ठेठ हिंदी का ठाट / सातवाँ ठाट / हरिऔध
एक बहुत ही बड़ा टूटा, फूटा, गिरा पड़ा घर है, उसके पास दो जन घूम रहे हैं, एक वही बटोही और दूसरी वही दुख से बावली बनी तिरिया, उनके देखने से जान पड़ता है, वह दोनों जैसे कुछ खोज रहे हैं, थोड़ी बेर में उस दुखी तिरिया ने कहा मेरा जी ठिकाने नहीं, झूठे ही मैं इधर-उधर सिर मार रही हूँ, देखो दुआरा यही है, इसको खोलो, बटोही ने उसको खोला, दोनों भीतर गये। भीतर जाकर बटोही ने देखा एक अधगिरे घर में एक छोटी-सी खाट बिछी हुई है, उस पर चार बरस का एक फूल-सा लड़का लेटाया हुआ है, लड़का पहले बहुत सुन्दर रहा होगा, पर अब सूख कर काँटा हो गया है, अपने आप उठ तक नहीं सकता है, उस घड़ी उसकी साँसें चल रही थीं, और वह अधमरा हो रहा था। उसको देखकर वह तिरिया फिर फूट-फूट कर रोने लगी। बटोही ने कहा ठहरो, रोओ मत; मैं अभी इसको देखकर सब कुछ बतला देता हूँ, जहाँ तक मैं समझता हूँ यह बच जावेगा। इसके पीछे उसने अपनी झोली में से कोई औखद निकाली, लड़के के सिर, और छाती पर मला, फिर उसके हाथ पाँव को टटोल कर कहा, यह लड़का अभी अच्छा हुआ जाता है, तुम घबराओ मत, इसको और कोई रोग नहीं जान पड़ता, मैं सोच रहा हूँ भूख से इसकी ऐसी दसा हो रही है। यह कहकर उसने फिर कोई औखध निकाल कर लड़के को पिलाया, जिससे साँसों का चलना रुक गया। और लड़का करवट फेरकर सो रहा।
लड़के को कुछ अच्छा देखकर उस तिरिया को धीरज हुआ, वह अब कुछ सम्हली, उसका जी भी कुछ ठिकाने हुआ, इस लिए वह बटोही की ओर अचरज के साथ देखने लगी, बोली, आप कोई देवता हैं, नहीं तो मुझ ऐसी अभागिनी को इस धरती पर सहारा देनेवाला कौन हैं, चार बरस हुआ पती परदेस चला गया, आज तक न जान पड़ा, वह कहाँ हैं, क्या करते हैं, कैसे उनका दिन बीतता है, राम उनको सुख ही में रखें, पर यह भी नहीं जाना जाता,वह सुख में हैं, न जाने दुख में। खाने-पीने का ठिकाना तो बरसों से नहीं है। पर रहने का ठिकाना यही एक घर है, वह भी दिन-दिन गिर रहा है, समझती हूँ इस बरस की बरसात में यह न बचेगा। सब ओर से निरास तो थी ही, यही एक लड़का मुझ अभागिनी का सहारा है, आज उसकी भी बुरी दसा देख कर मैं आपे में न रही थी, जी बावला हो गया था, आधी रात को, इसको अकेले घर में छोड़ कर बैद के यहाँ भागी जाती थी, बीच ही में मेह आया, तब भी बढ़ती गयी, पर, अचानक फिसल कर ऐसी गिरी, जिससे कुछ घड़ी जहाँ की तहाँ पड़ी रह गयी। डोल हिल भी न सकी। पर जान पड़ता है भगवान को मुझ पर कुछ दया हुई, जो उन्होंने उस घड़ी आपको मेरी भलाई करने के लिए वहाँ भेजा। आप कोई देवता हैं, मेरा मन कहता है आप कोई देवता हैं,आपने मेरे लड़के का जी बचाया, जो लड़का मुझ निधनी का धन , मुझ कंगाल की पूँजी, मुझ दुखिया का सहारा है, उसका जी बचाया, यह काम देवता छोड़ मानुख का नहीं हो सकता, मैं समझती हूँ बिपत पड़ने पर किसी को सहारा देना मानुख का काम नहीं है।
इस दुखिया की इन बातों से बटोही का कलेजा मुँह को आ रहा था, आँख से टप-टप आँसू गिर रहे थे, मन-ही-मन वह मुरझा रहा था, बोला, बिपत पड़ने पर किसी को सहारा देना ही मानुख का काम है, जो दुखियों के दुख को नहीं जानता, पराई पीर से जिसका कलेजा नहीं कसकता, दुख में पड़े को जो नहीं उबारता, भूखों कंगालों पर जो नहीं पसीजता, वह मानुख नहीं पिसाच है। मैं देवता नहीं, एक छोटा मानुख हूँ, जिन औखधियों का गुन धरती पर सब जानता है, उसी के सहारे से इस घड़ी तुम्हारे लड़के का मैं कुछ भला कर सकता हूँ, मेरी इसमें कोई करतूत नहीं है। इतना कहकर वह थोड़ी बेर चुप रहा, फिर बोला, तुम को जो दुख न हो, मुझसे कहने में कोई अटक न हो, तो मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ?
