथ ही, उनकी किताब भारत में एक फ़िरंगी स्त्री के आत्मोद्घाटन का भी दस्तावेज़ है।