ठेठ हिंदी का ठाट / चौथा ठाट / हरिऔध

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आज देवबाला छिपकर फुलवारी में आयी है, डबडबायी आँखों घबरायी हुई इस पेड़ तले उस पेड़ तले घूम रही है। कभी रोती है, कभी आँचल से आँसुओं को पोंछ डालती है। न जाने मन-ही-मन क्या सोचती है, कैसी-कैसी बातें उसके जी में समा रही हैं, जिससे उसका मन थिर नहीं होता है। इतने में उसकी आँखें फूल की उन पंखड़ियों की ओर गयीं, जो अपने पौधों के पास कुम्हलाई हुई धरती पर पड़ी थीं, उनको देखकर उसके जी में बहुत सी बातें समाईं। उसने सोचा, “इस धरती पर सुख ही नहीं दुख भी हैं, अभी दो दिन की बातें हैं, यह पंखड़ियाँ कैसी हँस रही थीं, इनमें कैसी सुघराई थी, कैसा अनोखापन था, कैसी जी लुभानेवाली छटा थी। पर आज न वह हँसी है, न सुघराई है, न वह अनोखापन है, न वह छटा। आज वह कुम्हला गयी हैं, सूख गयी हैं, मुरझाई हुई धरती पर पड़ी हैं। जग का यही ढंग है, सब दिन एक सा नहीं बीतता, फिर जिस पर जो पड़ता है, उसको वह भुगतना होता है,होनहार अपने हाथ नहीं, मानुख सोचता और है, होता और है, घबराने से क्या होगा, जो भाग में लिखा है मिटने का नहीं, फिर धीरज क्यों न करें,बावली हो होकर कहाँ तक मरें।” इसी भाँति उसने और भी बहुत सी बातें सोचीं, पर उसके मन को ढाढ़स न होता था। कुछ बेर तक धीरज करके वह थिर, बिना घबराहट, और बहली हुई जान पड़ती। पर कुछ ही बेर में वह फिर घबराई, उदास और बावली बन जाती। जिस घड़ी उसका मन इस भाँत डाँवा डोल था, उसने फुलवारी की एक ओर से देवनंदन को अपनी ओर आते देखा।

देवनंदन धीरे-धीरे उसके पास आया, धीरे-धीरे अपनी आँखें उठाकर उसकी ओर देखा, पीछे दोनों एक पेड़ के नीचे बैठ गये। कुछ घड़ी दोनों चुप रहे,मन-ही-मन न जानें क्या-क्या सोचते रहे। फुलवारी में सब ओर सन्नाटा था, बयार ही धीरे-धीरे चलकर पत्तों को खड़खड़ाती थी, कभी-कभी कोई चिड़िया कहीं बोल उठती थी, नहीं तो और किसी भाँत फुलवारी का सन्नाटा न टूटता था। इससे बढ़कर सन्नाटा इन दोनों पर छाया था, हाथ-पाँव तक न हिलता था, आँख की पलक भी न पड़ती थी। पर कुछ ही देर में देवबाला चौंक पड़ी, इस भाँत चुपचाप बैठे रहना उसको भला न जान पड़ा, अब झुटपुटा भी होने लगा था, इसलिए उसने जी कड़ा करके कहा, देवनंदन तुम जानते हो, तुम को आज हमने यहाँ क्यों बुलाया है?

देवनंदन-क्यों बुलाया है देवबाला?

देवबाला-यह कहने को, तुम हमको भूल जाओ!

देवनंदन-क्यों?

देवबाला-क्या यह भी कहना होगा, क्या सब बातें तुम ने नहीं सुनी हैं?

देवनंदन-हाँ! हमने सब बातें सुनी हैं, पर क्या इसीलिए तुम को भूलना होगा, चाह के भी तो कितने ढंग हैं, माँ बाप की चाह क्या बेटे के साथ निराली नहीं होती, बहिन भाई का आपस का नेह क्या नेह में नहीं गिना जाता? तुम मुझसे छोटी हो, क्या मैं छोटी बहिन की भाँत तुम को प्यार नहीं कर सकता?क्या धरती में यह नाता भी अनोखा नहीं है! क्या मानुख के लिए निरास होने से किसी आस का होना अच्छा नहीं है?

