चाल / रवीन्द्र कालिया / पृष्ठ 3
'आज बाजार है, दो रुपए चाहिए।'
'बहू से लेना।' प्रकाश ने कहा। उसे वाकई मालूम नही था कि घर में रुपए हैं या नहीं हैं।, हैं तो कहाँ हैं। किरण रुपए कुछ इस ढंग से निकालती है कि पास खडा आदमी भी नहीं जान सकता, अभी-अभी उसके हाथ कहाँ गए थे।
बाई के जाते ही कमरा भायं-भायं करने लगा। प्रकाश कुर्सी से उठा और मछली बाजार की तरफ खुलने वाली खिड़की के पास जा खडा हुआ। चाल की स्त्रियाँ आलू-प्याज से भरे थैले ले-ले कर लौट रही थीं। मगर बीच में नाला पडता था। स्त्रियाँ आलू-प्याज और बच्चे के साथ आसानी से नाला फांद जातीं। खिडकी के सामने फैक्टरियों की चिमनियाँ धुआँ उगल रही थीं।
'बाजार में अगर मंदी है तो यह फैक्टरियों धुआँ क्यों उगल रही हैं, गाडियों में इतनी भीड क्यों है? गगनचुग्बी इमारतें कौन बना रहा है? जबकि देश की उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने वाले युवक के पास ईट खरीदने के लिए पैसा नहीं है, काम करने के लिए जगह नहीं है। मैं दो बम बनाऊँगा, एक गुणवंतराम की खोपडी पर और दूसरा बैंक की भव्य इमारत पर दे मारूँगा।' प्रकाश बुदबुदाया, 'शट-अप प्लीज! तुम कुछ नहीं करोगे। बीवी की डाँट खाओगे और अजगर की तरह पडे रहोगे। एक दिन यो ही पड़े-पड़े तुम्हारे बाल सफेद हो जाएँगे और तुम बिना औलाद के मर जाओगे। दादर स्टेशन पर जाकर कुलीगिरी क्यों नहीं करते? अभी-अभी किसके सामने शेखी बघार रहे थे? बोलो! बोलो!'
प्रकाश उठकर बालकनी में आ गया। चाल की यह संयुक्त बालकनी है। बाहर केवल औरतें और बच्चे ही नजर आ रहे थे। इस समय शायद वह चाल में अकेला पुरुष था। नहीं, अकेला नहीं। एक और माई का लाल इसी चाल में रहता है। पाल प्रशांत। प्रशांत महासागर की औलाद!
प्रकाश ने ऊपर से पाल के कमरे की ओर निगाह फेरी। पाल हास्बेमामूल टाइपराइटर से भिड़ा हुआ था। टाइपराइटर बिगड़ जाए, तो पाल मैकेनिक की तलाश नहीं करता। दहेज में मिला उषा सिलाई का पेचकस निकाल कर खुद ही ठीक-ठाक कर लेता है। प्रकाश ने यह महसूस किय पाल के अलावा चाल सो रही थी। चाल की स्त्रियाँ खाने वाने से निपट कर बालकनी में जगह-जगह सुस्ता रही थीं। दरअसल यह समय सबके लिए फुरसत का समय है। बडी-बूढी औरतें खाँसते हुए बच्चों को टाँगों पर बैठा कर चंदामामा की सैर कराते हुए, बहू के सिर से जुएँ निकाल कर अथवा खाट पीट कर पिस्सू निकालते हुए अपना समय बिताया करती हैं। जिन स्त्रियों को अपने मैके से आई चिट्ठी पढ़वानी या कुछ भेद-भरी बात माँ को लिखवानी होती है, वे प्रकाश के कमरे के आस-पास मंडराया करती हैं। पहले पाल कभी यह काम बखूबी कर दिया करता था, मगर इधर वह इस काम की भी फीस माँगने लगा है। यही कारण है कि प्रकाश की लोकप्रियता लगातार प्रगति की मंजिलें तय करती जा रही हैं। प्रकाश चुपचाप पत्र वगैरह लिख देता है और उसके पत्र लिखते ही चाल में कृष्णा की ढुढवाई मचती है। चाल के बच्चे उसे कहीं-न-कहीं से ढूँढ निकालते हैं। कृष्णा आँखें नचाता, कमर मटकाता कहीं से प्रकट हो जाता।
