दीवाना-ए-आज़ादी: करतारसिंह सराभा / भाग-13 /रूपसिंह चंदेल
जतिन मुखर्जी बंगाल के क्रान्तिकारियों में एक बड़ा नाम था। उनका जन्म नादिया जिले (अब बांग्ला देश) के कुश्तिया सबडिवीजन के कायाग्राम नामक गांव में ७ दिसम्बर, १८७९ में हुआ था। उनकी माँ का नाम शरात्शशी और पिता का नाम उमेश चन्द्र मुखर्जी था। जब वह पांच वर्ष के थे उनके पिता की मृत्यु हो गयी थी। माँ एक कवयित्री थीं और अपने बच्चों के पालन पोषण पर विशेष ध्यान देना चाहती थीं, इसलिए वह पिता के पैतृक गांव में रहीं।
१८९५ में इंट्रेस की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात जतिन मुखर्जी ने कलकता के सेण्ट्रल कॉलेज (अब खुदीराम बोस कॉलेज) में फाइन आर्ड्स में प्रवेश लिया। साथ-साथ वह मिस्टर अत्किन्सन से स्टेनो टाइपिंग का प्रशिक्षण भी लेने लगे। यह उन दिनों एक ऎसी नयी योग्यता प्रचलन में आयी थी, जिससे नौकरी मिलने में आसानी होती थी। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही वह विवेकानंद के प्रभाव में आए और उनके पास उनके प्रवचन सुनने जाने लगे। वह उनके शिष्य बन गए. उन्हीं दिनों उनका परिचय विवेकानंद की आयरिश शिष्या भगिनी निवेदिता से हुआ। निवेदिता भारत में अंग्रेजों के अत्याचार से बहुत दुखी रहती थीं और प्रायः जतिन मुखर्जी की इस विषय पर उनकी बातें होती रहती थीं।
एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जे.ई. आर्मस्ट्रांग के अनुसार, "बंगाल के क्रान्तिकारियों के बीच जतिन मुखर्जी का बहुत सम्मान था। इसके दो कारण थे—उनकी नेतृत्व क्षमता और दूसरा उनका उस समय तक ब्रम्हचारी रहना।" उन दिनों कम आयु में ही लड़कों और लड़कियों की शादी कर दी जाया करती थी, लेकिन जतिन मुखर्जी ने तब तक विवाह नहीं किया था। उस अधिकारी ने आगे लिखा, "जतिन मुखर्जी केवल और केवल क्रान्ति के विषय में ही सोचते थे।"
जतिन मुखर्जी की क्षमताओं को भांपकर विवेकानंद ने उन्हें अंबू गुहा के जिमनेजियम में जाने की सलाह दी, जहां वह स्वयं पहलवानी के अभ्यास के लिए जाया करते थे।
१८९९ में जतिन मुखर्जी मुजफ्फरपुर चले गए, जहां बैरिस्टर पिंगले केन्नेडी के सचिव बने। १९०० में उन्होंने कुश्तिया के उपजिला कुमारखाली की इन्दुबाल बनर्जी से विवाह किया। उनके चार बच्चे हुए. उनके बड़े पुत्र अतीन्द्र की मृत्यु से आहत होकर पत्नी और बहन के साथ आत्मिक शांति के लिए वह हरिद्वार गए जहां भोलानंद गिरि से उन्होंने दीक्षा ली। गिरी को अपने शिष्य की क्रान्तिकारी गतिविधियों की जानकारी थी और उन्होंने उन्हें उस कार्य में पूरा सहयोग का भरोसा दिया।
मार्च, १९०६ में जतिन मुखर्जी गांव कोया लौटे। उन दिनों गांव में बाघ का जबर्दश्त आतंक फैला हुआ था। कई लोग उसका शिकार बन चुके थे। जतिन मुखर्जी ने बाघ से दो-दो हाथ करने का निर्णय किया। गांव के लोग उनके इस निर्णय से भयभीत हो उठे, लेकिन वह अपनी जिद पर अड़े रहे। उन्होंने गोरखों द्वारा प्रयोग में लायी जाने वाली खुखरी हासिल की और जंगल में बाघ को खोजने निकल पड़े। गांव के कुछ साहसी युवक उनसे साथ चले, लेकिन उन्होने सभी को कुछ दूरी बनाकर चलने का निर्देश दिया। उनकी बात न मानने का साहस किसी में नहीं था।
