टस्कनी का तरबूज़ / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
तारकोव्स्की ने तरबूज़ खाया था टस्कनी में, मूंछें पोंछते हुए। धरती जितना बड़ा तरबूज़, धरती जैसी गोल हंडिया में रखा था। बीचोंबीच से फोड़कर निकाला गया था उसका लाल सुर्ख़ फल। माथा तपा देने वाली गर्मी थी, तब संतोष का इकलौता प्रयोजन वही एक तरबूज़ था।
रूस से इटली में मरने के लिए आया था पावेल सोस्नोव्स्की, अपनी वायलिनें और ट्रम्पेट्स लेकर। पियरो देल्ला फ्रैंचेस्का के बनाए मैडोना के फ्रेस्को देखने रूस से इटली आया था अंद्रेई गोर्चाकोव। तारकोव्स्की भला क्यूं भटक रहा था वहाँ? तारकोव्स्की रूस से इटली थोड़े ना आया था, उसको तो दिया गया था देशनिकाला।
रोम में बीथोवन की नौवीं सिम्फ़नी गाते हुए जो मर गया, वो दोमिनिको तो पागल था। बान्यो विन्योनी के भाप भरे पोखर में मोमबत्ती लेकर चलता रहा, सिरफिरा तो वो गोर्चाकोव। और तारकोव्स्की के पास तो सिम्फ़नी भी नहीं थी ना कंदील। तारकोव्स्की के पास ना कहानी थी ना तस्वीर। वो नंगे सिर क्यूँ टहल रहा था, सिएना के प्रोविन्स में, सान गालान्यो के खंडहरों में?
जिस आदमी का अपना कोई मुलुक नहीं होता, उसकी चलती-फिरती मीनार था, उन्नीस सौ अस्सी का अंद्रेई तारकोव्स्की। जिसकी अपनी कोई धरती नहीं होती, और जिसको बुलाती है अपनी धरती। दो धुरियों पर दोलता अनमना आदमी।
टस्कनी में मूंछें पोंछते हुए तरबूज़ खाया था तारकोव्स्की ने। मुझे भुलाए नहीं भूलती उसके चेहरे की वो निर्मल संतुष्टि, जो भोजन के उपरान्त तरबूज़ खाकर ही मिल सकती है। मुझे भूले नहीं भूलता बिना लंगर के जहाज़ जैसा वो आदमी, जिसका अपना कोई सूर्यास्त तक ना था।