ठेठ हिंदी का ठाट / आठवाँ ठाट / हरिऔध
बटोही ने जो कुछ आँखों देखा, कानों सुना, वह सब बातें उसको चकरा रही थीं, दुखी बना रही थीं, और सता रही थीं, पर इस घड़ी वह बहुत ही अनमना हो रहा था, वह दुखिया नारी रोई, मुरझाकर धरती पर गिरी, फिर आप ही सम्हली, पर वह वैसा ही अनमना बना रहा, न जाने क्या सोचता रहा पर अब अचानक चौंक पड़ा, चौंकते ही कहा देवबाला!! इस देवबाला नाम में न जाने कोई टोना था, न जाने कोई मुरझा देनेवाली सकती थी,जिससे इस नाम को सुनते ही वह तिरिया अचानक यह कहकर फिर अचेत हो गयी “हाय! मैं ऐसी आपे से बाहर हो रही हूँ, ऐसा मेरा जी ठिकाने नहीं है,जिससे बार-बार जी में आने पर भी, यह न पहचान सकी, मुझ दुखिया को सहारा देनेवाला भैया देवनंदन छोड़ और कोई नहीं है” यह सुनकर हमारा बटोही जो देवनंदन छोड़ दूसरा नहीं है, फिर वैसा ही अनमना, फिर वैसा ही सोच में डूबा दिखलाई पड़ा, पर थोड़ी ही बेर में धीरज उसके मुखड़े पर देख पड़ा, उसने उपाय करके उस तिरिया को भी जो देवबाला है, सम्हाला, कुछ ही बेर में उसका जी भी ठिकाने हुआ, पर दोनों कुछ घड़ी चुप रहे, एक बात भी न बोले, न जाने कहाँ-कहाँ की बातें सोचते रहे, मैं समझता हूँ, वही पुरानी बातें उन दोनों के जी में घूम रही थीं, वह सुख के दिन, वह आपस का प्यार, वह फुलवारी का मिलना, वह मीठी बातें, वह लड़कपन का रंग ढंग, फिर दोनों की अड़चलें, धरम के झमेले, इसके पीछे भाई बहिन-सा प्यार, वह अनूठे बरताव, एक-एक करके आँखों के सामने फिर रहे थे और इसी से वह दोनों कितनी बेर तक कुछ भी न बोले। पर इस घड़ी देवनंदन के जी में कोई और ही बात ठन रही थी, इसलिए उन्होंने ढाढ़स करके कहा, देवबाला! तुमारे दुख से कलेजा फटा जा रहा है, क्या करूँ जो राम चाहते हैं करते हैं, पर मैंने अपने जी में ठाना है जहाँ से होगा रमानाथ को मैं खोज निकालूँगा, यह मेरा काम है तुमारा नहीं, अब और कुछ पूछने को नहीं रहा, पर तुम को एक बात बतलानी और रही है और वह रमानाथ का ठिकाना है, क्या कभी-कभी कोई चीठी आती है। देवबाला ने कहा, उनकी कोई चीठी जब से वह गये नहीं आयी, मैं उनका कुछ खोज ठिकाना नहीं जानती, मेरे भाग ने सभी बात बिगाड़ रखी है। इतना कहते-कहते उसकी आँखें फिर भर आयीं और छल-छल करके आँसू टपक पड़े।
देवनंदन चुप रहा, कुछ सोचने लगा, फिर बोला, अच्छा मैं खोज ठिकाना किसी भाँत जान लूँगा, तुम मत घबराओ। अभी पाँच-सात दिन मैं यहाँ रहूँगा, तब तक यह लड़का भी अच्छा हो जावेगा। और इसी गाँव में घूम फिर कर मैं रमानाथ का ठिकाना भी जान लूँगा। इसके पीछे मैं ठीक करूँगा,मुझको क्या करना चाहिए। इतना कहकर वह फिर चुप हो गया और मन-ही-मन कुछ सोचने लगा।
देवबाला इस घड़ी देवनंदन को देख रही थी, उसने देखा उसके सब देह में राख मली हुई है, सिर पर लम्बी-लम्बी जटायें हैं, हाथ में तूँबा और चिमटा है। गेरुये रंग का कपड़ा वह पहने है, सब भेस उसका साधुओं का है। देवबाला ने देखभाल कर पूछा, देवनंदन! क्या तुम साधु हो गये हो, पर वह कुछ न बोला, न जाने क्या सोचता रहा, फिर कहा, यह सब फिर कभी बतलाऊँगा।
अब भोर होने लगा था, इसलिए दोनों जन अपनी-अपनी ठौरों से उठे और नहाने-धोने में लग गये।
इसके पीछे देवनंदन सात दिन यहाँ रहा, सात दिन में उसने इस घर की दो कोठरियों और एक ओसारे को बनाकर ठीक किया, बरस दिन के खाने भर को नाज लिया, पाँच सात साड़ियाँ मोल लीं, और यह सब देवबाला को दिया, इस बीच लड़का भी भली भाँत अच्छा हो गया था। इसलिए आठवें दिन कुछ रोक भी देकर देवनंदन ने देवबाला से कहा। मैं अब जाता हँ, जहाँ तक हो सकेगा, मैं तुरन्त लौटूँगा, मैंने इस गाँव में रमानाथ का कुछ ठिकाना पाया है, लोग कहते हैं इस गाँव से चार कोस पर रामपुर नाम का एक गाँव है, उसमें भवानीदत्त नाम का कोई कायथ रहता है, पूरब में जहाँ रमानाथ रहते हैं,वहीं यह कायथ भी आता-जाता है, आज कल वह घर आया हुआ है, उससे पूछने पर रमानाथ की बहुत-सी बातें जान पड़ेंगी, आज मैं वहीं रहूँगा, उनसे सब पूँछ पाँछ कर कल उसी ओर जाऊँगा, रमानाथ से भेट होना चाहिए, लिवा लाना मेरे हाथ है, मैं उनको तीन महीने के भीतर ही लेकर यहाँ पहुँचूँगा,तुम घबराना मत।
देवबाला बोली, मैं क्या कहूँ, जो तुम करते हो, उसमें मैं हाथ डाल नहीं सकती, जो हाथ डालूँ भी तो तुम काहे को मानोगे, मैं भी समझती हूँ भाई से बढ़कर इस धरती में अपना कोई दूसरा नहीं है, आप जावें, मैं आप को रोक नहीं सकती, पर मैं बड़ी अभागिनी हूँ, इसी से मेरा कलेजा धक्क-धक्क कर रहा है। यह कहकर देवबाला बहुत ही उदास और अनमनी हो गयी। पर देवनंदन ने उसको बहुत समझाया, ढाढ़स बँधाया, और इसके पीछे रामपुर की ओर पयान किया।
देवबाला के लिए फिर वही दिन रात आगे आये, पर उस के जी में यह बात बहुत उठा करती, क्या देवनंदन साधु हो गये? उसका भेस साधुओं का क्यों है? अपना ब्याह उन्होंने नहीं किया क्या? जब मैंने उनसे इन बातों को पूछा तो उन्होंने क्यों नहीं बतलाया? पर कोई ऐसी बात उसके जी में नहीं समाती थी जिससे उसका बोध होवे।