दीवाना-ए-आज़ादी: करतारसिंह सराभा / भाग-12 /रूपसिंह चंदेल
रात का अंधकार चारों ओर फैला हुआ था। आसमान में भयानक घटाएं उमड़-घुमड़ रही थीं। रह-रहकर बिजली चमक जाती थी। उस दिन कोलम्बों शहर में दिन भर वर्षा होती रही थी। वह नवंबर की एक तारीख थी। रात बारह बजे के बाद वर्षा की गति मंद हो गई थी। केवल हल्की-हल्की फुहार पड़ रही थी। हवा में मधुर शीतलता थी। आधी रात के बाद की बात थी। 'एस.एस. सलामिनी' समुद्र की छाती पर तैरता हुआ तीव्र गति से कोलम्बो बंदरगाह की ओर बढ़ रहा था।
रात दो बजे के लगभग जहाज कोलंबों पहुंचा। पता चला कि वह वहाँ से एक दिन बाद कलकत्ता के लिए रवाना होगा। सराभा ने अपने दोनों साथियों से कहा, "क्यों न हम सभी यहीं उतर लें और कलकता नहीं, बल्कि मद्रास के रास्ते पंजाब पहुंचे।"
"मद्रास किसलिए करतार?" पिंगले ने पूछा।
"दक्षिण की ओर सरकार को अधिक खतरा नहीं है—मद्रास के रास्ते हम बिना परेशानी के पंजाब पहुंच जाएगें।"
"तुम्हें रास बिहारी बोस दा से नहीं मिलना?"
"मिलना है।"
"यह पहले ही तय हो चुका था कि हमें सीधे कलकता पहुंचना है और बोस दा से मिलकर निर्देश लेने हैं।" सत्येन सेन बोले।
"हुंह" करतार सिंह सराभा कुछ देर सोचते रहे, फिर बोले, "आप सही कह रहे हैं। बोस दा से मिलने के लिए हमें अधिक समय नहीं गंवाना चाहिए. मद्रास होकर जाने से बहुत समय नष्ट हो जाएगा। बोस दा को उत्तर भारत के अनुभव हैं—क्षमा करना आप दोनों—मैं ग़लत सोच रहा था।"
अगले दिन जहाज कोलंबों से कलकत्ता की ओर बढ़ चला था।
करतार सिंह सराभा, पिंगले और सत्येन सेन को आशंका थी कि बन्दरगाह में जबर्दस्त छानबीन होगी। उन तीनों के पास आपत्तिजनक सामग्री के रूप में गदर के ५ अगस्त के अंक के अन्य अंक भी थे। उन्होंने उन अंकों को कपड़ों में इस प्रकार छुपा दिया था कि बहुत उलट-पलट करने के बाद ही वे अंक पुलिस के हाथ लगते, लेकिन सभी क्रान्तिकारी इतने सतर्क न थे। उनतीस साथियों को छोड़कर शेष साथी सकुशल पुलिस को चमका देकर बन्दरगाह से बाहर निकल आए, लेकिन वे उनतीस पकड़े गए. उन लोगों के पास गदर की प्रतियां नहीं थीं, लेकिन पुलिस ने उन्हें संदेह के कारण 'भारत रक्षा कानून' के तहत गिरफ्तार कर लिया। छान-बीन में वे पुलिस को सही उत्तर नहीं दे पाए थे। एक ही समय उन्होंने पुलिस को दो प्रकार के उत्तर दिए. सरकार को गदर के ५ अगस्त के अंक की सूचना बहुत पहले ही मिल चुकी थी, जिसमें देश के लोगों को अंग्रेज़ी सरकार के विरुद्ध उठ खड़े होने का आह्वान किया गया था। वैसे भी गदर का हर अंक ब्रिटिश सरकार के हाथ लगता था और इस प्रकार करतार सिंह सराभा, लाला हरदयाल, सोहन सिंह आदि की उसे तलाश थी। अमेरिका में वह उन्हें गिरफ्तार नहीं कर पा रही थी, लेकिन उसे यह आशा थी कि एक न एक दिन वे भारत अवश्य आएगें।
पुलिस ने गिरफ्तार २९ क्रान्तिकारियों से गहन पूछताछ की। उन्हें यातनाएं दी गईं—उनसे सराभा, सोहन सिंह और अमेरिका में रहने वाले दूसरे क्रान्तिकारियों के विषय में पूछा, लेकिन वे कच्ची मिट्टी के बने न थे। सबको एक ही बात समझायी गयी थी कि प्राण भी चले जाएं, लेकिन वे किसी भी साथी के विषय में कुछ नहीं बताएंगे। यही कहेंगे कि वे उन्हें नहीं जानते। वे सीधे-सादे मजदूर हैं, जो धन कमाने के लिए अमेरिका गए थे।