अब तिरिया का जी बहुत ठिकाने हो गया था, पर न जाने क्यों वह अनमनी हो रही थी। एक-एक कर के कई बार उसने बटोही को देखा, उसकी बातों को सुना, उसकी बोली को परखा, और यही सब बातें ऐसी हुई हैं, जिससे वह अनमनी हो गयी है। पर अनमनी होने पर भी उसने बटोही की सब बातें सुनीं, और कहा, आप कुछ कहें पर मैं आपको देवता ही जानती हूँ, आप जो चाहें पूछें, मैं सब कहूँगी, मुझको कोई दुख न होगा। बिपत में पड़े हुए को उबारना ही जो अपना धरम समझता है, उससे अपनी बिथा कहने में किस को अटक होगी। बटोही ने कहा, मैंने आज तक तुमारे ऐसा दुखिया नारी आँखों नहीं देखी, तुम इतना क्यों दुखी हो, क्यों तुमारा घर इतना गिरा पड़ा है, क्यों तुमारे पास पहनने को कपड़ा नहीं है, खाने को अनाज नहीं है, पानी पीने के लिए पास लोटा तक नहीं है? पती जब से परदेस गया क्या तब से कोई चीठी भी तुमारे पास नहीं आयी?
वह बोली क्या कहूँ, इन सब बातों की सुरत होने से मेरा जी फिर बावला बन गया, फिर मैं पहले की भाँति दुखिया बन गयी, कलेजा फटता है, मुँह से बात भी नहीं निकलती, पर कहूँगी, आप से कहकर ही मैं अपने कलेजे के बोझ को हलका करूँगी। यह कहकर उसने एक ऊँची साँस भरी।
बटोही ने कहा, मैं समझता हूँ, तुमको अपनी पिछली बातों के कहने में बड़ा दुख होता है। ऐसी दसा में मैं भी उसको सुनना न चाहता, पर इसीलिए सुनना चाहता हूँ, क्या जाने मैं कोई ऐसा जतन कर सकूँ जिस से तुमारा दुख कुछ घटे। उसने फिर एक लम्बी साँस ली और कहा। मेरा ब्याह हुए पाँच बरस हुआ है, मैं ऐसी अभागिनी हूँ, जो ब्याह के छही महीने पीछे मेरे ससुर मर गये, घर का सब काम काज वही करते थे, उन्हीं की कमाई को हम लोगों को सहारा था, उनके मरते हीं हम लोगों के दुख का पार न रहा। पती, नारी का देवता है, वह कैसा ही क्यों न हो, पर तिरिया उसको अजोग और बुरा नहीं कह सकती, मैं भी अपने पती को बुरा नहीं कहती, और न वह बुरे हैं, पर हम लोगों के भाग की खुटाई से ऐसा संजोग हुआ। जिससे मेरे ससुर के मरने के पाँच ही छ महीने पीछे जो दस पाँच बीघा खेत था, वह बन्धक पड़ गया, घर में जो दस पाँच मन नाज था, वह सब उठ गया और दस पाँच थान गहने जो मेरे देह पर थे वह सब भी बिक गये। दिन बड़ी कठिनाई के साथ बीतने लगे, भूख बुरी होती है, जब कोई ब्योंत न रहा, तो घर की कड़ी और किवाड़ी तक बेंच दी गयी, पर ऐसे कितने दिन चल सकता है। उनको यह धुन समाई, मैं पूरब कमाने जाऊँगा, यह सुनकर मैं बहुत रोई, उनसे कहा, सब कुछ तो गया, अब आप भी आँखों के ओझल होंगे तो मैं कैसे जीऊँगी। बहुत कहने सुनने पर उन्होंने किसी भाँत मेरी बात मानी, पर बिपत के दिन टालने से नहीं टलते, इन्हीं दिनों इस लड़के का जन्म हुआ, एक दिन मेरी सास ने न जाने क्या उनसे लाने को कहा, पर वह कहाँ से लाते पास तो कुछ था ही नहीं, इस पर वह कुछ झुझलाई, यह बात उनको बहुत बुरी लगी, मैं उनसे मिल नहीं सकती थी, जो कुछ समझाती बुझाती। इसलिए दूसरे दिन मैंने सुना वह कमाने पूरब चले गये, मेरा भाग फूटा, मैं रोते-रोते बावली बन गयी, अब तक रोती हूँ, पर कोई आँसू का पोछनेवाला नहीं है, यह कहकर वह चिल्ला उठी और ढाढ़ मारकर रोने लगी।