देवबाला ने देखा, यह कहते-कहते देवनंदन की आँखें थिर हो गयीं, मुँह पर धीरज दिखलाई देने लगा, और घबराहट का नाम तक उसमें न था।

देवबाला ने एक ठण्डी साँस भरी, कहा, देवनंदन! तुम्हारी बातों को सुनकर मुझे बहुत ढाढ़स हुआ। मेरे कलेजे का बोझ बहुत हलका हो गया, आप का धीरज, आप की भलमनसाहत, सराहने जोग है, मुझको तुम से इन बातों को सुनने की आस न थी, मैं तुमको समझाना चाहती थी, पर तुमारी बातों ने मुझ को आप समझा दिया।

देवनंदन-क्यों देवबाला! क्यों तुम्हें मुझसे इन बातों के सुनने की आस न थी, क्या मैं बाम्हन का बेटा नहीं हूँ? क्या मैं हिन्दू के घर में नहीं जनमा हूँ?क्या मैं धरम की मरजादा नहीं जानता, क्या धरम मुझको प्यारा नहीं है? क्या हिन्दू की बेटी माँ-बाप जो कहें वह न करके दूसरा कर सकती है? क्या हम लोग बड़ों की चाल छोड़ सकते हैं? क्या माँ बाप जो कहें उसको सिर झुका कर मान लेना ही हम लोगों का धरम नहीं है? क्या अपने बड़ों की मरजादा हम लोग बिगाड़ सकते हैं? कभी नहीं!!! फिर क्यों न ऐसी बातें हम कहें। देवबाला जिस दिन मैंने सुना, तुमारा ब्याह रमानाथ के साथ ठीक हुआ है, उसी दिन मैंने यह सब सोच लिया था, खटका यही था, कहीं तुमारे जी को ऐसा होने से कड़ी चोट न पहुँचे, पर भगवान की दया से मेरी यह खुटक जाती रही,अब अपना दिन मैं बहुत सुख से बिताऊँगा।

देवबाला ने कहा, देवनंदन जाओ, भगवान तुम्हारा भला करें, जो तुमने मुझको समझा है वही समझ कर मुझको भूलना न! अब मैं यह न कहूँगी तुम मुझको भूल जाओ। मैं भी तुमको अपना भाई समझती रहूँगी।

देवनंदन उठकर खड़ा हुआ, जाना चाहता था, इतने में देवबाला ने फिर कहा, तनिक ठहरो, कुछ और कहूँगी।

देवनंदन-क्या कहोगी देवबाला! कहो!!

देवबाला-यही कहती हूँ, अपना ब्याह करना!

देवनंदन-यह तुमने क्यों कहा देवबाला?

देवबाला-न जाने क्यों मेरे जी में अचानक यह बात आयी, इसीलिए मुझको तुमसे यह बात भी कहनी पड़ी, मुझको पूरा भरोसा है, तुम मेरी बात मानोगे।

देवनंदन कुछ बेर चुप रहा, फिर कहने लगा, देवबाला इस बीच में तुम कुछ न बोलो, मैं क्या करूँगा, ठीक नहीं कह सकता, मानुख के बस में कुछ नहीं है, वह खेलाड़ी जो नाच चाहता है, नचाता है, हमने सोचा था कुछ और, हुआ कुछ और, अब फिर सोचें कुछ और, हो कुछ और, तो इससे न सोचना ही अच्छा है, ऐसी बातें तुम न छेड़ो, इससे मेरा जी बहुत दुखता है, भगवान के लिए ऐसी बात कहने के लिए तुम अपना मुँह फिर न खोलना।

देवबाला-मैं आपका जी दुखाया नहीं चाहती, जिस बात के सुनने से आपको दुख होगा, वह मैं कभी न कहूँगी, पर अचानक मैं ऐसा क्यों कह पड़ी, मैं यह आप नहीं समझ सकती हूँ, भगवान ही के हाथ सब कुछ है, यह आप बहुत ठीक कहतेहैं।

इतना कहते-कहते देवबाला की आँखों में आँसू भर आया, इस बात को देवनंदन ने भी देखा, पर उसने धीरज को हाथ से जाने न दिया था। इसीलिए बात फेर कर कहा, देवबाला! अंधेरा हुआ जाता है, क्या जानें घर तुमको कोई खोजे, इसलिए अब तुम जाओ, भगवान तुम्हारा धरम बनाये रहे। इसके पीछे देवबाला ने आँख पोंछ कर देखा, पर देवनंदन को वहाँ न पाया।