दीवाना-ए-आज़ादी: करतारसिंह सराभा / भाग-14 /रूपसिंह चंदेल

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पुत्र को अचानक दरवाजे पर देख साहिब कौर की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। पैरों को हाथ लगाने से पहले ही माँ ने बेटे को गले लगा लिया, "तूने कितने ही दिनों से अपनी कोई खबर तक नहीं दी थी—हम तुझे लेकर कितना परेशान थे। तेरे बाब्बा कितने परेशान थे। तू ठीक तो है न करतारा!" माँ को चिन्ता हुई कि बेटा स्वस्थ नहीं है इसीलिए न उसने समाचार दिए और आज अचानक आ गया है।

"मैं बिल्कुल ठीक हूँ बीजी. ज़रूरी काम से देश लौटा।"

"कुछ दिन तो रहेगा न घर पे।"

"बस दो दिन।"

"तू इतना कठोर कैसे हो गया करतार। न मेरी चिन्ता और ना बाब्बा की—वो कितने बूढ़े हो गए हैं। उन्हें हर समय तेरी चिन्ता सताती रहती है।" साहिब कौर भूल गयीं कि वह बेटे के साथ दरवाजे पर खड़ी थीं। वास्तव में जिस समय करतार घर पहुंचा, साहिब कौर घेर में बंधी गाय को सानी लगाकर लौट रही थीं। उन दिनों घर का हलवाहा खेतों में काम कर रहा था। खेतों की बोआई का काम सम्पन्न हुए समय बीत चुका था और उनमें बीज अंखुआ रहे थे। पक्षी प्रायः अंखुआते बीजों को चुगने पहुंच जाते। बीज की फोफकी के साथ वे उग रहे पौधे को भी हानि पहुंचाते, इसलिए हलवाहा उन्हें उड़ाने के लिए दिन भर खेतों में रहता था और घर में जानवरों की देखभाल साहिब कौर करती थीं।

"मुझे चिन्ता है बीजी—इसीलिए आ गया न।!" करतार सिंह बोले और घर के अंदर जाने लगे। लेकिन तभी उनकी नज़र चौपाल पर पलंग पर लेटे दादा पर पड़ी, जो चुपचाप लेटे हुए कुछ सोच रहे थे। दादा ने मां-बेटे की बातें नहीं सुनी थीं, इसलिए उन्हें पता नहीं चला था कि पोता आया हुआ है।

करतार सिंह आगे बढ़ दादा के पैर छुए तो उठने की कोशिश करते हुए बुजुर्ग ने करतार को पकड़ लिया और अपनी छाती पर खींच लिया, "तूने सूचित क्यों नहीं किया रे—स्टेशन किसी को भेज देता लेने के लिए."

"बाब्बा—सूचित क्या करना। सामान अधिक था नहीं सो चला आया। वैसे भी आने का प्रोग्राम अचानक बना—किसी को कैसे बताता।"

"बड़ा अच्छा किया बेटा तूने—-तुझे देखने के लिए आंखें तरस रही थीं। पता नहीं किस दिन टिकट कट जाए."

"दादा, आप ऎसा क्यों सोचते हैं! देश को आज़ाद होते आप देखेंगे। अब अधिक समय नहीं देश को आज़ाद होने में—मेरे जैसे हजारों-हजारों लोग देश की आज़ादी के लिए मर मिटने को तैयार हैं।"

"हैं बेटा। जानता हूँ। तू ठीक कह रहा है कि अब अंग्रेज अधिक दिन नहीं रह पाएगें यहां।—बहुत लूट लिया—।" कुछ देर रुके बुजुर्ग, सांस पर नियंत्रण पाया फिर बोले, "अंदर जा, कुछ खा-पी ले—आराम कर—पता नहीं कब का चला हुआ है तू—थकान मिटा, फिर बातें करूंगा तेरी अमेरिका यात्रा की और पढ़ाई की।"

"जी, दादा जी." और करतार सिंह घर के अंदर चले गए.

