ठेठ हिंदी का ठाट / तीसरा ठाट / हरिऔध
रामकान्त के चले जाने पर हेमलता कुछ घड़ी वहीं बैठी रही, पीछे वहाँ से उठी आँगन में आयी, जी बहलाने के लिए इधर-उधर टहलने लगी, पर जी न बहला, आँखों में आँसू आते, धीरे-धीरे उनको वह पोंछ देती, रह-रह कर जी में घबराहट होती, उसको भी वह दबाना चाहती, पर न आँख के आँसुओं ने माना, और न जी की घबराहट ही ने पीछा छोड़ा। वह सोचती “हाय! क्या से क्या हुआ जाता है; मेरी बहुत दिनों की आस, मेरा बहुत दिनों का भरोसा,सब धूल में मिला जाता है। मनाने से वह मानते नहीं, वह हठी हैं मैं जानती हूँ, जितना मैं उनको समझाऊँगी उरद के आटे की भाँति वह ऐंठते जावेंगे। फिर क्या करूँ, कैसे बात बने।” यही सब सोचते-सोचते उसका जी बहुत घबराया, आँख के आँसुओं ने भी झड़ बाँध। इसलिए वह आँगन से निकल कर घर की फुलवारी में आयी; कभी बेले, कभी चमेली, कभी दूसरे फूल के पौधों के पास घूमने लगी। जी कुछ ही बहला था, अचानक एक गीत से उसकी पीर और बढ़ गयी। गीत यह था।
गीत
>मान जा भँवर कही तू मेरी।
भूल न रस लै इन फूलन को पैयाँ लागत तेरी।
तोरि तोरि इनहीं को गजरा अपने हाथ बनैहों।
अपनावन को पहिनि गरे मैं मनवारे को दैहों।
कितने फूलन बारे यामें नहिं तेरो बिगरै है।
पै माने इतनी ही बतिया छतिया मोर सिरैहै।
कुछ ही बेर में उस ने यह दूसरा गीत भी कलेजा पकड़े हुए सुना।
गीत
>भौंर तू कही न मानी बात।
बेर बेर इनही फूलन पै आइ आइ मंडरात।
भौंरी कही मानती मेरी तू तो है मतवारो।
कानन पारि न सुनत याहि ते नेको बैन हमारो।
अरे ढीठ कारे मतवारे कहै क्यों न का पैहै।
आइ आइ मेरे फूलन को जो बिगारि तू जैहै।
अब की बार वह न रह सकी, भीतर के दुख और पछतावे से बावली सी बन गयी। पर इसी बीच उस ने यह तीसरा गीत फिर सुना, जिस से उसका मन एक दूसरी ही ओर गया।
गीत
भँवर अब कहा खिजावत मोही।
दौरत फिरत सु क्यों मो पाछे कहा भयो है तोही।
जानि गयी मैं रूसि गयो तू सुनि कै बतिया मेरी।
साँची है कछु सुनन, गुनन की अहै बानि नहिं तेरी।
लखि तेरे औगुन हठ एरे चुप साधे ही रहिहौं।
जा, बजमारे अब मैं तो सों भूलि कछू नहिं कहिहौं।
एक एक करके इन गीतों को फूल तोड़ते हुए देवबाला ने गाया था इसलिए पहले हेमलता का जी देवबाला के भोलेपन की ओर गया, रुलाई में हँसी आयी, पीछे वह सोचने लगी, जो बड़ों की भली चाल को छोड़ता है, वह कभी अच्छा नहीं करता, भले-मानसों की चाल है, वह अपने पाँच सात बरस की लड़की को भी लड़कों से मिलने-जुलने नहीं देते। मिलने-जुलने से ही हेलमेल होता है, हेलमेल ही से लगन लगती है। पर मैंने बड़ों की चाल छोड़ी, अपनी मनमानी बूझों के सहारे, देवबाला और देवनंदन के आपस के हेलमेल को न रोका, इसी से आज देखती हूँ देवबाला के जी में देवनंदन के नेह ने घर किया है। जिससे एक बहुत बड़ी बुराई होनी चाहती है, क्योंकि अब देवनंदन के साथ देवबाला के ब्याह की कोई आसा नहीं है। देवबाला को इस से कितनी पीड़ा, कितनी बिथा, कितना दुख होगा, सभी समझ सकता है। इस से मैं डर रही हूँ, ऐसा न होवे, जो देवबाला अपने जी पर खेले। भगवान तुम मुझ को बचाओ, मैंने जो बुराई की है, उस के लिए मैं देखती हूँ मुझे बहुत कुछ झेलनी होगी। जिस देस में लड़की अपना ब्याह आप नहीं कर सकती, जिस देस में माँ बाप के हाथों ही निबटारा है, उस देस के लिए यह पुरानी चाल कितनी अच्छी है, जो लड़की लड़कों का सब भाँत का मेल रोका जावे, लड़कपन ही से इस देस के भलों की लड़कियाँ ओट में रहना सीखती हैं, उसका कारण यही है, जिस में उनके जी में किसी का नेह घर न करने पावे। पर मैंने अपने हाथों सब बात बिगाड़ी है, जान बूझकर बुरा किया है, इस से भलाई के मग में काँटे पड़ें तो कौन अचरज है।
हेमलता इसी उधेड़बुन में थी, इसी बीच देवबाला के कानों में किसी के पाँव की चाप पड़ी, उस ने फिर कर देखा, हेमलता कुछ मन-ही-मन सोचती उसी की ओर आ रही है। इससे वह कुछ लजाई, कुछ डरी, आँचल के फूल को जहाँ खड़ी थी, वहीं डाल दिया, पर जो दो-चार फूल उस के हाथों में थे,उसको न फेंका, सोचा फेंकने से माँ को खुटक होगी, इससे इनका हाथों ही में रहना अच्छा है। अब हेमलता पास आ गयी थी, देवबाला भी अपनी ठौर से बहुत कुछ आगे बढ़ आयी थी। लाज और डर से देवबाला सिर ऊँचा न करती थी, वह जी में सोच रही थी, जो माँ ने मेरे गीतों को सुना होगा, तो अपने जी में क्या कहती होगी। इतने में हेमलता ने कहा, देवबाला तू ने ये फूल क्यों तोड़े हैं?
देवबाला-माँ! क्या फूल नहीं तोड़ते?
हेमलता-क्यों नहीं तोड़ते, पर तू फूल लेकर क्या करेगी, फिर साँझ को कोई फूल तोड़ता है!
देवबाला-अच्छा! अब न तोडूँगी।
हेमलता-हाँ! अब मत तोड़ियो। और देवबाला तू अब सयानी हुई, इससे देवनंदन से भी अब तू न मिला कर, क्योंकि ऐसा करने से लोग हँसेंगे,भलेमानसों की यह चाल नहीं है।
देवबाला कुछ डरी। कुछ अचरज में आयी, उससे कुछ बोला न गया। वह घबराई हुई आँखों से अपनी माँ के मूँ की ओर देखने लगी।
इस से हेमलता को बड़ी बिथा हुई, पर उसने अपने जी की छिपाकर, कहा, क्यों देवबाला, बोलती क्यों नहीं, इतनी घबराई क्यों?
देवबाला-माँ, घबराई तो नहीं, पर क्या बड़ों की सब बातों ही को सुनकर कुछ कहना पड़ता है।
हेमलता ने देखा इन बातों के कहते-कहते उस का मुंह गम्भीर हो गया, आँखें थिर हो गयीं, और घबराहट की वह पहली बातें जाती रहीं। वह अचानक उस का यह ढंग देखकर डरी, फिर कुछ न बोली, चुपचाप पहले की भाँति उधेड़बुन में लगी हुई घर की ओर चली, देवबाला भी उसी के पीछे-पीछे घर आयी। आज वह देवनंदन से न मिल सकी।
इसके कुछ दिनों पीछे रमानाथ के साथ देवबाला का ब्याह ठीक हो गया, चढ़ावा भी चढ़ गया। धीरे-धीरे गाँव के सब लोगों के साथ इस बात को देवबाला और देवनंदन ने भी जाना।