कृष्णा हिजडे का नाम है, जो चाल में सीढियों के नीचे एक छोटी सी कोठरी में रहता है। शाम घिरते-घिरते उसकी व्यस्तताएँ नए रूप में प्रकट होने लगती हैं। शृंगार करके निकलता, उसे पहचाना मुश्किल हो जाता है। बालों में वेणी, होठों पर लिपस्टिक, साडी में लिपटी स्लीवलेस बाँहें, कांता सेंट की महक और पीछे-पीछे बच्चो की लम्बी कतार। बच्चे दूर तक उसके पीछे जाते हैं। रास्ते में मौका मिल जाए और दो-एक शरीर बच्चे साथ हों, तो उसके चीरहरण के प्रयास शुरू हो जाते हैं।
बच्चों का विश्वास है कि कृष्णा, हिजडा नहीं, भला-चंगा आदमी है। वे यह भी जानते हैं कि कृष्णा ने इस समय जो ब्लाउज पहना हुआ है, वह उसे पप्पू की माँ ने दिया था। साडी देवकी ने दी थी। लिपस्टिक अग्रवाल की पत्नी की है। पाउडर उसे चौपडा साहब के यहाँ से मिलता है।
कृष्णा के पीछे भागते बच्चे पार्क के पास पहुँचकर, सहसा ठिठक जाते हैं। वहाँ कृष्णा के आशिकों का एक नया दल उसकी प्रतीक्षा में बीडी-पर-बीडी फूँकता नजर आता है। शाम की पाली से छूटे आशिकों का दल मुँह से तरह तरह की सीटियाँ बजाता। पहले यह दल चाल तक भी हो लेता था, मगर एक दिन कपूर साहब ने अपनी बीवी और दोनों बेटियों को इस तरह से एक दृश्य का मजा लेते देख लिया। कपूर साहब गुस्से में पैर पटकने लगे और बीवी के रोकते-रोकते संतरी को पाँच रुपए थमा कर अपने साथ लेते आए। संतरी ने मजदूरों को देखते ही गाली बकना शुरू कर दिया। दो-तीन दिन तक संतरी ने ऐसा समाँ बाँधा कि उन लोगों ने चाल तक आना छोड दिया। अब पार्क उनकी सीमा-रेखा थी।
कपूर साहब को शांति मिल गई थी। उनकी दानों जवान बेटियाँ अब पाली छूटने का भोंपू सुनते ही कपाट बन्द कर लेतीं। छोटा भाई मटकू किराये की किताबों की दूकान से गुलशन नंदा का कोई उपन्यास ला देता। चाल से जरा ही दूर सडक पर किराये की किताबों की दूकान थी। जहाँ आलू-प्याज मटके की पत्रिकाएँ और सिगरेट-बीडी एक साथ बिकते थे। चाल में किताबें लाने, ले जाने का काम कृष्णा ही करता था, मगर कपूर-परिवार चूंकि कृष्णा से खफा था, इसलिए यह काम मोटू को ही करना पडता था। कृष्णा के आशिक कृष्णा को देखते ही उसे कंधों पर उठाकर भाग जाते। चाल के बच्चे हो-हो करते उनके पीछे-दौडते मगर मछली बाजार के आगे कोई नहीं जाता।
