ठेठ हिंदी का ठाट / छठा ठाट / हरिऔध
आधी रात का समा, बड़ी अंधियाली रात, सब ओर सन्नाटा, इस पर बादलों की घेरघार, पसारने पर हाथ भी न सूझता। किसी पेड़ का एक पत्ता तक न हिलता। काले-काले बादल चुपचाप पूरब से पच्छिम को जा रहे थे। बयार दबे पाँवों उन्हीं का पीछा किये बहुत ही धीरे-धीरे चलती थी और कहीं कोई आता जाता न था, पखेरू पंख तक हिलाते न थे। सब साँस खींचे, चुप साधे, डरावनी रात से सन्नाटे को और डरावना बना रहे थे। पर तनक थिर होकर सुनने से सूनसान और सन्नाटे में भी किसी की दुख भरी रुलाई सुनाई पड़ती है। और इसी रुलाई को सुनकर ऐसे कठिन बेले में एक मानुख कान उठाये लम्बी डगों उसी ओर जा रहा है।
धीरे-धीरे काले बादल और काले हुए। अंधियाली और गहरी हुई, बिजली कौंधने लगी, धीमी-धीमी गरज होने लगी, सन् सन् बयार चलने लगी। पहले नन्ही-नन्ही बूँदें पड़ीं, पीछे बड़ी-बड़ी बूँदों से झिप्-झिप् पानी बरसने लगा।
बापुरे बटोही पर बड़ी कड़ी बीती, अब वह किधर जावे, जिस रुलाई के सहारे वह आगे बढ़ रहा था, वह अब बहुत जी लगाने पर भी सुन नहीं पड़ती थी, बयार की सनसनाहट, बादलों की गड़गड़ाहट, पानी पड़ने की धुम में, उसका सुनना उसके बस की बात न थी। पानी पड़ते-पड़ते जानेवाले के सब कपड़े भींग गये, देह ठण्डी पड़ गयी, बयार की झोंकों से कँपकँपी ने भी उस में घर किया, ओलती की भाँत माथे से पानी गिर गया था, आँख फाड़कर देखने पर भी कहीं कुछ सूझता न था। पर इन बातों की ओर उसका मन भूलकर भी नहीं जाता है, उसको सुरत लग रही है, तो इसी की, कैसे उस रुलाई को सुनूँ, कैसे उस ठौर तक पहुँचूँ। पर यह बात उसके हाथ से जाती रही, वह जितना जनत करने लगा, उतना ही पीछे पड़ने लगा। तौ भी घबराया नहीं,उसी कठिन अंधियाली में, उसी कठोर बरखा में, आगे बढ़ता गया। किधर जाता है, कहाँ जाता है, वह यह समझ तक नहीं सकता है, पर उसका जी उस से यही कह रहा है, अब ले लिया है, थोड़े कड़े और हो, जहाँ जाना चाहते हो, वहीं पहुँचे जाते हो।
महीना असाढ़ का था, थोड़ी बेर के लिए ही यह सब धुमधाम थी। देखते-ही-देखते आकास का काया पलट हो गया, पानी रुक गया, बयार धीमी हुई,बादल एक-एक करके जाते रहे, तारे निकले, पूरब ओर चाँद भी निकलता दिखलाई पड़ा, कुछ ही बेर में चाँदनी भी निकली। अब उस जाने वाले के जी में जी आया, कुछ धीरज भी हुआ। गीले कपड़े उसने देह से उतारे, उनको भलीभाँत गारा, देह को पोंछा, पीछे उन्हीं कपड़ों को पहन लिया। कान लगाकर सुना तो वह दुख भरी रुलाई भी सुन पड़ी, पर अब यह बहुत पास सुन पड़ती थी। वह फिर आगे बढ़ने लगा, पर ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था, कलेजा उसका टुकड़े-टुकड़े हुआ जाता था, रुलाई सही नहीं जाती थी। घबरा गया, पर तो भी एक परग पीछे न हटा, थोड़ी बेर में वहाँ जा पहुँचा।
