लहारपुर के कमल / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
कोई कहीं का पता-ठिकाना पूछे और आपको रास्ता मालूम हो तो उसको बतलाना भी एक ही संतोष है। अभी उसी दिन विदिशा-रायसेन सड़क पर टहल रहा था कि बिलखिरिया कलां की तरफ़ से एक ट्रक आता दिखाई दिया। रत्नागिरी चौरस्ते पर मुझसे मिला। खिड़की से झांककर चालक ने पूछा, भैया करौंद मंडी किधर? मैं बरबस मुस्करा दिया। कारण, वह उसी मोड़ पर खड़ा था, जहाँ से करौंद का रास्ता जाता है। मैंने कहा, भाई सीधे चलते जाओ। कोई दसेक किलोमीटर होगा। सड़क चाहे जितनी मुड़ जाए, पर तुम रास्ते में कहीं मुड़ना नहीं। भानपुर पुल पर एक सड़क मुड़ने को कहेगी पर उसकी सुनना नहीं, इसी पर चलते चलना। करौंद पहुंच जाओगे। उसने धन्यवाद कहा और आगे चल दिया। मैं उसे देरी तक दूर जाते देखता रहा।
पर कभी ऐसा भी होता है कि दृश्य बदल जाता है और आप स्वयं को औरों से रास्ता पूछते पाते हैं। जैसे कि मैंने आज स्वयं को पाया। मुझको लहारपुर जाना था, किंतु रास्ता देखा नहीं था। तो राह पूछता-पाछता चला। एक मोड़ पर बरगद दिखा तो याद रख लिया कि लौटते में काम आएगा। एक गांव में सरकारी स्कूल दिखा। नाले पर पुलिया दिखी। फिर सोचा लौटेंगे तो तब, जब पहले पहुंचेंगे? डगर मिलती ही ना थी। चार जगह उतरा, रास्ता पूछा। दो बार ग़लत दिशा में मुड़ गया। पर आख़िर अपने मुक़ाम पर पहुंच ही गया। किंतु बरखेड़ा में, बागमुगालिया में, लहारपुर फाटक पर- किसी ने भी मुझे ग़लत रास्ता नहीं बताया।
लहारपुर में एक छोटा-सा बांध है। बांध के पानी की एक डगाल थोड़ा दूर बिछल आई है, जहाँ कमल के फूल खिलते हैं। भोपाल में यह इकलौती जगह है, जहाँ कमल खिलते हैं। जब सुना तो सोचा, देख आते हैं। चार दिन पहले दीपावली मनाई गई थी, कमल का फूल तो अब वहाँ क्या बचा होगा- मैंने मन ही मन सोचा। दीपावली पर एक-एक फूल चालीस रुपया नग बिकता है, एक फूल मैं भी तो लाया था। हाथों में उसे लेकर देर तक निहारता रहा। कल्पना में अजंता के पद्मपाणि का चित्र उभर आया। फूल बेचने वाले से पूछा था, ये कहाँ से लाए हो? वो बोला, लहारपुर से लाया हूँ। बस तभी निश्चय कर लिया कि लहारपुर जाना है। फिर चाहे जितने फूल वहाँ अब शेष हों।
नदी जो होती है, वो एक दिशा में सीधे चलती है। पर उस पर बांध बांध दो तो सूत के फटे अंगोछे-सा उसका जल जहाँ तहाँ फैल जाता है। कहीं पोखर, कहीं दलदल, कहीं डबरी, कहीं तलैया बनाता है। जो सयाने होते हैं, वो इस पर कमल की खेती करते हैं। यह फूल ठहरे जल का सिंगार है, ये बंधी धरती पर नहीं खिलता। जहाँ कमल ताल हो, वहाँ जल में जड़ों का संजाल बिछ जाता है, जैसे जलकुम्भी! कमल के बड़े-बड़े पत्ते किसी सुंदर-से थाल की तरह दिखते हैं। ये पुरइन कहलाते हैं। मेरे मन में कमल ताल देखने की बड़ी ललक है। एक बार इंदौर के हातोद गाँव में कमल ताल देखने गया था। बरखा की रुत थी। यह तो क्वांर-कार्तिक का फूल है, भादो में कैसे मिलता, इसलिए तब भी पुरइनें देखकर ही लौट आया था। किंतु आज मेरा भाग्य था कि लहारपुर में कमल दीखा। शेषजल में पद्म-पुराण के इतने पृष्ठ!
मेरे पिता का नाम कमल था। तो इस शब्द से मेरा एक दूसरा ही परिचय है। इससे अधिक सुंदर कोई फूल नहीं। इसकी रूपकात्मकता भी अथाह है! इसके अनेक नाम हैं और वो भी कम सुंदर नहीं। अकेले अमरकोश में ही कमल के इतने पर्याय हैं : अम्बुज, अरविन्द, इंदीवर, कुन्द, उत्पल, जलज, जलजात, नलिन, नीरज, पंकज, पद्म, पिण्डपुष्प, पुष्कर, राजीव, वारिज, शतदल, श्रीवास, सरोज! इसी की फिर अनेक स्त्रीवाचक संज्ञाएं भी हैं- नलिनी, कमलिनी, सरोजिनी। ये कमल के फूल से लेकर कमल-समूह तक को इंगित करती हैं। नीरज कमल है, जैसे नीरद मेघ है। वैसे ही वारिज कमल है, वारिद मेघ। जलज कमल है, जलद मेघ। जल, नीर, वारि ये सभी एक ही तत्व के पर्याय हैं। इसमें ज प्रत्यय जुड़े तो कमल बन जाता है, द प्रत्यय जुड़े तो मेघ। मैं कहूंगा आकाश में जो मेघ है, धरती पर वही कमल है। मेघ जल का पिता है, कमल जल की संतान। जलथल के ये सम्बंध बड़े निराले हैं!
लहारपुर के उस तालाब में कितने तो कमल थे। मध्याह्न थी और वहाँ मेरे सिवा कोई न था। दीपावली-उपरान्त की तंद्रा और शिथिलता नगर-ग्राम पर छाई थी। नहीं तो चालीस रुपया नग बिकने वाले फूल के इस सरोवर में मुझे कोई क्यों बेखटके आने देता? दूर एक बरगद के नीचे ग्राम-देवता का बसेरा था। गायें चरती थीं। काठ की एक नौका अकेली जल में गल रही थी। काठ की नौका में कितनी करुणा भर जाती है, जब वो यों अचल बंधी हो- मैंने सोचा। यों ही निष्प्रयोज्य वहाँ देरी तक टहलता रहा। कमल देखता रहा। अपराह्न का निरुद्वेग जब दिनमान पर झुक आया और किरनें तिरछी होने लगीं तो चलने को उद्यत हुआ। एक भी फूल मैंने तोड़ा नहीं, वो वहीं अपने स्वरूप में प्राकृत थे। किसी नलिनविलोचन पद्माकर की वंदना करते थे!
लौटते समय मोड़ पर वही बरगद दीखा। गांव में वही स्कूल। मैंने मुस्कराकर अभिवादन किया कि अब जाने कब इनसे मिलना हो, फिर कभी इधर आना हो ना हो। घर पहुंचा तो कमल का वह फूल दीखा, जो दीपावली पर लाया था। वह म्लान हो गया था। किंतु उसका वर्ण वही सुघड़ था! मैं पथिक था तो क्या वह मेरा बंधु नहीं था? उसी ने मुझको पहले राह दिखलाई थी, जैसे उस बरगद ने, उस पुलिया ने।
जो बटोही को सही रास्ता दिखलाता हो, वही तो साधु है!