एक भी क्रान्तिकारी ने मुंह नहीं खोला। पुलिस की मार से उनके पैर के तलवे सूझ गए. वे चलने-फिरने योग्य नहीं रहे। उनकी दाढ़ी-बाल नोंचे गए—क्योंकि उनमें सभी सिख थे, लेकिन सिख वह क्या जो टूट जाए. गुरु गोविन्द सिंह ने इसलिए सिख धर्म नहीं चलाया था कि उसकी शपथ लेने वाला दुश्मन के सामने घुटने टेक दे। चार क्रान्तिवीर मार नहीं झेल पाए और अस्वस्थ हो गए. पुलिस ने पहले उन्हें एक ओर पड़े रहने दिया, लेकिन जब उनकी तबीयत अधिक बिगड़ने लगी, वे उन्हें अस्पताल ले गए. उन्हें वहाँ छोड़कर वे दूसरों पर अत्याचार करने के लिए वापस लौट गए. पुलिस कप्तान के निर्देश थे कि किसी को भी छोड़ा न जाए. उसे आशंका थी कि उतनी बड़ी संख्या में सिखों का एक साथ बन्दरगाह में उतरना खतरे का कारण हो सकता था। जो लोग बाहर निकल जाने में सफल रहे थे उनमें भी अधिकांश सिख ही थे। कप्तान को सिखों से खतरा लगने लगा था और उसने आदेश दिया था कि शहर में रहने वाले सिखों को छोड़कर जो भी सिख मिले उसे गिरफ्तार कर लिया जाए. परिणामस्वरूप एक सौ से अधिक सिख गिरफ्तार कर लिए गए, लेकिन छान-बीन से पता चला कि वे सब कलकत्ता में रहने वाले व्यवसायी थे।
कप्तान बौखलाया अपने बड़े-से हाल नुमा कमरे में टहलता रहा। उसे यह लग रहा था कि निश्चित ही उस जहाज से आने केवल उनतीस अमेरिकी ही नहीं थे अधिक थे और उसकी पुलिस की लापरवाही से वे निकल चुके थे। वह एक अंग्रेज कप्तान था। उसका क्रोध इतना भड़का कि उसने बन्दरगाह में तैनात आठ पुलिस वालों को बर्खास्त करके उन्हें गिरफ्तार करने के निर्देश तक दे डाले।
करतार सिंह सराभा, पिंगले और सत्येन सेन को यह जानकारी प्राप्त हो चुकी थी कि उनके उनतीस साथी गिरफ्तार किए जा चुके थे। सराभा ने सभी साथियों को कहा था कि वे सब जैसे भी हो पंजाब पहुंचे। पंजाब पहुंचने के बाद वह सबसे सम्पर्क कर लेंगे। उन्होंने सभी के स्थायी पते ले लिए थे।
सत्येन सेन, पिंगले और सराभा को अपने परिचित अमन मजूमदार के घर ले गए, जहां पुलिस के पहुंचने की संभावना न थी। शहर में पुलिस की छानबीन जारी थी और सराभा और उनके साथियों को चिन्ता थी कि वे रासबिहारी बोस से कैसे मिलेंगे। यह काम सत्येन सेन ने अमन मजूमदार पर छोड़ा।
अमन मजूमदार पैंतालीस साल के मझोले कद के गोरे, गठे बदन के व्यक्ति थे। सदा सिल्क का क्रीम रंग का कुर्ता और धोती पहनते थे। उन्हें गैर जानकार अंग्रेजों का पिट्ठू समझते थे जबकि उनका वास्तविक रूप कुछ और ही था। उन्होंने दोपहर तीनों को सूचित किया रास दा कलकत्ता में नहीं बनारस में हैं।
"अब?" सराभा के मुंह से निकला।
"चिन्ता न करें" अमन मजूमदार ने कहा, "मैं उनके नाम किसी क्रान्तिकारी का पत्र प्राप्त करने का प्रयास करूंगा। कई लोग हैं मेरे जानकार। यह संयोग है कि जतिन बाघा इन दिनों यहीं हैं। बड़े क्रान्तिकारी हैं। मैं आज ही उनसे रास दा के नाम एक पत्र प्राप्त करने का प्रयास करूंगा। रास दा उनका बहुत सम्मान करते हैं।"
"जतिन मुखर्जी बड़े क्रान्तिकारी हैं—-उनसे मिलना नहीं हो सकता?" सराभा ने इच्छा व्यक्त की।
"आप लोगों को एक-दो दिन रुकना पड़ेगा।"
"रुक लेंगे। जतिन दा जैसे महान क्रान्तिकारी के दर्शन बिना यहाँ से जाना मन को कचोटता रहेगा।"
मैं उनसे आप लोगों को मिलवाने का आज ही प्रयास करूंगा और तभी आप लोग उनसे रास दा के नाम पत्र ले लेना। "
"यह अच्छा होगा दादा।" सत्येन सेन ने कहा।
अमन मजूमदार कोठी से बाहर निकल गए.
"हमें वैसे भी आज यात्रा नहीं करना चाहिए. कल तक पुलिस का खतरा कम हो जाएगा। कल रात की गाड़ी से बनारस के लिए निकलना सही होगा।" सराभा ने कहा।
तीनों पलंगो पर लेटकर आराम करने लगे।