देखा धरती पर पड़ी हुई एक सोरह बरस की तिरिया फूट-फूट कर रो रही है। सब कपड़े उसके भींग गये हैं, कीचड़ से देह भर गयी है, पर वह उसी भाँत कीचड़ में लोट रही है, उसी भाँत बिलख-बिलख कर रो रही है, आँखें मुँदी हैं, मूँ पर बाल बिखर रहे हैं, उनसे मोती की भाँत पानी की बूँदें टपक रही हैं। जाने वाला, कुछ घड़ी चुपचाप खड़ा रहा, उसकी दसा देख कर आँसू टपकाता रहा। पीछे उससे न रहा गया, बोला, “तुम कौन हो? क्यों इतना बिलख कर कीच में पड़ी रो रही हो? क्या तुम्हारा दुख मैं सुन सकता हूँ, सुनने पर इस दुख के हाथ से तुम को छुड़ाने के लिए जतन करूँगा।”
तिरिया कुछ न बोली, उसी भाँत बिलख-बिलख कर आँसू बहाती रही, उसी भाँत अपनी पुकार से पत्थर के कलेजे को पिघलाती रही। और उसी भाँत तड़प-तड़प कर कीचड़ पानी में लोटती रही।
जानेवाले ने कड़ी बोल से कुछ और पास जाकर कहा, “माँ! तुमारा दुख देखा नहीं जाता, कलेजा टूट रहा है, आँखों से चिनगारियाँ निकल रही हैं,धीरज हाथ से जाता रहा, मुझ बापुरे पर दया करो, आँखें खोलो, कहो कौन सा ऐसा दुख तुम पर पड़ा है, जो तुम इतना बिलख रही हो, जग में देह से बढ़कर कुछ प्यारा नहीं है, पर तुम्हारा दुख छुड़ाने में मेरी देह भी जाती रहेगी, तो मैं सह लूँगा।”
अब की बार इस की बोल उसके कानों पड़ी, उसने अपनी आँखों को खोला, बोली, “हमारा दुख ऐसा नहीं जो उसको कोई छुड़ा सके, राम जिसको दुख देते हैं, उसके लिए मानुख क्या कर सकता है, तुम क्यों हमारे दुख से दुखिया बनते हो, जहाँ जाते हो जाओ, हमारे भाग में यही लिखा है, जब तक जीयेंगी, इसी भाँति कलेजा कूटती रहेंगी।”
उसने कहा, “कोई दुख ऐसा नहीं है जो छूट न सके, राम किसी को दुख नहीं देते, उन्होंने कठिन-से-कठिन दुख के लिए भी जतन बनाया है, जतन करने से सब कुछ हो सकता है।”
वह बोली, “न सताओ, हमें जी भर कर रोने दो, हमारा दुख इसी से हलका होता है, दूसरा कोई उपाय हमारे लिए नहीं है, हमारे कलेजे का घाव पूरा नहीं हो सकता।”
उसकी इन सब बातों से जाने वाले की आँखों में पानी आता था, उसने आँसू पोछ कर कहा, “मैंने तुम को माँ कहा है, फिर कहता हूँ, माँ! जैसे होगा तुम्हारा दुख छुड़ाऊँगा, नहीं तो इस चार दिन के जीने से हाथ उठाऊँगा, तुमारे सामने यह टेक करता हूँ, साँस रहते इस टेक को निबाहूँगा, नहीं तो फूस की आग में जल मरूँगा।”
वह तिरिया इसकी बातें सुनकर भौचक बन गयी, बोली, “तुम कौन हो भाई! बिना समझे बूझे क्यों इतना हठ करते हो? अपना जी सब को प्यारा होता है, दूसरे के लिए अपने जी पर जोखों क्यों उठाओगे?”
वह बोला-”हम कोई होवें, पर विपत में पड़े को उबारना ही हमारा धरम है, इस माटी के पुतले के लिए इससे अच्छा कोई दूसरा काम नहीं हो सकता।”
यह सुनकर वह और अचरज में आयी, बोली “जो ऐसा ही है, तो आओ, हमारे पीछे आओ, पर जी कड़ा रखना, देखो मुझ दुखिया को और दुखिया न बनाना।”
यह कहकर वह उठी, और फटे, मैले, कपड़ों में अपने देह को छिपा कर एक ओर चली, जानेवाला भी उसी के पीछे उसी ओर चला गया।