जशपुर की वनगंध / बावरा बटोही / सुशोभित

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जशपुर की वनगंध
सुशोभित


मैं तो जशपुर नहीं गया, केवल भैया गए थे। मैंने केवल भैया की जशपुर यात्रा के तमाम ब्योरे और तस्वीरें अपनी आंख से देखे। जो पहली अनुभूति मुझे हुई, वह एक सघन वानस्पतिक गंध की थी। जैसे लगभग अचेत कर देने वाली तीव्र वनगंध ने मुझे घेर लिया हो। मैं उस यात्रा में भौतिक रूप से सम्मिलित नहीं था, किंतु मेरी चेतना वहाँ बंध गई।

दुनिया को विश्वग्राम बना देने वाली तकनीकी ताक़तों ने हाइपरमोबिलिटी की परिघटना को हमारी सदी में रच दिया है। एक ऐसी चिर-यात्रिकता, जिसमें ‘जेट-लैग’ भी रोज़मर्रा का रिवाज़ बनकर रह जाए। जिसमें सांझ-सकारे एक हो जाएं। किंतु तब भी इस पूरी दुनिया की ख़ाक़ भला कौन बटोही छान पाता है?

वायुयान में बैठकर समुद्रों को लांघ जाने के औद्धत्य से पृथिवी प्रदक्षिणा कहाँ पूर्ण होती है?

उल्टे मुझको तो लगता है कि वायुयान में बैठकर धरती को लांघ जाने के पाप से कहीं धरा रुष्ट तो न हो जाती होगी। समय अधिक नहीं है आधुनिक मनुष्य के पास और तीव्र गति की यात्राओं का विरोधी भी नहीं हूं, किंतु अवमाननाएं जो जाने अनजाने हमसे हो जाती हैं, वो तो अपनी जगह पर ही हैं ना। देवता जो हमारे जाने-अनजाने रुष्ट हो जाते हैं।

मुझे अनुभव हुआ कि जशपुर-मैनपाट की अपनी यात्रा के दौरान केवल भैया अपनी अदम्य अपूरित जिज्ञासा के पुण्य से उस एक अवमानना से स्वयं को बचा लाए हैं। ऐसा उन्होंने रीतिपूर्वक विचारपूर्वक किया हो, वैसा फिर भले ना हो।

लिहाजा, यात्रा में देरी होती रही होगी, क्योंकि वाहन स्थान-स्थान पर रुक जा रहा था। समय तालिकाएं मुंह बनाती रही होंगी। किंतु वह यात्रा वैसे ही सम्भव हो सकती थी।

ये देखिये, यहाँ बांस हैं।

और ये रहे साल के पेड़।

ये देखिये, जशपुर का प्राकृतिक सौंदर्य कि सड़क किनारे कटहल से लदे रूख खड़े हैं। मंडी में यही कटहल पचास रुपया किलो बिकेगा, यहाँ बेमोल है।

और यह है, जलजली का भूशंख। यहाँ धरती स्पंजी हो गई है।

यह है देशदेखा, यहाँ से समूचा देश दिखता है।

और यह कौन-सा बांध है? मनाली का स्टॉपडेम?

यह भुट्‌टा क्या इसी गांव की फ़सल है?

आदि इत्यादि।

फिर जशपुर के चाय बाग़ान के लिए यह कि जिस चाय के लिए छत्तीसगढ़ के मज़दूर असम जाकर बस गए, वह चाय अब ख़ुद छत्तीसगढ़ आकर बस गई है।

जिज्ञासा का मृग जैसे कहीं भी संतुष्ट नहीं होना चाहता था।

उसी कौतुक में वह वीडियो भी रचा गया, जिसमें 'झोला भर जंगल' ले जा रहे दो देहातियों को अनुनयपूर्वक रोककर पूछा जाता है- यह क्या वस्तु है? जामखुकड़ी का साग? इसे किसके साथ पकाकर खाएंगे, आलू के साथ? और यह क्या है? करील? भोजन के रूप में प्रयुक्त होने वाला मुलायम बांस। और यह है सरई की दतुवन। सरई पेड़ के नीचे होने वाला गोल-गोल फुटु नहीं लाए हो क्या? झोले में और क्या है? सीहेर के पत्ते? इनका क्या दोना-पत्तल बनावोगे?

इन ग्रामीणों के सिर के ऊपर से निकल जाने वाला वायुयान भला ये सूचनाएं कैसे प्राप्त कर पाता, धरती में धंसे बिना? रेलगाड़ी भी सांप की तरह समीप से ही रेंगकर गुज़र जाती, बशर्ते लम्बी क्रॉसिंग की ऊब के दौरान ना मिल जाते वे दो ग्रामीण, और यात्रियों में विनयपूर्वक पूछताछ करने का विस्मय होता।

इससे पहले सरगुजा की यात्रा केवल भैया ने कब की, मुझको मालूम नहीं, किंतु यह एक सूचना मुझे याद रह गई कि कोरबा के पास कटघोरा में सड़क किनारे एक बहुत छोटी सी छपरी में एक शाम कोलियारी की भाजी खाई थी। फिर कैरे गांव में गाड़ी रोककर बतलाया कि यह देखिये, यह रहा उसी कोलियारी भाजी का पेड़।

कोलियारी भाजी का पेड़ दिखाते-दिखाते दिख गया कटहल, कटहल दिखाते-दिखाते दिख गए बांस, बांस के सामने उगा था एक ग्रामीण घर, जिसमें दिख गए देवसत्ती के माता-पिता। उनसे पूछा गया कि यहाँ क्या-क्या उगता है? जवाब मिला धान तो प्रत्युत्तर में पूछ लिया गया, यहाँ टाऊ भी तो उगता है ना?

अब ये टाऊ क्या बला है? उन्हीं से उत्तर मिला कि टाऊ एक अनाज है, जिसे तिब्बती शरणार्थी अपने साथ मैनपाट ले आए थे। मैनपाट और जशपुर की जलवायु उसके लिए अनुकूल थी, तो वे यहाँ फल गए।

मैंने गेहूं, ज्वार, बाजरा, मक्का खाया है, टाऊ का अनाज कभी नहीं खाया।

मैंने बथुआ, मेथी, सरसों, अफ़ीम का साग खाया है, कोलियारी का साग कभी नहीं खाया।

कटहल खाया है, करील नहीं।

दतुवन की है, किंतु सरई की टहनी की नहीं।

और सबसे बढ़कर यह कि ये सब चीज़ें इस धरती पर थीं, यह भी मुझे अभी तक सूचना नहीं थी।

कौतूहल के प्रण से भरी वैसी ‘पृथिवी प्रदक्षिणा’ एक जीवन में तो पूर्ण होने से रही, किंतु एक जीवन में पृथिवी को लांघ ही लेंगे, यह औद्धत्य भी तो हमें परास्त ही करता है।

किंतु यात्राएं अगर की जाएं, तो वैसे ही विस्मय के विनयपूर्ण व्याकरण में की जाएं, जिसमें हम जब थककर घर लौटें तो अपने साथ देश और लोक की गंध भी लेकर लौटें, यह कौतूहल अवश्य मन में विकसित हुआ है एक निजी वानस्पतिक अनुभूति की तरह। जैसे रोमकूपों में सहज समो जाती है वनगंध।