कृष्णा रात देर से लौटता। अक्सर एक ही पिक्चर उसे रोज देखनी पडती। सुबह होने से पहले वह उठकर नहा लेता और बंतासिंह की टैक्सी धुलाते हुए नजर आता। कहते हैं, चाल में किसी ने उसे सोते नहीं देखा था। सुबह जब चाल के पुरुष काम-धंघे के लिए निकल जाते, तो चाल पर कृष्णा का साम्राज्य हो जाता। औरतों के पास आँख लडाने के लिए यह हिजडा ही रह जाता। सिन्हा की बीवी सिन्हा सहब और बच्चों का खाने का डिब्बा भिजवाते ही खटिया बाहर निकलवा लेती और घण्टों कृष्णा से टाँगें दबवाती। पाल की पत्नी चाल में किसी से बात नहीं करती थी। पाल से भी नहीं। मगर कृष्णा से उसकी पटती थी। अक्सर वह टैक्सी में लौटती और कृष्णा से पैसे लेकर भाडा चुकाती। वह ड्राइवर से दो-तीन बार हार्न बजाने को कहती, कृष्णा कच्चे धाके से बँधा चला आता। पाल या उसके बच्चों पर हार्न की इस आवाज को कोई असर नहीं पडता। पाल बदस्तूर टाइप करता रहता। चाल की भावुक स्त्रियाँ दिन-भर यतीम की तरह घूमते पाल के बच्चों को देखकर कई बार रो पडतीं। शुरू में कई बार दया-भाव से प्रेरित होकर स्त्रियाँ बचा-खुचा भोजन पाल के बच्चों के लिए भिजवा देती थीं, मगर एक दिन पाल को कहीं से तीन सौ का चैक मिल गया। वह चाल में शेर की तरह दहाडने लगा कि उसके बच्चों की तरफ किसी ने टुकडा फेंका, तो वह उसे कभी माफ नहीं करेगा। उसके पास खाने को नहीं होगा, तो वह बच्चों-समेत आत्महत्या कर लेगा, मगर भिखमंगों की तरह नहीं जिएगा। ऐसी हालत में पाल की बीवी का टैक्सी में आना-जाना चाल की स्त्रियों को बडा रहस्मय लगता। वे आपस में फुसफसातीं, 'इस छिनाल के कई यार हैं। जाड़िया की रखैल है। वही नित नयी-नयी साड़ियाँ देता होगा। कैसे सती सावित्री की तरह जमी की तरफ देखते हुए चलती है।'
स्त्रियों का खयाल था कि कृष्णा पाल की पत्नी के बारे में बहुत-कुछ जानता था। कई बार वह उसे अज्ञात जगहों पर दौड़ाया करती। वह घण्टों गायब रहता और गृहणियाँ पाल की पत्नी की गाली देतीं। कृष्णा लौटता, तो कुछ भी न बताता। स्त्रियों की कोशिश रहती कि किसी प्रकार कृष्णा को फुसलाकर उस छिनाल के बारे में जानकारी हासिल करें, मगर कृष्णा इतना ही कहता, 'उसके दिन फिरने दीजिए बहन जी!' सिन्हा की पत्नी कृष्णा से टाँग दबवाते हुए उसकी बात छेडती, तो कृष्णा छिटक कर अलग हो जाता, 'बहन जी हमसे अंट-संट की बात न किया करो कृष्णा के इस रवैये का परिणाम यह निकाला कि वह सब किसी का विश्वास प्राप्त करने लगा। स्त्रियाँ उसके प्रति इतनी निश्चिन्त हो गईं कि उसके सामने ब्लाउज अथवा पेटीकोट बदलने में भी उन्हें संकोच न होता, साडी की बात तो दर किनार।
फिल्मी दुनिया की चकाचौंध पाल को बम्बई खींच लाई थी। वर्षों के संघर्ष के बाद पाल को एक फिल्म के निर्देशन का काम मिला था, मगर निर्माता कहीं भाग गया। निर्माता की तलाश में वह पागलों को तरह भटकता रहा, मगर किसी मनचले ने उद्योेग में यह भ्रम फैला दिया कि जो भी निर्माता पाल से फिल्म करवाएगा, इस दुनिया से जरीवाला की तरह कूच कर जाएगा। आखिर थक-हार कर पाल ने 'मीत' फिल्म की कुछ तस्वीरें फ्रेम करवा के अपने कमरे में टाँग लीं और रोजी-रोटी के लिए दूसरे दरवाजे खटखटाने लगा। 