बहुत खोज के बाद बाघ घने पेड़ों के झुरमुट में पड़ा आराम कर रहा था। दो दिन हो चुके थे उसे शिकार किए हुए. दो दिन पहले उसने गांव के एक किसान की बकरी का शिकार किया था। जतिन मुखर्जी के चलने से जमीन पर बिछे पेड़ों के सूखे पत्तों से खर-खर की आवाज हुई तो बाघ ने जमीन पर मुंह रखे हुए ही आंखें उठाकर सामने आ रहे व्यक्ति को देखा। पहले तो वह गुर्राया, लेकिन सामने खुखरी उठाकर चला आ रहा व्यक्ति जब नहीं रुका तो वह उठ खड़ा हुआ और दहाड़ा। गांव के युवक एक क्षण के लिए दूर ही ठिठक गए, लेकिन जतिन मुखर्जी रुकने के लिए नहीं गए थे। वह गए थे उसे मारने और जब तक बाघ संभलता, मुखर्जी ने दौड़कर उस पर खुखरी से प्रहार कर दिया। बाघ उछल गया, लेकिन खुखरी का वार उसकी पीठ पर तब तक हो चुका था और फिर क्या! दोनों में युद्ध शुरू हो चुका था। गांव के युवक दूर से उस युद्ध को दम साधे देख रहे थे।
बाघ उछलकर मुखर्जी को अपने जबड़े में लेने का प्रयास करता रहा और उसके परिणामस्वरूप उसके पंजों से मुखर्जी का शरीर लहू लुहान होता रहा, लेकिन वह खुखरी के तेज प्रहार उस पर करते रहे। अंततः बाघ शिथिल होकर धरायाशायी हो गया। उसे मार लेने के बाद मुखर्जी भी धराशायी हो गए. गांव के युवकों में ड़कंप मच गया। वे उन्हें उठाकर गांव ले गए. उन्हें किसी प्रकार कलकत्ता पहुंचाया गया, जहां डॉ। कर्नल सुरेश प्रसाद सर्बाधिकारी ने उनका इलाज किया। शरीर में लगे बाघ के नाखूनों से उनके शरीर में जहर फैल गया था, लेकिन डॉ। सर्बाधिकारी के प्रयासों से जतिन मुखर्जी स्वस्थ हो गए. बंगाल सरकार ने उनकी बहादुरी से प्रभावित होकर उन्हें सम्मानित किया और उन्हें बाघा जतिन कहा जाने लगा।
उस घटना के बाद जतिन मुखर्जी पूरी तरह से क्रान्ति को समर्पित हो गए. अंततः उड़ीसा के जंगलों में चार साथियों के साथ उनकी पुलिस से मुठभेड़ हुई. उनके साथी चित्रप्रिय राय चौधरी मारे गए. जतिन मुखर्जी और जतीश घायल हुए और मनोरंजन सेन गुप्ता और निरेन गिरफ्तार कर लिए गए थे। बाद में १० सितम्बर, १९१५ को बालासोर में जतिन मुखर्जी अर्थात बाघा जतिन की मृत्यु हो गयी थी और देश ने आजादी का स्वप्न देखने वाला एक और क्रान्तिकारी खो दिया था।
अमन मजूमदार जतिन मुखर्जी से मिलने का समय तय करके लौट आए थे। तय हुआ था कि रात आठ बजे सभी उनसे मिलेंगे। जतिन दा मानिकतल्ला के एक मकान में रह रहे थे और कुछ क्रान्तिकारियों को बम बनाने की शिक्षा दे रहे थे।
उसी शाम साढ़े सात बजे अमन मजूमदार की कोठी से बंद बग्घी में तीनों क्रान्तिकारी जतिन मुखर्जी से मिलने के लिए निकले। तीनों से मिलकर जतिन दा अत्यंत प्रसन्न हुए. सत्येन सेन ने पिंगले और सराभा का परिचय बंगाली में करवाया। सत्येन ने जब कहा कि वे तीनों सीधे अमेरिका से पंजाब और अन्य राज्यों में सैनिकों और जनता में बगावत पैदा करने के लिए आए हैं तब जतिन मुखर्जी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा था। वह स्वयं भी तो यही कार्य कर रहे थे। कितनी ही छावनियों में घूम-घूमकर उन्होंने सैनिकों को बगावत के लिए शिक्षित किया था।
रात देर तक तीनों को शिक्षा देते रहे थे जतिन मुखर्जी. लौटते समय उन्होंने रासबिहारी बोस के नाम पत्र लिखकर दिया जिसमें लिखा कि वह तीनों युवकों से मिले हैं और उन्हें भलीभांति परख लिया है। तीनों देश की आज़ादी के लिए अमेरिका से चलकर आए हैं। उनकी वह यथा संभव सहायता करें और अपना मार्गदर्शन उन्हें दें।