♦♦ • ♦♦


दो दिन बाद सुबह करतार सिंह ने माँ से कहा, "बीजी, मैं अब जाउंगा।"

"क्या?" साहिब कौर चौंकी।

"हां बीजी. मेरे पास अधिक वक्त नहीं है।"

"वापस अमेरिका जाएगा?" माँ के भोले-से उत्तर से करतार सिंह के चेहरे पर मुस्कान तैर गयी, बोले, "नहीं मां, अब वहाँ कभी नहीं जाउंगा।"

"फिर—?"

"मां, आपके अलावा मेरी एक माँ और है। आजकल वह पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ी हुई है। उसी भारत माँ की पराधीनता की बेड़ियां काटने जा रहा हूँ—आशीर्वाद दो—अपने उद्देश्य में सफल रहूँ।"

साहिब कौर की आंखें छलछला आयीं। यह सब उन्होंने स्वप्न में भी न सोचा था। सोचने लगीं, 'इसीलिए तो इसे अमेरिका भेजा गया था कि देश में रहेगा तो यह अवश्य यही करेगा। लेकिन यह तो वहाँ रहकर भी भारत माँ की ही सोचता रहा। मैं कितनी भाग्यशाली हूँ जो मैंने ऎसे पुत्र को जन्म दिया, लेकिन फिर भी माँ तो माँ ही होती है।' साहिब कौर की आंखें गीली हो गयीं।

"मां, यह समय आंसू बहाने का नहीं, प्रसन्न होने का है। आप तो केवल मेरी ही माँ हैं, किन्तु जानती हैं मैं जिसे मुक्त कराने जा रहा हूँ वह पूरे भारतवासियों की माँ है।"

"बेटा, ये दुख के आंसू नहीं। ये तो खुशी के आंसू हैं। तू बड़ा काम करने जा रहा है मेरे लाल। वाहे गुरु तेरी रक्षा करेंगे।" माँ ने बेटे को छाती से लगा लिया।

मां को प्रणाम करने के बाद सराभा दादा जी के पास पहुंचे और उन्हें भी प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लेकर उन्होंने शहर के लिए प्रस्थान किया। वहाँ से वह लाहौर पहुंचे। तब तक पिंगले लाहौर पहुंच गए थे।

२९ नवंबर, १९१४ रविवार का दिन था। सुबह के लगभग चार बजे थे। शरीर को कंपा देने वाली ठंड थी। हवा शरीर में कांटों की भांति चुभ रही थी। सड़कें सुनसान थीं। लेकिन करतार सिंह सराभा लाहौर की अनारकली मोहल्ला की ओर जाने वाली सड़क पर बढ़ रहे थे। सड़क सुनसान थी। रास्ते में दो कुत्ते एक मकान की सीढि़यों पर सिकुड़े सो रहे थे। उन्हें देखकर एक ने गुर्राकर उनका स्वागत किया, लेकिन उनके कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करने पर कुछ देर उनकी ओर देखते रहने के बाद गर्दन नीचे झुकाकर फिर सोने लगा था। दूर कहीं मुर्गा बांग दे रहा था। आसमान साफ था और चिड़ियों में सुगबुगाहट शुरू हो गयी थी, लेकिन ठंड ने उन्हें अभी तक पेड़ों पर रुकने के लिए विवश किया हुआ था।

आगे चौराहे पर दो पुलिस वाले गश्त करते दिखाई दिए. लैंप की रोशनी में दोनों के चेहरे साफ दिखाई दे रहे थे। करतार सिंह के पास कुछ छपे हुए पर्चे थे। कुछ क्षण एक मकान की ओट में खड़े होकर वह सोचते रहे कि किघर से जाना चाहिए. रास्ता केवल वही था। दूसरी ओर गंदा नाला था। आखिर उन्होंने नाला पार कर जाने का निर्णय किया और कड़ाके की ठंड में जांघों तक नाला मंझाकर पार हो गए. जब वह अनारकली पहुंचे सुबह के पांच बजने वाले थे।

एक बड़ी इमारत के सामने पहुंचकर उन्होंने दरवाजे की कुंडी खटखटाई. अंदर से आवाज आई, "कौन?"

