तीन तारे / हिमांशु जोशी / पृष्ठ 2

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1 वे तीन साथी थे। दो सफेद खरगोश-से मासूम, और एक नटखट बन्दर सा अदना। तीनों नन्हें-मुन्ने तुतला-तुतलाकर मीठे-मीठे स्वर में बोलते। मिल-जुलकर रहते, जैसे तीनों पक्के साथी हों-तीन तन, एक प्राण।

गब्बू, नब्बू और टिन्कू था उन तीनों का नाम।

गब्बू का रंग गोरा था-दूध के झाग की तरह सफेद।

कान खरगोश के जैसे लम्बे-लम्बे, बड़े मुलायम बड़े खूबसूरत ! वैसा ही सुन्दर, सुगठित आकार-प्रकार भी था। स्वभाव भी समुद्र की तरह शान्त, गम्भीर। लड़ना-झगड़ना या गाली देना जैसे सीखा ही नहीं। बड़े धीरज के साथ हर किसी की बातें सुनता लड़कपन की शैतानी तो मानो छू भी नहीं गई थी।

ठीक उसी के जैसा उसका छोटा भाई नब्बू था। उमर में छोटा पर सूज-समझ में बहुत आगे। चौबीस, घंटे चुपचाप बड़े भाई के पीछे छाया की तरह लगा रहता, जैसे राम-लक्ष्मण की जोड़ी हो।

और उन दोनों का निराला साथी था टिन्कू।

देखने में बच्चा, पर अकल का बूढ़ा था। लोग कहा करते कि उसके पेट में दाढ़ी है। हिरन के बच्चे की-सी आंखें थीं उसकी। मेमने की तरह निश्छल मुखड़ा। मैना की जैसी मीठी बोली थी। वाकई टिन्कू हर तरह से टिन्कू था। उसकी अटपटी, मीठी बातें हर किसी का मन हर लेतीं।

न वह किसी से लड़ता-झगड़ता, न किसी को गाली देता। शैतान बच्चों से हमेशा दूर रहता। अकसर वह अपनी बूढ़ी नानी से परियों की कहानियां सुनता, या मोटे-मोटे अक्षरों में छपी बाघ-भालू आदि जानवरों की किताबों के पन्ने पलटता, या फिर गब्बू-नब्बू के साथ खेलता। बस, सारे दिन यही उसका काम था।

बचपन से ही उसे चूहों, बिलौटों, पिल्लों, चूजों, खरगोशों और गधों आदि से विशेष प्यार था। उनके साथ वह खिलौनों की तरह खेला करता। ये जिन्दा खिलौने उसे बेहद पसन्द थे। उसकी नानी उसे इसीलिए जिन्दा खिलौनों का राजकुमार कहकर चिढ़ाती थी। धीरे-धीरे वह उनकी बोली भी समझने लग गया था।

रोज शाम के समय हरे-भरे मैदान में वह जा पहुंचता खूंटे से खुले बछड़े की तरह कुलांचें भरता, सीधा गोली की तरह चलकर वहीं रुकता, जहां गब्बू-नब्बू लम्बे इन्तजार से खके-ऊंघते खड़े होते।

टिन्कू घुल-घुल कर उनसे बातें करता। नानी के दिए बिस्कुट तीन बराबर-बराबर हिस्सों में बांटता। देखते-देखते पटर-पटर तीनों सब हजम कर जाते। बाकी जो चूरा बचता उसको पुड़िया में बांध उनके लम्बे लम्बे कानों में खोंस देता, ताकि कल सुबह नाश्ते के समय काम आ सके।

गब्बू-नब्बू के कान खरगोश के कानों से मिलते-जुलते थे। रुई के फाहे की तरह मुलायम और सफेद। उन पर हाथ फेरने में टिन्कू को बड़ा मजा आता। मन ही मन वह सोचता-काश, भगवान ने उसके भी ऐसे कान बनाए होते। मक्खियों को भगाने के लिए ऐसी ही पूंछ होती। जूतों को रोज पहनने-उतारने की मुसीबत से बच जाता, अगर उसके जूते भी उनकी ही तरह पांवों में जनम से ही जुड़े रहते, जो न कभी फटते हैं, न घिसते-टूटते। फीता बांधने की भी जरूरत नहीं। मोची से पालिश कराने की भी आवश्यकता नहीं।

‘ये सचमुच कितने खुशनसीब हैं !’ टिन्कू सोचता।

लेकिन, एक दिन उसे बहुत बड़ा धक्का लगा, जब पता चला कि ये दोनों बेचारे इतना सब कुछ होते हुए भी गरीब हैं, बहुत गरीब।

‘‘गब्बू-नब्बू भैया, तुम भी गरीब हो न ?’’ मैदान में घूमते-घूमते एक बार टिन्कू ने पूछ लिया।

‘‘गरीब क्या बला है ?’’ गब्बू ने अपने कान खड़े कर अचम्भे से पूछा।

‘‘अरे, तुम नहीं जानते ! हमारे घर में तो छोटे-बड़े सभी जानते हैं। कल हमारे यहां रात को एक आदमी दरवाजे पर आया था जाड़े से ऐंठता हुआ। हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता हुआ कह रहा था, ‘‘कोई फटा-पुराना कपड़ा दे दो। एक टुकड़ा रोटी दे दो। चार दिन से भूखा हूं, नंगा हूं।’