तय हुआ कि पिंगले और सराभा अगले दिन बनारस के लिए निकल जाएगें। सत्येन सेन कुछ दिन कलकता में रुकना चाहते थे। वह १५९, बहू बाज़ार स्ट्रीट में रुक गए और सराभा और पिंगले ने बनारस जाने के लिए प्रस्थान किया।
हावड़ा से बनारस जाने वाली गाड़ी का पता किया गया। गाड़ी रात में नौ बजे हावड़ा स्टेशन से जाती थी। लेकिन जिस प्रकार शहर में पुलिस सक्रिय थी उससे हावड़ा स्टेशन जाना सराभा के लिए निरापद नहीं था। अगले दिन भी संभावना थी कि पुलिस अमेरिका से आने वाले क्रान्तिकारियों की तलाश में रहेगी। मजूमदार ने सलाह दी कि वे तीनों को वह बीस मील दूर स्टेशन पहुंचवा देगें, जहां बनारस जाने वाली गाड़ी रुकती थी। वह एक व्यवसायी बंगाली भद्र पुरुष थे। समाज में उनकी प्रतिष्ठा थी। उनके घर की स्त्रियां प्रायः उस बग्घी में क्लब जाया करती थीं। दार्जिलिंग में उनके चाय बागान थे। कलकत्ता के सम्मन्न लोगों में उनकी गिनती थी। अंग्रेजों के साथ उनके मधुर सम्बन्ध थे। प्रायः वह अंग्रेज अधिकारियों को अपने यहाँ दावतें दिया करते थे। उनकी बग्घी की भी एक पहचान थी, जिसे कभी भी कोई पुलिस वाला नहीं रोकता था।
अमन मजूमदार का दूसरा रूप क्रान्तिकारियों के साथ सम्बन्ध बना रखना और उनकी सहायता करना था। व्यवसाय के लिए उन्हें अंग्रेजों के साथ मिलकर रहना पड़ता था, लेकिन वह देश की आजादी के लिए निरन्तर सोचने वाले व्यक्ति थे। 'देश आजाद होगा तो हमें किसी की चाटुकारिता की आवश्यकता न होगी। निश्चिंत और निरापद व्यवसाय कर सकेंगे।' वह सोचते थे। उनके महलनुमा कोठी में जब तब क्रान्तिकारियों को शरण मिलती रहती थी—क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिए वह धन भी देते थे।
योजनानुसार शाम छः बजे सराभा और पिंगले अमन मजूमदार की बग्घी में हावड़ा से बीस मील दूर स्थित स्टेशन के लिए निकले। शहर में जगह-जगह लैंप पोस्ट जल उठी थीं। अँधेरा नीचे उतर आया था। अमन मजूमदार की बग्घी तीनों क्रान्तिकारियों को तेजी से उस स्टेशन की ओर लेकर जा रही थी, जहां से उन्हें बनारस की गाड़ी पकड़नी थी। आसमान पर परिन्दे अपने बसेरों की ओर लौट रहे थे और सड़कों पर पुलिस वाले गश्त कर रहे थे, लेकिन किसी ने भी बग्घी को नहीं रोका।
दोनों सुरक्षित जब स्टेशन पहुंचे रात का अँधेरा घना हो चुका था। लेकिन दोनों को यह आशंका भी थी कि उनके उनतीस साथियों की गिरफ्र्तारी से बौखलाया पुलिस कप्तान शांत शायद ही बैठा हो। उसने उन स्टेशनों में भी जासूस भेज दिए होंगे। बग्घी को स्टेशन से दूर झाड़ियों की झुरमुट में रोका गया। अँधेरा इतना घना था कि किसी को भी यह आभास नहीं मिल सकता था कि वहाँ कोई गाड़ी खड़ी थी। बग्घी की रोशनी बंद कर दी गई थी। बग्घी लेकर आने वाले व्यक्ति को पैसे देकर बनारस की दो टिकट खरीद लाने के लिए सराभा ने भेजा और यह भी ताकीद की कि वह स्टेशन में घूमकर यह देखे कि कोई पुलिस वाला या सादी वर्दी में कोई जासूस जैसा दिखने वाला व्यक्ति तो वहाँ नहीं था।