"अफलातून।"

दरवाजा खुल गया। अंदर विष्णु गणेश पिंगले के साथ बनारस षडयंत्र के नायक प्रसिद्ध क्रान्तिकारी शचीन्द्र नाथ सान्याल थे। उन्हें करतार सिंह सराभा के आने की जानकारी थी और वे उन्हीं से मिलने आए थे। देर तक बातें होती रहीं। तय हुआ कि वे सभी वहाँ कॉलेजों के छात्रों के बीच क्रांन्ति का प्रचार करेंगे और वहाँ की छावनी में जाकर भारतीय सैनिकों से मिलकर उन्हें समझाएगें। उसी दिन से तीनों अलग-अलग कॉलेज में जाकर छात्रों से मिलकर उन्हें देश की आज़ादी के लिए क्रान्तिकारी गतिविधियों में शामिल होने के लिए प्रेरित करने लगे। उनका यह अभियान एक सप्ताह तक चला और उन्हें अपने कार्य में पर्याप्त सफलता भी मिली। अनेक छात्र उनके साथ शामिल होने के लिए तत्पर दिखे। यह एक बड़ी सफलता थी।

शाम के समय तीनों साथी एक साथ वहाँ की छावनी जाते और गुप्त रूप से सैनिकों से मिलते। उन्हें भी बगावत के लिए वे समझाते। भारतीय सैनिकों में भी उनकी बातों का पर्याप्त प्रभाव होने लगा था। कुछ सिख सैनिक तो इतना उत्तेजित हो उठते कि वे अपनी कृपाण निकालकर शपथ लेते कि यदि वे लोग हुक्म दें तो वे अभी उसी क्षण अपने अंग्रेज अफसर की गर्दन उड़ा सकते हैं। लेकिन सराभा और उनके दोनों साथी उन्हें समझाते कि उन्हें कुछ दिनों प्रतीक्षा करनी होगी। ऎसा करने पर १८५७ की भांति क्रान्ति के असफल होने की संभावना के विषय में वह उन्हें बताते।

"भरा जी, आप कुछ दिन इंतजार करें। हम आप सबको एक निश्चित तिथि बताएंगे, जिस दिन पूरे देश में एक साथ क्रान्ति की ज्वाला धधकानी होगी।"

"जैसा हुकुम भरा जी." सरदार सैनिक अपनी कृपाण रखते हुए बोलते। यही हाल दूसरे सैनिकों का भी था। जाति-पात से ऊपर उठकर सब एक ही बात सोचते, " भारत माँ को गुलामी की जंतीरों से मुक्ति' । सिख, हिन्दू, मुसलमान, पारसी—यहां तक ईसाई बने भारतीय सैनिक भी एक ही बात सोचने लगे थे।

एक दिन करतार सिंह सराभा को सूचना मिली कि छः दिसम्बर को लुधियाना के निकट लोघोवाल नामक स्थान पर गदर पार्टॊ की ओर से सभा का आयोजन किया गया है और उसमें उन तीनों को शामिल होना है। सराभा और पिंगले उस मीटिंग के लिए लुधियाना प्रस्थान कर गए जबकि रास बिहारी बोस के साथ आगे की योजना बनाने के लिए शचीन्द्र नाथ सान्याल बनारस चले गए.

लोघोवाल में पहली बार अपने साथ अमेरिका से आने वाले और कलकत्ता पोर्ट में बच निकलने वाले गदर के देश भक्तों से करतार सिंह की मुलाकात हुई. देश में भी 'गदर' पार्टी कार्यरत थी। बड़ी मात्रा में पंजाब के क्रान्तिकारी वहाँ एकत्र हुए थे। बैठक में दो बातें तय की गईं। पहली यह कि पार्टी के लिए धन एकत्रित किया जाए और दूसरी कि बम बनाने का प्रयास किया जाए. समस्या यह थी कि बम बनाने की तकनीक किसी को भी पता नहीं थी, इसलिए आवश्यक समझा गया कि इसके लिए बनारस से लोगों को बुलाया जाए. १८ नवंबर को बनारस में बम बनाते हुए शचीन्द्र सान्याल घायल हो गए थे और उन्हें बंगाली मोहल्लें में शिफ्ट किया गया था।