‘‘मैं उस अजनबी को देखते ही भागता-भागता अपनी नानी के पास पहुंचा। ‘नानी, यह कौन है ?’ मैंने पूछा।

‘‘नानी ने जवाब दिया, ‘‘बेचारा गरीब है।’

‘‘ ‘गरीब क्या होता है, नानी ?’ मैंने फिर प्रश्न किया।

‘‘नानी ने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने फिर पूछा। जब तक नानी ने उत्तर नहीं दिया, मैं लगातार पूछता रहा। उसके आंचल को दोनों हाथों से खींचे खड़ा रहा। नानी ने झुंझलाकर कहा, ‘बावले, गरीब क्या होता, तुझे क्या बतलाऊं ?’

‘‘ ‘कुछ तो होगा ही, नानी !’ मैंने हठ करके पूछा।

‘‘ ‘अरे, गरीब उसे कहते हैं, जिसके पास खाने पीने को नहीं होता। नानी समझती हुई आगे बोली, ‘रहने को उसके पास मकान नहीं होता। पहनने को कपड़ा नहीं होता। समझ गया न ?’

‘मैं तब सोचता रहा, सोचता रहा। बिस्तरे पर लेट कर भी सोचता चला गया। तुम्हारे बारे में जब विचार आया तो मुझे बड़ा दुःख हुआ। मैंने तुम्हें कभी भी अपनी तरह कपड़े पहने नहीं देखा, बिस्तरे पर सोते नहीं देखा, खाते नहीं देखा।

‘‘मैं सोचते-सोचते न मालूम कब सो गया। नींद में मैंने देखा कि तुम दोनों हमारे दरवाजे पर हाथ जोड़ते हुए गिड़गिड़ा रहे हो : ‘हमें भी कपड़ा दो, खाना दो’।

‘‘तब सपने में ही दौड़ता दौड़ता मैं नानी के पास पहुंचा।’’ टिन्कू कहता चला जा रहा था अपनी धुन में और वे दोनों खामोश सुनते जा रहे थे।

‘नानी ! नानी !’ मैंने पुकारा, ‘सुन तो, दो गरीब फिर आये हैं दरवाजे पर !

‘‘नानी दरवाजे तक आई और मुझ पर गुस्से से उबल पड़ी, ‘मूर्ख कहीं का !’ और यह कहकर अन्दर चली गई। इतने में उछल-कूद नाम का हमारा नौकर आया और तुम पर पिल पड़ा।’’

उसने दोनों साथियों के चेहरों की ओर देखा और फिर बोला, ‘‘सच गब्बू, मैं तब रोया, खूब रोया नानी से झगड़ पड़ा, ‘तुम कहती हो गरीबों पर दया करो ! सब मिलकर प्रेम से रहो, प्रेम से खेलो, प्रेम से खाओ ! फिर तुमने बेचारों को डण्डे से क्यों पिटवाया ?’ और मैं सचमुच रो पड़ा।

‘‘नानी का दिल पिघल आया। मुझे पुचकारती हुई बोली, ‘अरे, पगले रोता क्यों है ? तू तो खुद समझदार है। अपनी अकल से जो ठीक समझे कर। आगे कुछ नहीं कहूंगी।’

‘‘इतना कहना काफी था। आंसू पोंछता हुआ, मैं फिर खिलखिला उठा। भागता हुआ तुम दोनों को ढूंढ़ लाया।’’

‘‘बक्स में से फिर अपने सारे कपड़े निकाले। तीन हिस्से किए और बराबर-बराबर बाँट लिये। फिर तुम दोनों हमारे गुसलखाने में साबुन से खूब नहाये। शैम्पू से सिर धोया और फटे मुंह पर क्रीम लगाई। साफ सुथरे कलफ लगे कपड़े पहने, और फिर नानी के साथ हम सब ने खूब भर पेट खाना खाया। चाकलेट खाई। बर्फी खाई। टाफियां खाईं। तुम्हें सब याद है न, गब्बू ?’’ टिन्कू ने बड़ी उत्सुकता से पूछा।

वे दोनों गुमसुम अब तक टिन्कू के भोले-भाले चेहरे की ओर टकटकी बांधे, लार टपकाते, खुली आंखों से देखते चले जा रहे थे। तभी टिन्कू की आखिरी बात सुनकर गब्बू जैसे नींद से जागा और गरदन हिलाता हुआ बोला,

‘‘नहीं-नहीं ! सपने की बात भी कहीं सच होती है !’’

‘‘वाह !’’ टिन्कू उछल पड़ा, ‘‘कैमरा होता तो सपने में ही फोटो खींच लेता और इस समय हाथ में नचाता हुआ दिखलाता। फिर तो सच मानते न !’’