कुछ देर बाद वह व्यक्ति टिकट लेकर लौट आया। गाड़ी के वहाँ पहुंचने में केवल पन्द्रह मिनट का समय था। दोनों साथी बग्घी से बाहर आए और स्टेशन के मुख्य द्वार की ओर से न जाकर घूमकर प्लेटफार्म में पहुंचे और अंधेरे में दीवार की ओट लेकर खड़े हो गए. बग्घी वाले व्यक्ति ने लौटकर बताया था कि वहाँ स्टेशन मास्टर, दो कुली के अलावा उसे केवल एक परिवार बैठा दिखा था, जिसमें एक बच्च्चा और पति-पत्नी थे। फिर भी तीनों आश्वस्त न थे। जासूस या सिपाही स्टेशन मास्टर के कमरे में बैठा हो सकता था। एक से अधिक लोग भी हो सकते थे।
वह एक छोटा स्टेशन था, जहां कुछ ही गाड़ियां रुकती थीं। मेन गेट में लोहे का छोटा-सा गेट था, जिसे उछलकर फांदा जा सकता था। केवल दो बत्तियां जल रही थीं, एक स्टेशन मास्टर के कमरे में और दूसरी प्लेटफार्म में। ये बत्तियां किरोसिन तेल से जलाई जाती थीं। दूसरी ओर का फ्लेटफार्म निपट अंधेरे में डूबा हुआ था, जहां एक मालगाड़ी के डिब्बे दिखाई दे रहे थे।
लगभग आध घण्टा की प्रतीक्षा के बाद छुक-छुक—छक-छक करती धुंआ उड़ाती हांफती-सी ट्रेन प्लेटफार्म में प्रविष्ट हुई. उसकी गति इतनी धीमी थी कि दोनों मित्रो ने उछलकर एक खुले डिब्बे में चढ़ जाना उचित समझा। चढ़ते ही वे जगह बनाते हुए आगे बढ़े और यह संयोग था कि उन्हें अपने सामने की सीटें खाली मिल गयीं। डिब्बे में यात्री कम थे। दोनों ने कंबल निकाले, जिन्हें लेकर वे अमेरिका से ही आए थे और सीटों पर बिछा लिए, जिससे यह लगे कि वे हावड़ा से यात्रा कर रहे थे।
रास्ते में ट्रेन कई घण्टे लेट हो गयी। दूसरी रात प्रारम्भ हो गयी। ट्रेन का आधी रात बनारस पहुंचना निश्चित था। बनारस पहुंचने से काफी पहले करतार सिंह को अहसास हुआ कि पुलिस लोगों के सामान की छानबीन कर रही थी। उन्होंने पिंगले की ओर इशारा करके पूछा कि क्या करना चाहिए. पिंगले ने सामने बैठे व्यक्ति से पूछा कि बनारस वहाँ से कितनी दूर होगा, उसने कहा कि सही अंदाजा तो नहीं है, लेकिन बीस मील तो होगा ही। पुलिस के तीन जवान पिछले स्टेशन में उस कंपार्टमेण्ट में आ गए थे और एक-एक मुसाफिर की चेकिंग कर रहे थे। सराभा ने समय नष्ट नहीं किया और सामान समेटने लगे। पिंगले को भी एक मिनट में सामान समेट लेने के लिए अंग्रेज़ी में कहा। दोनों ने सामान समेटा और दरवाजे की ओर बढ़ गए. डिब्बे में उस ओर अँधेरा था। वे गाड़ी का दरवाजा खोलकर खड़े हो गए. ठंडी हवा ने दरवाजा खोलते ही उनका स्वागत किया। सराभा ने समय नष्ट न करते हुए ट्रेन रोकने के लिए चेन खींच दी। सीटी बजाती धीमी होती ट्रेन रुकने लगी। दोनों साथियों ने ट्रेन रुकने की प्रतीक्षा नहीं की। वे धीमा होते ही उससे कूद गए और अंधेरे का लाभ उठाते कुछ दूर निकलकर झाडियों में अपने को छुपा लिया।
ट्रेन रुकते ही उस डिब्बे से ही नहीं बल्कि अन्य डिब्बों में चेकिंग कर रहे पुलिस वाले नीचे कूद गए. उन्हें दो लोगों के कूदने का तो एहसास था, लेकिन वे किधर गए यह वे समझ नहीं पाए. फिर भी सभी पुलिस वाले टार्च की रोशनी में दोनों को खोजने की असफल कोशिश करते रहे। दो पुलिस वाले ड्राइवर को तब तक ट्रेन न चलाने के लिए रोके रहे जब तक सभी पुलिस वाले ट्रेन में चढ़ नहीं गए. सराभा और पिंगले दम साथे झाडियों में छुपे रहे। उनके पास से एक सियार दो बार आया-गया और कुछ दूर जाकर वह हुआने भी लगा, लेकिन वे दम साधे चुप बैठे रहे। पुलिस वाले उनके निकट तक जाकर अंततः लौट गए.
ट्रेन जाने के काफी देर बाद दोनों ने झाड़ी के पास की पगडंडी पकड़ी। तब तक आसमान में चांद निकल आया था, जिससे उनका मार्ग बहुत सुगम हो गया था।
"हमे पगडंडी के रास्ते नहीं चलना चाहिए." पिंगले ने कहा।
"तुम सही कह रहे हो।"
"हमें रेलवे लाइन के साथ आगे बढ़ना चाहिए. सुबह तक हम किसी ऎसे स्टेशन पर पहुंच जाएगें जहां से बनारस के लिए ट्रेन मिल सके."
वे रेलवे लाइन के साथ चलने लगे। लगभग एक मील चलने के बाद उन्हें जंगल में एक चिराग टिमटिमाता दिखाई दिया। सभी उधर ही बढ़े। निकट पहुंच कर देखा कि वहाँ एक कुटी बनी हुई है। कुटी के बाहर एक साधु बैठा हुआ था और कुछ लोग उसे घेरे बैठे थे। साधु उन्हें कुछ समझा रहा था। करतार सिंह और उनके साथी भी चुपचाप वहाँ जाकर बैठ गए. साधु का व्याख्यान रुक गया। पूछने पर करतार सिंह सराभा ने संक्षेप में मनगढ़न्त कहानी सुना दी कि वे सभी रास्ता भटक कर जंगल में आ फंसे हैं।
"सरदार जी तुम सच बात छुपा रहे हो। क्या पुलिस से बचने के लिए इधर आ गए हो?" करतार सिंह की ओर संकेत करके साधु बोले।
करतार सिंह को लगा कि वास्तविकता छुपाना व्यर्थ है, क्योंकि वह यह समझ रहे थे कि साधु को सच बताने से शायद हानि न होगी। उन्होंने सच घटना बता दी। सुनकर साधु का मुख प्रसन्न हो उठा। बोले, "बेटे, मैं समझ रहा था। यह अच्छा हुआ—यहां जिन लोगों को तुम देख रहे हो, ये लोग भी आज़ादी के दीवाने हैं।"
"महाराज, क्या मैं आपका परिचय जान सकता हूँ।"
"बेटे, परिचय की क्या आवश्यकता? क्या इतना पर्याप्त नहीं कि हम सब एक ही राह के राहगीर हैं। हम लोगों का एक ही परिचय है—" क्रान्तिकारी।"
करतार सिंह सराभा चुप हो गए. उन्हें चुप देखकर साधु बोले, "तुम दोनों काफी थके हुए लग रहे हो। अन्दर कुटी में जाकर विश्राम करो। बनारस यहाँ से पन्द्रह मील दूर है। सुबह चले जाना।" फिर कुछ रुककर पूछा, "बनारस क्यों जा रहे हो?"
' महाराज, वहाँ एक बड़े क्रान्तिकारी हैं उनसे मिलने। कलकत्ता इसलिए गया कि वे वहाँ होंगे, लेकिन पता चला कि पुलिस उनके पीछे पड़ी हुई थी इसलिए वह बनारस चले गए."
"कौन?"