'मीत' की तस्वीरें आज भी पाल के कमरे में लटक रही हैं। घर में गन्दगी रहे, पाल सुबह उठकर उन तस्वीरों का अवश्य झाड देता है। इस सैट के लिए उसने मद्रास के कारीगर मँगवाया था, मुधुवाला की यह मुस्कराहट 'मीत' के बाद किसी फिल्म में न आ पाई, हैलेन का यह कैबरे आज भी कोई न दे सका। पाल तस्वीरें झाडते जाता और उदास होता जाता। दुनिया ने उसकी कला की कद्र नहीं की। पाल को आज भी कभी कभी उम्मीद होने लगती कि कोई न कोई माई का लाल उसके पास जरूर आएगा और फिल्म पूरी करने को कहेगा। सत्यजित रे उसके सामने परनी भरेगा। हृषिकेश मुखर्जी बम्बई छोड देगा। उन दिनों बाँठिया उसके पीछे-पीछे घूमता था, जरीवाला के चक्कर में न आकर बाँठिया से अनुबंध कर लिया होता तो, आज नक्शे दूसरे होते। पाली हिल पर फ्लैट होता, यही हरामजादी मिसेज पाल दुम हिलाते हुए चापलूसी करती। आज उसे गरीबी से नफरत हो गई है, मुझसे विरक्ति और बच्चों से एलर्जी। दरअसल अपनी सफलता की प्रत्याशा में पाल ने बहुत असावधानी और निश्चिन्तता में एक के-बाद दीगरे चार बच्चे पैदा कर लिए थे, जो क्रमश: पब्लिक स्कूलों से म्युनिसिपैलिटी की पाठशालाओं में पहुँचते गए। उन दिनों वह माहिम में रहता था। रात देर को लौटता और अपनी पत्नी के आगोश में डबल बेड पर धँस जाता। फिर उसे सुबह ही होश आता था। अपने सुनहरे दिनों में पाल ने पत्नी को ढेरों कपडे दिए थे, और बहुत से गहने। पाल की पत्नी मूर्ख नहीं थी।
उसने ये सब चीजें कुछ ऐसे सँभाल कर रखीं कि आज भी जब वह चाल से निकलती है, तो किसी फिल्म निर्देशक की पत्नी से कम नहीं दिखती। कडके के दिनों में पाल नाक रगड कर रह गया कि जेवर बेचकर कोई धंधा जमा ले, मगर पाल की बीवी ने अंगूठी तक नहीं दी। उसने अपने को दुर्घटनाओं से कुछ इस तरह बचाकर रखा कि बडे से बडा स्त्री-विशेषज्ञ भी नहीं कह सकता कि यह चार बच्चों की माता है। वह सुबह दस-ग्यारह बजे बन-सँवर कर घर से निकल जाती और शाम को तब तक न लौटती जब तक पाल शाम का भोजन वगैरह पका कर बच्चों को खिला और सुला न देता। पाल चूँकि पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर का पुराना स्नातक था, धाराप्रवाह अंग्रेजी और उर्दू बोल सकता था, उसे फिल्मों में दूसरी तरह का काम मिलने लगा। बहुत से नायक निर्माता अपनी फिल्म के लिए पाल से पटकथा और संवाद लिखा लेते और नाम अपनी पत्नी का दे देते। उसकी लिखी कुछ फिल्में सफल भी हुईं, मगर इससे पाल को कोई लाभ नहीं हुआ। धीरे-धीरे पटकथा और संवादों के अंग्रेजी अनुवाद करने का काम मिलने लगा। यह काम उसे पसन्द आया। इसमें ज्यादा खुशामद भी दरकार न थी। पूरी फिल्म का अनुवाद वह पचास-सौ रुपए में कर देता, इसलिए उसके पास काम की कमी भी नहीं थी। जबकि चाल के लोगों का खयाल था, कि यह काम भी उसकी बीवी ही लाती थी।