तीनों साथी फिर देर तक चुपचाप टहलते रहे। टिन्कू को यही अफसोस हो रहा था कि क्यों नींद में उसने फोटो नहीं खींचा। तभी सन्नाटा भंग करता हुआ, कुछ सोचकर वह बोला,

‘‘भैया, तभी तुझे ख्याल आया कि भगवान् ने तुम्हें गरीब बनाया है, तुम्हारे शरीर पर कपड़े-लत्ते तो मैंने कभी देखे नहीं।’’ वे दोनों भाई चुप कान हिलाते रहे।

‘‘तुम खाना क्या खाते हो, गब्बू-भैया ?’’ टिन्कू ने फिर पूछा।

‘‘यहीं इधर-उधर घास चर लेता हूं। कभी तुम क्रीम लगे बिस्कुट खिलाते हो तो बड़ा भला लगता है लार टपकने लगती है अपने-आप। वैसे मालिक तो बस मालिक ही है। वह कुछ देता नहीं। हमारी दीदी भी नहीं देती कुछ एक आध बार पत्थर कंकड़ मिले सूखे चने चबाकर दांत तोड़े थे। लेकिन, इधर तो उसके भी दर्शन नहीं होते।’’ गब्बू ने उदास स्वर में कहा।

‘‘हम तीनों साथी एक उम्र के हैं। एक से स्वभाव के हैं। मित्र हैं। फिर तीनों एक साथ एक समान रहते, तो कितना अच्छा होता ! लेकिन हम रहते नहीं। क्यों नहीं रहते एक समान ?’’ टिन्कू ने गब्बू-नब्बू की ओर देखा।

अपने लम्बे कान फटकारता हुआ गब्बू बोला, ‘‘अपनी समझ में तो कुछ आता नहीं !’’

‘‘अच्छा, तू बता, नब्बू भैया ! कारण क्या होगा ?’’

नब्बू ने अपनी हमेशा की आदत के अनुसार धीमी आवाज में कहा, ‘‘कुछ तो कारण होगा ही दद्दू ! नहीं तो तुममें और हममें इतना फर्क होता ही क्यों ? कहां तुम इतनी शान-शौकत से रहते हो। खीर-पूड़िया उड़ाते हो। दूध के गिलास पर गिलास गटकते हो एक सांस में। रेशम के पलंग पर उछलते हो। गलीचों पर कूदते हो। और दूसरी और हैं, हम, जो जहां-तहां मैदानों में, धूल में, सड़कों पर पड़े रहते हैं। लोगों की उस पर भी झिड़कियां और डण्डे सहते हैं। खीर हलवे की कौन कहे, घास तक भी कभी कभी सूंघने को नहीं मिलती।’’

‘‘लेकिन, यह तो बतलाओ’’, गाल पर हाथ धरता हुआ टिन्कू बोला, ‘‘आखिर यह सब क्यों है ? मेरी समझ में तो आता नहीं !’’

‘‘तुम भी छोटे हो न हमारी तरह।’’ नब्बू ने उत्तर दिया, ‘‘छोटों की समझ में बड़ी बात कैसे आ सकती है ? अच्छा, आज रात हम घर जाकर अपनी दादी से पूछेंगे। किसी पास-पड़ोस के और दाने-सयाने से पूछेंगे। देखें क्या बतलाते हैं वे।’’

घूमते-घूमते बड़ी देर हो गई उनको। थकान भी कुछ कुछ महसूस होने लगी। अब चारों ओर ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी। देवदारु के पेड़ों की ओट में बड़ा थाल-सा चांद उझक-उझककर झांक रहा था। वे तीनों सामने बहती नदी के किनारे हरी मुलायम दूब पर बैठ गए।

कतार बांधे तीनों चांद की ओर, हरे-भरे मैदानों की ओर, चांदी से चमकीले पहाड़ों की ओर, पिघले पारे की तरह चमचमाते पानी की ओर टुकुर-टुकुर देख रहे थे। अन्त में तीनों खुशी से झूमते हुए अपना वही पुराना परियों का गीत गुनगुनाने लगे :

फूल सब के लिए खिलता है,

झरना सब के लिए हंसता है;

पानी सब के लिए बहता है,

चांद सबके लिए उगता है !

फिर, हम सब एक से क्यों नहीं ?

एक से क्यों नहीं ?

एक से क्यों नहीं ?

तीनों ऊंची आवाज में मंत्रमुग्ध से तान अलापे जा रहे थे। अपनी धुन में इतने मस्त थे कि उन्हें दीन-दुनिया की कुछ भी खबर न रही।

इतने में पीठ पर गीले कपड़ों का गट्ठर लादे, हाथ में डण्डा थामे, भागता हुआ एक आदमी आया। गब्बू-नब्बू की पीठ पर तड़ातड़ लाठी धुनकने लगा बड़ी निर्दयता से। दोनों बिदक कर भागें इससे पहले ही उसने दोनों के लम्बे-लम्बे कान पकड़ लिये और घसीटता हुआ घाट की ओर ले चला।

दूसरी ओर से उछल-कूद आया। प्यार से पुचकारते हुए टिन्कू को पीठ पर लाद कर घर की ओर लपका। तीनों हैरान थे; यह एकाएक क्या हो गया; किसी की समझ में न आया।