"रास बिहारी बोस।"
"ओह, बोस दा—-बेशक बेशक—कुटी में जाकर आराम कर लो—।"
दोनों साथी कुटी में आराम करने चले गए. उन्हें अच्छी नींद आयी। सुबह उठने पर देखा कि जो लोग साधु के पास रात बैठे हुए थे, उनमें से एक उनके लिए नाश्ता लेकर आया था। उन्हें आश्चर्य हुआ कि रात जो क्रान्तिकारियों-सा लग रहा था, सुबह वही आदमी एक किसान की वेशभूषा में वहाँ उपस्थित था। उसी से करतार सिंह को ज्ञात हुआ कि उन साधु का वास्तविक नाम तो किसी को नहीं मालूम, लेकिन वे लोगों में अखंडानन्द के नाम से जाने जाते हैं। अखंडानन्द वहाँ आस-पास के गांवों के युवकों को स्वाधीनता के लिए प्रेरित कर रहे थे। दिन में युवक अपने खेतों में काम करते और रात में चुपचाप उन साधु की कुटी में जाकर उनका व्याख्यान सुनते थे।
नाश्ता करके साधु अखंडानन्द को प्रणाम कर और उनसे आशीर्वाद लेकर करतार सिंह सराभा और पिंगले पैदल ही बनारस के लिए चल पड़े। ट्रेन से जाकर वे कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते थे।
करतार सिंह और पिंगले जब बनारस की सरहद पर पहुंचे बारह बजने को थे। अखंडानंद की कुटी से रास्ते में बिना रुके वे चलते चले आए थे।
"पेट में कुछ डाल लिया जाए." पिंगले ने कहा।
"मैं सोच रहा था कि पहले बोस दा से मिल लेते, लेकिन उन्हें खोजने और मिलने में कितना समय लगेगा, कहा नहीं जा सकता।" कहते हुए सराभा एक हलवाई की दुकान की ओर बढ़ने लगे।
"भइया, भोजन मिली?" सराभा ने पूछा।
"मिली काहे का नाहीं बबुआ।—हुकुम करो—का चाही।"
"पूरी सब्जी."
"बस, कुछ देर इंतजार करें" हलवाई तोंद बढ़ाए, कुर्ते पर सदरी पहने बोला और अपने नौकरों की ओर उन्मुख हुआ, "जल्दी से बाबू लोगन के लिए आटा गूंधो और आलू की सब्जी बनाव।" वह फिर तीनों की ओर मुड़ा, "बाबू, ऊपर दुकान के अंदर तखत पर आ जाओ. थके लग रहे हो—तनिक आराम करि लीन जाए."
दोनों दुकान के अंदर पड़े दो तख्तों पर जा बैठे।
"कहां ते सवारी आ रही है?"
"भागलपुर के रहन वाले हैं हम—बनारस पहली बार आए—घूमन खातिर—।" पिंगले बोले।
"बहुत अच्छा कीन्ह—इंसान दुनिया घूमि आवे, लेकिन भोलेनाथ की नगरी बनारस अगर एक बार न आवा तो समझो जिनगी अकारथ—-ई नगरी है ही ऎसी."
दोनों चुप रहे। अधिक बात नहीं करना चाहते थे। हलवाई की दुकान में सभी प्रकार के लोगों का आवागमन होना स्वाभाविक था। कौन जासूस हो कहना कठिन था।
दोनों को चुप देखकर हलवाई भी नौकरों को आदेश देने लगा। "अरे, अबही कड़ाही नहीं चढ़ाए—फौरन चढ़ाओ—जब तलक आटा गुंध रहा है—कड़ाही गरम होई—पहले देसी घी मा भइयन खातिर पूरी निकालो फिर ओहिमा ही सब्जी छौंक देहो।"
एक लड़का आटा गूंध रहा था और दूसरा आलू छील रहा था। हलवाई चुप नहीं बैठा। उसने एक प्लेट में जलेबी रखी और दोनों के सामने ले जाकर रखता हुआ बोला, "तब तलक जलेबी खावा जाए."
"हम लोग मीठा नहीं लेते।"
"अरे, आप लोग भी कइस हैं। कोऊ बनारस आए और जलेबी और पान न खाए—-तो ओहका बनारस घूमना बेकार—-लेकिन कोई बात नहीं—जब खात ही नहीं तब जबरदस्ती नहीं—।"
सराभा हलवाई का आतिथ्य देखकर प्रभावित थे। उन्हें पंजाब याद आ रहा था।
हलवाई के यहाँ भोजन कर और उसे भुगतान कर वे दुकान से नीचे उतरे तब समय एक से ऊपर हो रहा था। हवा में हल्की ठंड थी और धूप अच्छी लग रही थी। रासबिहारी बोस के विषय में जानकारी प्राप्त करने का काम सत्येन सेन ने अमन मजूमदार को सौंपा था। मजूमदार ने अपने श्रोत से जानकारी उपलब्ध की थी। उन तीनों को उम्मीद थी कि बोस दा कलकत्ता में होंगे, लेकिन अमन मजमूदार ने जब बताया कि वह कलकत्ता में नहीं बनारस में हैं और उम्मीद है कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के किसी होस्टल में मिलेंगे। दोनों बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय पहुंचे। यह संयोग ही था कि जिस छात्र से उनकी मुलाकात हुई वह क्रान्तिकारी विचारों का था। वे प्रसन्न हो उठे। उसने बताया कि कुछ दिन पहले तक रास दा वहीं थे, लेकिन एक दिन रात में पुलिस का छापा पड़ा—-छापा पड़ा सुनते ही पिंगले का चेहरा सूख गया और उनके मुंह से निकला, "क्या? बोस दा गिरफ्तार हो गए?"