"शचिन दा इस काम में कुशल हैं।" पिंगले ने कहा।

"लेकिन वे तो लाहौर से बनारस वापस चले गए थे। मुझे उन्हें रोक लेना चाहिए था। उनसे ट्रेनिंग ले लेना चाहिए था।" करतार सिंह सराभा ने कहा।

"हमें उन्हें बुलाना होगा। बम के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते। अंग्रेज उसी भाषा को समझेंगे।" पिंगले बोले। सभा में एकत्रित सभी क्रान्तिकारियों ने पिंगले की बात से सहमति प्रकट की।

"आप बनारस चले जाएं" सराभा ने पिंगले की ओर देखा, "शचिन दा और रास बिहारी दा को साथ ले आएं। अब हम रुकना नहीं चाहते।"

पिंगले सोच में पड़ गए. फिर बोले, "यदि मैं बनारस जाता हूँ तो क्यों न कुछ और आगे बढ़कर बंगाल तक चला जांऊ। जतिन दा से फिर मिलकर यदि कुछ मिलें तो अस्त्र–शस्त्र लेता आऊं।"

"आप जैसा उचित समझें—लेकिन समय नष्ट न करके आज ही निकल जाएं।"

और विष्णु गणेश पिंगले उसी रात कलकत्ता की ट्रेन पकड़कर कलकत्ता के लिए रवाना हो गए. लौटते हुए वह अपने साथ शचीन्द्र सान्याल को लाना चाहते थे।

♦♦ • ♦♦


विष्णु गणेश पिंगले करतार सिंह सराभा से कम उत्साही नहीं थे। जैसा पहले कह चुका हूँ जब वह छोटे थे तभी से क्रान्ति के विषय में सोचने लगे थे। अमेरिका पहुंचकर वह गदर पार्टी के सक्रिय सदस्य बने। हालांकि उन्होंने सराभा की भांति पढ़ाई नहीं छोड़ी और अलग-अलग जगहों में होनी वाली सभाओं में उनके जितना शामिल नहीं हो पाते रहे, लेकिन जब भी अवसर मिलता वह शामिल होते। पार्टी के हर आदेश का वह पालन करते। सराभा के जत्थे में शामिल होकर देश आते समय उनका जहाज 'एस.एस. सलामिन' लगभग एक सप्ताह के लिए चीन के बंदरगाह में रुका था। समय था इसलिए पिंगले और सत्येन सेन ने चीन के शंघाई शहर में रह रहे गदर के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी ताहल सिंह से मिलने जाने का कार्यक्रम तय किया। करतार सिंह सराभा भी ताहल सिंह से मिलना चाहते थे, लेकिन जहाज के अन्य क्रान्तिकारियों की भी उन्हें चिन्ता करनी थी, इसलिए उन्होंने पिंगले और सेन को ताहल सिंह से मिलने जाने दिया। ताहल सिंह से उन्होंने देश पहुंचकर किस प्रकार क्रान्तिकारी गतिविधियों को अंजाम देना है जानना चाहा था। ताहल सिंह ने उन लोगों को कलकता पहुंचकर रास बिहारी बोस से मिलने की सलाह दी थी और यह भी कहा था कि हथियारों के बिना कोई भी बगावत सफल नहीं हो सकती इसलिए उन लोगों को अधिक से अधिक हथियार पहले ही एकत्रित करने होंगे। बम बनाने की सलाह ताहल सिंह ने भी दी थी। उन्होंने यह भी कहा था कि वह स्वयं अपने कुछ लोगों को हथियारों के लिए बैंकाक भेजेंगे और उन तक हथियार पहुंचाने की व्यवस्था करेंगे।

ताहल सिंह के बाद पिंगले और सेन डॉ। सुन पेत-सेन से भी मिले थे, जो भारतीय क्रान्तिकारियों के प्रति हमदर्दी रखते थे। दोनों जहाज छूटने से पहले बंदरगाह लौट आए थे।

ताहल सिंह ने अस्त्र–शस्त्रों की व्यवस्था के लिए आत्माराम कपूर, संतोष सिंह और शिवदयाल कपूर को बैंकाक भेजा। उन लोगों ने जो भी व्यवस्था की लेकिन वह करतार सिंह सराभा या किसी अन्य क्रान्तिकारी तक नहीं पहुंच पायी।

