बटोही / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
बहुतेरे तालाबों की पाल उठंगी होती है. उस पर डार होती है, जिस पर ढोर डंगर चलते हैं. इधर संचित जल होता है, उधर ग्राम्य जीवन का जनपथ और बीच में वह ऊर्ध्वरेखा एक अर्धवलय के आलोक में मुड़ती है. संध्या को उस पर चलती आकृतियाँ धरती से देखने पर तिमिरचित्र लगती हैं.
भोपाल में रायसेन-विदिशा बायपास पर टहलता उधर चला आया था. तालाब की बंधान पर इधर कांस की एक पंक्ति खिंच आई थी. तुलसीदास याद आए-- फूलें कास सकल महि छाई. कि कांस दिखने के बाद पानी नहीं पड़ता, बरखा की रुत बुढ़ा जाती है. तब
उस परिप्रेक्ष्य से कांसफूलों का चित्र लेने की तृष्णा जग गई.
एक शासकीय कार्यालय के परिसर में अनधिकार प्रवेश कर गया, जहाँ से यह दृश्य सुघड़ दीखता था. किंतु हारकर भी कार्यालय के गार्ड बाबू को समझा नहीं सका कि कांस का चित्र लेने आया हूँ. उन्हें लगा कुछ टोह लेने आया हूँ, किसी भूल ग़लती की नापजोख करता हूँ. वरना यहाँ कोई यों ही क्यों टहल आता. कदाचित् उनकी कोई पोल ही रही होगी.
तब बड़ी सतर्कता से दैनन्दिनी में नाम, पता, सम्पर्क लिखवाया गया. आज्ञाकारी की तरह सब लिख दिया. बड़े साहब से फ़ोन पर बात भी करवाई. साहब ने कांस के स्वामित्व से इनकार किया. तालाब की पाल हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं आती, ये कह बैठे. बात सच ही थी. आप चिंता ना करें, मैं यहाँ किसी समाचार के साक्ष्य जुटाने नहीं आया, मैं उनसे कहना चाहता था पर कह नहीं सका. कुछ चित्र लेकर लौटने लगा, तब पलटकर फ़ोन आया कि आप रुकें, मैं वहाँ आकर बात करता हूँ. यह भली मुसीबत! उनके आने से पूर्व ही तब वहाँ से उलटे पाँव लौट आया.
क्या बात कीजियेगा? पाल की डार पर दो जन चले जाते थे. एक गाय सन्ध्या के अवसान में प्रकृतिस्थ थी. उस तरफ़ तलैया का औंधा शीशा था, इस तरफ़ कांसफूल का निरा विदागीत. जीवन था जीवन की तरह साधारण और अद्वितीय. पृथ्वी पर एक दिन और चुक जाता था. मुझे इतना ही दीखता था. बात क्या कीजियेगा. मुझे स्वयम् पर लज्जा ही आई कि मैं गार्ड बाबू और बड़े साहब की उम्मीदों पर खरा ना उतरा था. जो वो जान जाते कि मैं कुछ नहीं जानता था तो इस अधीरता के लिए स्वयं को ही कोस बैठते. कि वो जिसको टोही समझे थे, वो तो बिरथा ही इधर भटक आया बटोही था!