ठेठ हिंदी का ठाट / पाँचवाँ ठाट / हरिऔध

Gadya Kosh से
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आज देवबाला ससुराल जा रही है, जिस दिन वह छिपकर फुलवारी में देवनंदन से मिली थी, उससे कुछ ही दिनों पीछे उसका ब्याह रमानाथ के साथ हुआ, आज तीसरा दिन है, देवबाला के बाप रमाकान्त उसका गौना करना चाहते थे, पर रमानाथ के बाप दयासंकर ने न माना, वह हठ करके देवबाला को लिए जाते हैं, दो घड़ी दिन आया है, अपने गाँव से एक कोस पर देवबाला की डोली आयी है, कहार सब उसको लम्बी डगों लिए जा रहे हैं, घर से चलते बेले देवबाला बहुत रोई है, अब तक रो रही है, पर धीरे-धीरे उसका दुख घट रहा है, डोली चलाकर कहार सब ज्यों-ज्यों उसकी जनमधरती को,उसके माँ बाप को, उसकी लड़कपन की सहेलियों को, पीछे छोड़ रहे हैं, वोंही वों उसका दुख भी पीछे पड़ रहा है, कुछ ही बेर में देवबाला का जी ठिकाने हुआ, वह कुछ सम्हली, पर इसी घड़ी उसकी आँखों पर एक जी लुभानेवाली, झलक नाचने लगी, पहले सुडौल गोरा-गोरा मुखड़ा देख पड़ा, फिर घुघुरारे बार, फिर बड़ी-बड़ी आँखें फिर मीठा मुसकिराहट, फिर ऊँचा चौड़ा माथा, फिर छरहरी डील, इसके पीछे ऐसा जान पड़ा किसी की प्यार भरी बातें कानों को सुन पड़ती हैं, कोई प्यार से कह रहा है देवबाला! देवबाला!! फिर क्या जान पड़ा, एक सुन्दर फुलवारी है, कहीं बेला फूला है, कहीं चमेली फूली है,कहीं पीले फूलों वाला गेंदा है, कहीं प्यारी-प्यारी नेवारी है, कहीं मोगरा है, कहीं चम्पा है, कहीं अनोखे फूल वाले हरसिंगार हैं, कहीं कचनार है, मैं उसमें खड़ी हूँ, फूल चुन रही हूँ, मन-ही-मन कुछ गा रही हूँ, इसी बीच उसी फुलवारी में धीरे-धीरे एक ओर से कोई आ रहा है, मैं उसको बड़े चाव से एक टक देख रही हूँ। एक दिन वह था जब देवबाला के सामने इस झलक का रखनेवाला घण्टों आकर खड़ा रहता, और वह फूली न समाती, एक दिन वह था जब वह सचमुच प्यारी-प्यारी बातों को सुनती, और रीझ-रीझ जाती, एक दिन था जब वह सच-ही-सच अपनी मनमोहने वाली फुलवारी में फूल चुनती फिरती, और उसकी एक ओर से अपने प्यारे को आता देखती, और उमंग से उछल-उछल पड़ती। पर आज देवनंदन की यह परछाँही की सी झलक, उसकी यह अनसुनी प्यार भरी बातें, यह धोखे की टट्टी की सी फुलवारी; उस में किसी का आना, देवबाला के जी को कुछ घड़ी के लिए बहुत ही दुखिया बनाने लगे। वह धीरे-धीरे अपनी प्यारी माँ अपने लाड़ प्यार करने वाले बाप सरग से भी भली जनम धरती से बिछुरने के दुख को कुछ भूल रही थी, अचानक इस बड़े दुख ने आकर उसके मन को घेर लिया, वह बहुत ही घबराई, बावली बन गयी। पर कुछ ही बेर में वह सम्हली, सोचने लगी, यह क्या!!! मैं दूसरे की तिरिया होकर दूसरे किसी की सूरत कैसे कर रही हूँ! क्या यह पाप नहीं है। बाम्हन की लड़की होकर हेमलता की कोख में जनम लेकर, हिन्दूनारी की मरजादा को जान कर, हिन्दुस्तान के पौन पानी से पलकर, बड़े घर की बहू बेटी कहलाकर, जो दूसरे पुरुख की परछाँही भी मेरे कलेजे में धंसती है;झलक भी आँखों में समाती है, तो क्या यह डूब मरने की बात नहीं है! आग में जल जाने की बात नहीं है!! पहाड़ से गिर कर काया के चूर-चूर कर डालने की बात नहीं है!!! छी:! छी!! छी!!! इससे बढ़कर भी कोई पाप है? फिर उसने सोचा, यह सब पचड़ा कैसा! बाप भाई की सुरत करना, उनकी झलक का आँखों के साम्हने आ जाना, कैसे पाप होगा! देवनंदन को भी तो मैंने बड़ा भाई माना है, फिर जो उसकी सुरत हो गयी तो इतना कुढ़ने की कौन बात है! धरम की दोहाई देने, पाप-पाप करने का कौन काम है। जिस घड़ी देवबाला इन सब बातों में उलझी हुई थी, उसने जाना कहार सब उसकी डोली को किसी ठौर रखना चाहते हैं, थोड़ी ही बेर में कहारों ने उसकी डोली एक ठौर उतारी। उसने थोड़ा ओहार हटा कर देखा, एक बहुत बड़े पोखरे की दूसरी ओर उसकी डोली उतारी गयी है, दोपहर हो गया है, और उसके साथ के सब लोग नहाने-धोने और खाने-पीने में लग रहे हैं।