पाल को तीन चीजें जिन्दा रखे थीं। उसके पास अगर टेलीफोन, टाइपराइटर और खूबसूरत बीवी न होती, तो वह भूखों मर जाता। चालभर में फोन पाल के ही पास था, इसलिए फोन से भी उसे अच्छी-खासी आमदनी हो जाती है। शुरू में चाल के बहुत से मनचले तो फोन के बहाने, उसकी बीवी से आँख लडाने चले आते थे। बीवी पलट कर भी न देखती कि कौन आया है। वह अधलेटे उपन्यास पढती या शूल्य में ताकती। अब केवल जरूरत-मन्द लोग ही फोन करने आते। बहुत से लागों ने अपना सिक्का जमाने के लिए अपने विजिटिंग कार्ड पर पाल का फोन नम्बर दे रखा था, जिससे रह-रह कर फोन की घण्टी टनटनाने लगती।
गर्ग के फोन सबसे अधिक आते। गर्ग ताजमहल होटल में होजरी की एक दूकान में मुनीम था। मालिक लोग लुधियाना में थे, लिहाजा उसे ऊपर की आमदनी भी हो जाती थी। वह अपनी बीवी से बेतरह डरता था। उसने बंगालिन से शादी की थी और इस शादी में उसने तन-मन-धन सब खो दिया था। वह दरअसल प्यार का मारा हुआ आदमी था। बंगालिन से प्यार का एक छींटा मिलते ही वह उस पर फिदा हो गया और बाप के मरते ही अपनी सारी जायदाद बंगालिन के नाम कर दी और खुद हौजरी की दुकान में मुनीम हो गया। उसके चेहरे पर, होठों पर सफेद कोढ था। औरत को पाकर उसका जीवन सार्थक हो गया, मगर जल्दी ही वह मनचिकित्सकों से परामर्श लेने लगा कि उसकी पत्नी होंठ पर चुक्बन नहीं देती, संभोग से उसे वितृष्णा है, गर्ग अगर प्यार के अतिरेक में बच्चे को चूम लेता तो बंगालिन कई हफ्तों के लिए विनोबा भावे की तरह मौन व्रत धारण कर लेती। हस्पतालों के चक्कर लगाकर वह थक गया तो चाल के एक सफल डॉक्टर से परामर्श लेने लगा। डॉ बापट नया-नया डॉक्टर हुआ था, और धंधे की अपेक्षाओं से अपरिचित था। नतीजा यह हुआ कि शीघ्र ही गर्ग की ये बातें चाल में फैल गईं। मेढेकर नाम के लाइनो-ऑपरेटर से डॉक्टर की मित्रता थी, जो गर्ग के बगल वाले कमरे में रहता था। इन अफवाहों का असर यह हुआ कि एक दिन गर्ग को सपना आया कि उसकी पत्नी डॉक्टर बापट के प्रेमपाश में फँस गई है। गर्ग बेचैन हो गया। उसने सपने को सच मान लिया और उदास रहने लगा। दूकान से असमय उठ आता और 'चेकिंग' करके लौट जाता। पाल को गर्ग जैसे वहमी किस्म के ग्राहकों से बहुत असुविधा होती थी। गर्ग का फोन आता, तो उसकी बीवी कहलवा देती, टिंकू को दस्त आ रहे हैं, उनसे कहो फोन न करें। पाल इस बात से चिढ जाता। उसे तब तक चवन्नी नहीं मिलती थी, जबतक बात न हो जाए। गर्ग बात भी क्या करता था, चिल्लाता था,'बच्चे की 'फीड' में पाँच बूँद 'पिपटाल' जरूर मिला देना, फिर भी पेट ठीक न हो, तो 'केल्टिन-सस्पेंशन' दे देना। जरूरत पडे, तो मुझे बुलवा लेना, मैं बापट से सलाह कर लूँगा।' गर्ग साहब, तीन मिनट हो गए। अब दुगना पैसा देना होगा!' पाल कहता। वैसे ग्राहक से ज्यादा बात करना पाल के स्वभाव में नहीं है। पैसे उगाहने का काम प्राय: उसकी बेटी ही करती है। सब से छोटी बेटी रेणु। रेणु अब स्कूल नहीं जाती। सुबह