"नहीं, बच निकले थे। रात के अंधेरे का लाभ उठाकर वह भाग निकले थे। हुआ यह कि कमरे में अँधेरा था। वह कमरा यहाँ के दो छात्रों को एलाट था। उस दिन संयोग की बात थी कि दोनों छात्र गांव गए हुए थे। बोस दा सदैव सतर्क रहते थे। रात में वह कमरे में कभी रोशनी नहीं जलाते थे। जैसे ही पुलिस ने दरवाजा खटखटाया, दादा सतर्क हो गए. सामान के नाम पर उनके पास एक थैला था, जिसमें क्रान्तिकारी पुस्तकें और कुछ कपड़े वह रखते थे। थैला सदा अपने साथ रखते। पुलिस की दस्तक दोबारा होते ही दादा ने अपना थैला उठाया और दरवाजे के साथ सटकर खड़े हो गए. पुलिस वालों ने तीसरी बार दस्तक दी। दादा ने धीरे से कुंडी खोल दी। पुलिस वाले आंधी की तरह कमरे में घुस गए. वे लोग अंदर घुसे और दादा बाहर निकले। निकलते हुए उन्होंने बाहर से दरवाजे की कुंडी बंद कर दी।" क्षण भर के लिए रुका छात्र, फिर बोला, "होस्टल के बाहर सड़क पर पुलिस वाले तैनात थे। कहते हैं अंग्रेज पुलिस कप्तान भी था। विश्वविद्यालय में पुलिस आयी जान सभी होस्टल में रहने वाले छात्र बाहर निकल आए थे। भीड़ हो गयी थी छात्रों की। पुलिस वाले उन्हें अपने कमरों में जाने के लिए धमका रहे थे, लेकिन कोई जाने को तैयार नहीं था और दादा उस भीड़ का हिस्सा बनकर किस प्रकार विश्वविद्यालय से बाहर निकल गए किसी को पता नहीं चल पाया। पुलिस हाथ मलती लौट गयी थी। बाद में उन छात्रों को पकड़ा गया, जिनके कमरे में छापा मारा गया था, लेकिन वे दोनों अपने गांव गए हुए थे उस दिन, जिसका प्रमाण था। उन दोनों ने साफ इंकार कर दिया कि वे किसी रासबिहारी बोस को जानते थे। एक दिन की हिरासत के बाद उन्हें छोड़ दिया गया था।"
"तो दादा अब कहाँ मिलेगें। हमें उनसे अवश्य मिलना है।" सराभा ने कहा।
"वह लंका में एक राजपूत परिवार में गुप्त रूप से रह रहे हैं।"
"आपको मालूम है वह घर?"
"हां—मैं कल ही उनसे मिलने गया था।"
"आप हमें वहाँ ले चलें। हम बहुत दूर से आए हैं।"
वह छात्र दोनों को लेकर लंका गया। वहाँ अधिक दूर नहीं था। तीनों पैदल ही गए. उसी के हाथों पिंगले ने रासबिहारी बोस के नाम जतिन मुखर्जी का पत्र भेजा। पत्र पढ़कर उन्होंने दोनों को गले लगाया, "हम एक ही पथ के राही हैं।" दोनों को एक-एक कर गले लगाने के बाद बोस दा बोले, "आप लोगों के ठहरने और भोजन की व्यवस्था यहीं करवा देता हूँ।"
"नहीं—आप यह खतरा मोल न लें। हम किसी होटल में ठहर लेंगे। बस आपसे आदेश लेने आए हैं कि हमें क्या करना चाहिए." करतार सिंह सराभा बोले।
"भोजन?"