देवबाला पोखरे की छटा देखने में लगी। उसने देखा उसमें बहुत ही सुथरा नीले काँच ऐसा जल भरा है, धीमी बयार लगने से छोटी-छोटी लहरें उठती हैं, फूले हुए कौंल अपने हरे-हरे पत्तों में धीरे-धीरे हिलते हैं। नीले आकास और आस-पास के हरे फूले, फले, पेड़ों की परछाँही पड़ने से वह और सुहावना और अनूठा हो रहा है। सूरज की किरनें उस पर पड़ती हैं, चमकती हैं, उसके जल के नीले रंग को उजला बनाती हैं, और टुकड़े-टुकड़े हो जाती हैं। आकास का चमकता हुआ सूरज, उसमें उतरा है, हिलता है, डोलता है, थर-थर काँपता है, और फिर पूरी चमक दमक के साथ चमकने लगता है। मछलियाँ, ऊपर आती हैं, डूब जाती हैं, नीचे चली जाती हैं, फिर उतराती हैं, खेलती हैं, उछलती हैं, कूदती हैं। चिड़ियाँ ताक लगाये घूमती हैं, पंख बटोर कर अचानक आ पड़ती हैं, डूब जाती हैं, दो एक को पकड़ती हैं, और फिर उड़ जाती हैं। कोई तैरता है, कोई नहाता है, कोई कपड़े फींचता है, कोई अंजुलियों में भर-भर कर उसके पानी से अपनी प्यास बुझाता है। गाय बछड़े पानी पीते हैं, बटोही सब घाट पर बैठे खा-पी रहे हैं। इन्हीं खाने-पीने वालों में से एक ने कहा, 'डोली उठाओ' देवबाला ने सुना, चौंक पड़ी, सम्हल कर बैठ गयी।

इसी बीच कहारों ने डोली उठाई, और फिर उसको चलाने लगे। देवबाला की ससुराल उसके नैहर से आठ कोस पर थी। दो घड़ी दिन रहे उसकी डोली वहाँ पहुँची, पर अभी बहुत लोग पीछे थे, दयासंकर भी पीछे ही थे, इसलिए डोली गाँव के पास एक अमराई में उतारी गयी। पहले गाँव में से एक लड़की आयी, फिर एक टहलुनी आयी, उसके पीछे एक और आयी, इसी भाँत कितनी आयीं; चहल-पहल मच गयी। वहाँ देवबाला की सास अपने घर के दुआरे पर गाँव की बहुत सी सुहागनों के साथ जमी गीतें गा रही थी। छोटे-बड़े सबके जी में उमंग भरा था। इसी बीच फिर डोली उठी, दुआरे पर आयी,देवबाला की सास दूसरी सुहागनों के साथ उसको डोली से उतार कर भीतर ले गयी। कहारों ने मुँह माँगी उतराई पाई।

पतोहू को घर में लिवा लाकर कुल की रीतियों के करने पीछे सास ने उसका मुँह गाँव घर की कितनी जनी को दिखाया। देवबाला को जो देखती वही मोह जाती। मैंने उनमें से दो एक को कहते सुना था, 'रमानाथ की उस जनम की अच्छी कमाई रही है, जो उसको ऐसी सुघर घरनी मिली है।” दो एक को मैंने चुपचाप बातें करते भी सुना था, उनमें से एक ने कहा था, “जीजी! दुलहिन के मुँह जोग बर नहीं है।” दूसरी ने कहा था, “रमानाथ तो उस के पाँवों का धोअन भी नहीं है।”