सफ़ेद गिरजे के क़तबे / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
इन्दौर में एक व्हाइट चर्च है।
साल 1857 में जब कम्पनी ने क्राउन को हिंदुस्तान का दारोमदार सौंप दिया था, तब यह बनकर तैयार हुआ।
सेंट्रल इंडिया का सबसे पुराना प्रोटेस्टेंट गिरजा। उस वक़्त जो फ़िरंगी साहब-बहादुर मध्यभारत में रहते थे, इतवार के दिन उनके बूटों की गूंज से आबाद रहने वाला अहाता।
मैं सर्दियों के बाद वहां गया था।
तब दरख़्तों पर पत्ते नहीं थे और उनसे होकर गुज़रने वाली धूप धरती पर इतनी छांह भी नहीं गिराती थी कि चींटियां उसमें सुस्ता सकें।
कांसे की घंटियां क़बूतर-सी दुबकी थीं, परिसर में प्रार्थनाओं के पत्थर थे, जो उच्चरित की गई होंगी पिछली सदी में कभी। चर्च के अहाते में कुछ टूटे बुत थे।
एक बुत का सिर नहीं था। वो किसी देवदूत की तरह अपने हाथों को सीने पर बांधे था, मानो दिल के उक़ाब को रूह के पिंजरे में रोके हुए, मरने को तैयार नहीं।
मैं देर तक उस बुत को देखता रहा और एक सीमा के बाद मुझको लगने लगा कि सलीब पर होने का एक तरीक़ा यह भी है कि अपने सीने पर हाथों को बांधकर बैठा जाए, जबकि आपकी गर्दन पर कोई वज़न शेष नहीं रह गया हो।
कुछ क़ब्रों के क़तबे भी यहां थे।
प्रोटेस्टेंट सीमेट्री यानी ख्रिस्तानियों का क़ब्रस्तान तो जूनी इन्दौर में है, मुझे नहीं मालूम चंद क़तबे यहां कैसे चले आए, क्या कहानी रही होगी।
मैं एक क़तबा पढ़ता हूं- टु द मेमरी ऑफ़ जॉर्ज एडवर्ड, द इनफ़ैंट सन ऑफ़ हर्बर्त एंड हेलेन ओवेन, हू डाइड एट इंदौर, ऑक्टोबर 22, 1865, एज्ड 27 डेज़।
दूसरा क़तबा- इन लविंग मेमरी ऑफ़ वॉल्टर एडवर्ड जॉन्सटन, द बिलवेड सन ऑफ़ एलिज़ाबेथ। नाऊ ही बिलॉन्ग्स टु द एंजेल्स।
तीसरा क़तबा- डाइड ट्वेन्टी फ़ोर्थ जुलाय, 1891, दाय शैल बी डन ओह लॉर्ड।
हर क़तबा एक कहानी है।
मेरे वजूद का अंदरूनी अहाता उन कहानियों के सन्नाटों से भर जाता है, जिनका एक आख़िरी, फ़ौरी, नाक़ाफ़ी डिटेल अभी मेरे सामने है- 27 दिन जीकर मर गया शिशु, एलिज़ाबेथ का बेटा वॉल्टर और 1891 में मरने वाला वो अनाम, जिसको मालूम नहीं था कि उसकी मौत के सवा सदी बाद कोई एक उसके जीवन के अंतिम अभिलेख को देर तक घूरता रहेगा।
रोम की प्रोटेस्टेंट सीमेट्री में अंग्रेज़ी के सुकुमार कवि जॉन कीट्स की क़ब्र है, जिस पर यह पंक्ति दर्ज है-
"हियर लाइज़ वन हूज़ नेम वॉज़ रिट ऑन वॉटर।"
[ यहां सो रहा है वह, जिसका नाम पानी पर लिखा गया था ]
नाइटिंगेल और ऑटम के नाम गीत गाकर महज़ 25 साल की उम्र में मर जाने वाले कवि के लिए इससे बेहतर कोई इनस्क्रिप्शन क्या होगा, अगर आप यह सोच रहे हैं तो मैं आपको बता दूं कि इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता आप कितने साल जीये, आप सभी का नाम पानी पर ही लिक्खा गया है।
और उनका नाम पराये समंदरों की लहरों पर दर्ज है, जो अपना मुल्क़ छोड़कर सात समन्दर लांघने के बाद यहां मध्यभारत में मरने के लिए आए थे, आज से सवा सदी पहले।
गिरजे में इतवार को प्रार्थनाएं पढ़ी जाती हैं, आम दिनों में तो इसका अहाता सुनसान ही सोया रहता है, जबकि उसके ठीक समीप एक तेज़ रफ़्तार शहर लगातार दौड़ रहा होता है, एक बेशऊर नींद में डूबा हुआ।
मृत्यु और आस्था के इस रंगमंच के लिए प्रेम से श्रेयस्कर कुछ नहीं हो सकता। यहां आपको प्रेम करने के लिए आना चाहिए। प्यार को जितनी धूप, जितनी हवा चाहिए, वो ऐसे वीरान गिरजों के अहाते में ही मिल सकते हैं।
वो गाना है ना-
"चांद चुराकर लाया हूं, चल बैठें चर्च के पीछे।"
सीने पर बांधे हाथ कि जो अभी ना जीये, तो खट जाएंगे, रेत का घर बन जाएंगे, क़तबे का एक पत्थर, जो सदियों तक सबको बतलाएगा कि कब मरे, यह नहीं कि जीये या नहीं।