"हम लोग करके आए हैं,"
"हुंह" रास बिहारी दा सोच में डूब गए. देर तक सोचने के बाद बोले, "करतार सिंह तुम सीधे पंजाब जाओ और वहाँ जनता, छात्रों और सेना के बीच विद्रोह की ज्वाला धधकाने की योजना को कार्य रूप दो।"
"दादा, हमारे २९ साथी पोर्ट पर ही गिरफ्तार कर लिए गए हैं। पुलिस ने उन्हें बहुत टार्चर किया है यह सूचना हमें कलकता में ही मिल गयी थी।"
"लेकिन यदि किसी ने तुम्हारे बारे में कुछ कहा होता तो निश्चित ही अब तक तुम लोग भी गिरफ्तार हो चुके होते।" रास बिहारी बोस बोले।
"दादा, उनतीस गिरफ्तार हुए, मुझे, पिंगले और सत्येन सेन को छोड़कर आशा है शेष पंजाब पहुंच गए होंगे।" सराभा बोले।
"उनसे कैसे संपर्क करोगे?"
"सबके नाम-पते हमने नोट कर रखे हैं। लुधियाना पहुंचते ही मैं उनसे संपर्क करूंगा और मीटिंग करके आगे की रणनीति तय करूंगा।"
"हुंह।" रास बिहार कुछ नहीं बोले।
"दादा, हमारे पीछे चार हजार और लोगों का जत्था आने को तैयार था। हो सकता है कि दो-चार दिनों में वे कलकत्ता पहुंच जाएं उनके पीछे पन्द्रह हजार और आएगें।"
"ओह, यह तो देश के लिए बड़ी उपलब्धि होगी।"
"लेकिन उनके पहुंचने से पहले हमें बहुत कुछ कर लेना होगा।" क्षण भर के लिए सराभा रुके, फिर बोले, "दादा आप कब तक वहाँ पहुंचेगे?"
"मैं जल्दी ही आउंगा। लेकिन अभी तारीख बता पाना कठिन है। तब तक तुम साथियों को एकत्रित करो—-उन्हें काम सौंपो। बम बनाने के तरीके जानो, असलाह एकत्रित करना होगा—विद्रोह होने की स्थिति में अंग्रेजों से लड़ने के लिए लाठियां काम नहीं आएंगी।"
"मैं स्वयं यह सोच रहा था।"
"इस घर का पता लिख लो—अपनी तैयारी की सूचना मुझे गुप्त संदेश के द्वारा देते रहना। मैं बहुत विलंब हुआ तो जनवरी में लाहौर पहुंचूंगा। पुलिस मुझे खोज रही है।"
"आपके पहुंचने के बाद ही विद्रोह की तिथि तय की जाएगी। तब तक मैं बैठकें करके कुछ कार्य करूंगा। मैं यह भी सोचता हूँ कि लुधियाना पहुंचने से पहले पिंगले के साथ कुछ शहरों की यात्राएं करता जाऊं और वहाँ की छावनियों की स्थिति का जायजा लेता जाऊं।" ।
"बहुत सही सोच रहे हो।" रासबिहारी ने उत्साह में भरकर कहा।
करतार सिंह सराभा और विष्णु गणेश पिंगले दादा को प्रणाम करके दूसरे शहरों के लिए उसी दिन निकल गए थे।
करतार सिंह सराभा और पिंगले बनारस से ट्रेन द्वारा पहले इलाहाबाद, फिर मेरठ, आगरा, अंबाला, लाहौर और रावलपिंडी की यात्राएं की। इन स्थानों में वह कैंटोनमेण्ट क्षेत्र में गए और देश की आज़ादी के लिए भारतीय सैनिकों की मानसिकता जानने का प्रयास किया। सभी स्थानों में वे रात में सैनिकों से मिले। उनके साथ गुप्त बैठकें कीं, जिनसे स्पष्ट हुआ कि सभी जगहों के सैनिक देश से अंग्रेज़ी शासन की समाप्ति के लिए विद्रोह करने को तैयार थे। दोनों रावलपिंडी से वापस लाहौर आए और वहाँ विश्वविद्यालय में छात्रों के मन टटोले। लाहौर में सराभा चार दिन रुके. पिंगले वहाँ से बनारस लौट गए, जहां से सत्येन सेन के साथ शस्त्र प्राप्त करने की संभावना का पता लगाने के लिए वह कलकता गए और सराभा दो-तीन दिन घर में बिताने के उद्देश्य से अपने गांव सराभा चले गए.