नहाकर खुद ही धोया हुआ फ्राक पहन लेती है और फोन के निकट रखे स्टूल पर ऊँघने लगती है। एक दिन गर्ग का फोन आया, तो रेणु ने फटाक से कह दिया कि वह बंगालिन को नहीं बुलाएगी। वह खाली पीली बोम मारती हैं और चवन्नी भी नहीं देती। पाल ने चौंक के बिटिया की ओर बडे स्नेह से देखा। कितना अच्छा है! उसकी बेटी अब बात-बात पर परेशान नहीं करती और स्वयं ही निर्णय ले लेती है। गर्ग ने कहा कि उसकी बीवी अगर फोन नही भी सुनती वह चवन्नी देगा। तब से रेणु बैठे-बैठे चवन्नियाँ कमाने लगी। गर्ग का फोन आता दे, तो वह 'होल्ड ऑन' कहकर कमरे में नाचने लगती है और थोडी देर बाद आवाज में खीझ भर कर कहती है, बंगालिन दरवाजा भी नहीं खोलती।
एक दिन गर्ग से बीवी की यह उदासीनता बर्दाश्त न हुई और वह तीखी दोपहर में घर चला आया। यह संयोग ही था कि बंगालिन सोयी हुई थी, गर्ग के लाख खटखटाने पर भी उसने दरवाजा न खोला। गर्ग को विश्वास हो गया था, जब उसकी पत्नी दरवाजा नहीं खोलती, तब अवश्य डाक्टर बापट उससे रंगरलियाँ मनाता होगा।
पाल अपनी बेटी की इन शरारतों पर ध्यान न देता। यह लडकी दिन भर में पाँच रुपए की रेजगारी जमा कर लेती थी। आने वाली 'कालों' में कुछ खर्च भी नहीं होता था। इस लिहाज से रेणु दिन-भर में ढाई-तीन रुपए तो कमा ही लेती थी। पाल के लिए यह पर्याप्त था। लडकी अपना काम दिलचस्पी और जिम्मेदारी से कर रही थी। जिस किसी का भी फोन आता, रेणु घोडे की चाल से भागती और उस व्यक्ति को ढूँढ निकालती। ग्राहक के रिसीवर रखते ही वह चवन्नी वसूल लेती। उसके आगे किसी का बहाना न चलता। रेजगारी न होती तो वह हाँफते हुए डाकखाने तक जाती और रेजगारी ले आती। डाकखाने के बाबू लोग उसे पहचानने लगे थे।
प्रकाश को रेणु ने खुली छूट दे रखी थी।, कि वह भी अपने विजिटिंग कार्ड पर उसका फोन नम्बर दे दे, मगर प्रकाश कहीं 'विजिट ही नहीं करता था। रेणु को प्रकाश पर दया आ गई। उसने कहा, प्रकाश का फोन आएगा तो वह उससे बुलाने के पैसे नहीं लेगी। मगर प्रकाश को पाल की ही तरह किसी के फोन का इन्तजार नहीं था। प्रकाश के कमरे में पाल के फोन की टनटनाहट स्पष्ट सुनाई देती थी। प्रकाश को कभी नहीं लगा कि टनटनाहट उसके लिए हो सकती है। पाल पर भी इस घंटी का कोई असर नहीं होता। रेणु आस-पास न हो, तो वह रिसीवर भी नहीं उठाता।
दिन में पाल जितना ही शांत नजर आता, पी के लौटने पर उतना ही अशांत और खूंखार हो जाता। घर की चीजें इधर-उधर पटकने लगता। एक बार तो उसने खाट के नीचे पडे पत्नी के ट्रंक पर इतने जोर से ठोकर मारी कि उसके पाँव के अंगूठे का नाखून छिल गया। कई बार वह भोजन की थाली बाहर मैदान में पटक देता, फिर थोडी देर बाद स्वयं ही उठा लाता। उसकी पत्नी की आवाज बहुत कम लोगों को सुनाई देती, मगर वह सुई की तरह कोई-न-कोई बात अवश्य चुभो देती होगी कि पाल आपे से बाहर हो जाता।