पिंगले कलकत्ता पहुंचकर जतिन मुखर्जी से मिले। मुखर्जी ने उन्हें दो माउजर पिस्तौलें और कुछ गोलियां दीं। मुखर्जी को जर्मनी से जिस सामग्री की प्रतीक्षा थी वह नहीं मिली थी। प्रथम विश्व युद्ध जिसप्रकार भयानक रूप ले चुका था, उस स्थिति में कुछ भी मिलना उन्हें असंभव लग रहा था।

माउजर पिस्तौलें और गोलियां लेकर पिंगले बनारस पहुंचे। वहाँ शचीन्द्र सान्याल से मिले और उन्हें पंजाब के क्रान्तिकारियों की समस्या से अवगत कराया। शचीन्द्र ने पिंगले को ही बम बनाने की प्रक्रिया सीखने की सलाह दी और कहा कि वह कुछ दिन और बनारस रुकेंगे और रास दा के पंजाब पहुंचने की योजना के अनुसार वहाँ पहुंचने का निर्णय करेंगे।

"मैं भी बहुत एक्सपर्ट नहीं हूँ—जितना मैं जानता हूँ आपको सिखा देता हूँ। बहुत सतर्क होकर काम करेंगे और सफलता मिलेगी। इसके लिए हमें कैलीफोर्निया के प्रो। सुरेन्द्र बोस को बुलाना होगा। वह तारकनाथ दास से सम्बद्ध रहे हैं और मेरा विश्वास है कि हमारे अनुरोध को टालेंगे नहीं। इसके लिए मैं रास दा से बात करूंगा और उन्हें कैलीफोर्निया में डॉ। सुरेन्द्र बोस से संपर्क करने के लिए कहूँगा। यदि वह आ जाते हैं तब तो हम सबकी सारी समस्या का समाधान हो जाएगा।"

"फिर तो इस काम को जितनी जल्दी आप करवाएं उतना ही अच्छा होगा।"

"मैं आज ही आपके सामने रास दा से बात करूंगा। लेकिन उनके आने तक तो हम अपनी गतिविधियां रोक नहीं सकते, इसलिए आप आज से ही मेरे साथ बंगाली मोहल्ले के उस मकान में चलें जहां हम बम बनाने का काम करते हैं और उसकी प्रक्रिया सीख लें। मुझे पूरा विश्वास है कि आप, सराभा और दूसरे लोग इस काम को सहजता से कर सकेंगे।"

पिंगले शचीन्द्र सान्याल की बात से सहमत हुए.

उसी शाम उनकी मुलाकात रास बिहारी बोस से हुई. बोस दा ने उन्हें सूचित किया कि वह अगले माह पहले अमृतसर फिर लाहौर पहुंचेगे।

"दादा, हम आपके पास आए हैं कैलीफोर्निया में प्रोफेसर सुरेन्द्र बोस से संपर्क करके उन्हें यहाँ बुलाने के लिए कहने के लिए."

"उन्हें किसलिए?"

"वह बम बनाने में एक्सपर्ट हैं दादा।"

"हुंह!" रास दा चिन्ता में डूब गए. समस्या तो है जवानों को। सान्याल एक बार बम बनाते घायल हो चुके हैं। अगर कोई विशेषज्ञ इन्हें ट्रेनिंग दे-दे तो काम बहुत आसान हो जाए.' रास दा में स्प्चा।

"ठीक है—मैं उन्हें संपर्क करूंगा और उनसे अनुरोध करूंगा कि वह जितनी जल्दी हो सके भारत आकर तुम सबको ट्रेनिंग दें। लेकिन जितना तुम जानते हो पिंगले उतना समझा दो—आखिर हम बम बना ही रहे हैं न! । हार्डिंग पर हमने बनाकर ही फेंका था।"

"जी दादा" सान्याल बोले, "मैं पिंगले को सिखा दूंगा।"

रास बिहारी बोस मुस्कराए. कुछ देर बाद पिंगले शचीन्द्र सान्याल के साथ बंगाली मोहल्ले की ओर चले गए.