बटोही के आँख से भी आँसू बह रहा था, हिचकी लग रही थी, पर उसने अपने को सम्हाला, और उस तिरिया को बहुत समझाया, समझाने से उसको भी बोध हुआ, वह फिर कहने लगी, आप समझते होंगे, मुझको इन बातों के कहने से दुख होता है, और इसी से मैं रो उठती हँ, पर नहीं, रोने ही से मेरा भला होता है, जो मैं रोती न, बावली हो जाती। पती का दुख भूली न थी, सास ने भी साथ छोड़ा, उनका कलेजा पती के मरने से चूर-चूर तो था ही बेटे का बिछोह फिर वह कैसे सहतीं, उन के पूरब चले जाने के बीस ही दिन पीछे वह भी मर गयीं, मैं इस धरती पर दुख भोगने के लिए अकेली रह गयी, न जाने मेरे प्रान कैसे हैं जो अब भी नहीं निकलते। अब मैं सब भाँत निरास हुई, खाने-पीने का कुछ ठिकाना न रहा, सूत कातकर दिन बिताने लगी। बड़े घर की बहू बेटी ठहरी, क्या करती, किसी के घर जाकर काम काज करने से बड़ों के नाम में बट्टा लगता। भीख माँग नहीं सकती, कौड़ी पास नहीं जो दूसरा कोई काम करती, फिर सूत कातकर दिन बिताने छोड़ मेरे पास कौन उपाय था। इस सूत के बेचने और रूई मोल लाने के लिए मैंने एक टहलुनी रखी थी,इस टहलुनी ने मेरे साथ जो किया, उसको मैं नहीं कह सकती, नारी हूँ लाज की बात कैसे मुँह पर ला सकती हूँ, पर हाय! क्या इस धरती पर बचकर चलने वाले ही को ठोकर लगती है! क्या पाप करने वाले सभी बुरे कामों को कर सकते हैं, उनको दुखियाओं के ऊपर भी दया नहीं आती!!! क्या कहँ, राम ऐसों का मुँह न दिखावें। जब मैंने देखा यह टहलुनी रहेगी तो मुझको अपना धरम निबाहने में बड़ी कठिनाई होगी तो मैंने उसको अपने यहाँ से निकाल दिया। पर ऐसा करके मैं बड़े झंझट में पड़ी, अब कौन सूत बेंचे, कौन रूई लावे, कौन मेरे पैसों का नाज ला दे, कौन मेरे दूसरे कामों को करे, इसका कुछ ठिकाना न रहा। पर राम ही बिगड़ी को बनाते हैं, मेरे पड़ोस में एक बूढ़ी बाम्हनी रहती हैं, उनसे मेरा दुख न देखा गया, तीन बरस से मुझ दुखिया की सहारा वही हैं, वही मेरा सब काम-काज कर देती हैं, उनको छोड़ मेरे घर में पखेरू पंख भी नहीं मारता। सच तो यह है, मेरे साथ अपने को कौन दुखिया बनावे, मुझको रोने छोड़ और कुछ आता नहीं, जो दिन रात रोया करता है, उसके पास कौन आता है। पाँच चार महीने से मेरी देह में रोग ने भी घर किया है, अब कुछ काम काज भी नहीं हो सकता, सूत भी नहीं कात सकती, इसी से दो-दो तीन-तीन दिन तक अन्न भी नहीं मिलता है, आप का कहना बहुत ठीक है, आप ने बहुत सोच कर कहा था, “भूख से इस लड़के की दसा ऐसी हो रही है।” अब मैं सोच रही हूँ, भूख ही से मेरा बच्चा इस दसा को पहँच गया है, पर क्या करूँ, सब गँवा सकती हूँ। धरम और लाज तो नहीं गँवा सकती!!! इस के ननिहाल में भी तो कोई नहीं रह गया, जो वहीं चली जाऊँ,चार बरस से मेरे माँ बाप की भी खोज नहीं मिलती, वह दोनों जन जब से जगरनाथ जी गये, फिर न फिरे, न जाने वह लोग कहाँ हैं, जीते हैं या मर गये,यह भी नहीं जान पड़ता, धरती तू क्यों नहीं फटती? जो मैं समा जाऊँ, क्या मुझ सी दुखिया को तू भी ठौर नहीं दे सकती। यह कह कर वह फिर रोने,कलपने लगी, और थोड़ी ही बेर में मुरझा कर धरती पर गिर पड़ी।