दीवाना-ए-आज़ादी: करतारसिंह सराभा / भाग-8 /रूपसिंह चंदेल

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नालंदा क्लब से जुड़ने के बाद करतार सिंह सराभा के अंदर राष्ट्रभक्ति की भावना उफान मारने लगी। वह क्लब की नियमित बैठकों में शामिल होते, गर्मागर्म बहसों में हिस्सा लेते। नालंदा क्लब से सानफ्रान्सिस्को के छात्र भी जुड़े हुए थे। करतार सिंह के परिचय का क्षेत्र बढ़ने लगा। अब वह दूसरे शहरों में होने वाली बैठकों में शामिल होने के लिए जाने लगे थे। उन मीटिगों में उस शहर में रहने वाले और उसके निकटवर्ती शहरों से भारतीय आते थे। देश को अंग्रेजों से मुक्त करवाने के लिए सब एक मत थे। वरिष्ठ लोग भाषण देते। करतार सिंह कई महीनों से अलग शहरों की बैठकों में शामिल होने के लिए जा रहे थे और वह मंच से वहाँ उपस्थित अपने देश वासियों को सम्बोधित करना चाहते थे, लेकिन इसका उन्हें अवसर नहीं मिल रहा था। ३१ जनवरी, १९१३ को कैलीफोर्निया के ब्ल्यू लेक में एक सभा का आयोजन किया गया। करतार सिंह, अनुज राय, नयन सिंह तोपन दास तथा अन्य अनेक भारतीय छात्र उसमें शामिल होने के लिए बर्कले से गए. यह पहला अवसर था जब करतार सिंह को अनुज राय ने मंच पर बोलने के लिए आमंत्रित किया। करतार सिंह का हिन्दी, अंग्रेज़ी और पंजाबी भाषाओं पर अधिकार था। उन्होंने जोशीला भाषण दिया, जिसमें अमेरिका में रह रहे भारतीयों का आह्वान किया कि वह देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तैयार रहें।

करतार सिंह क्रान्तिकारी कविताएं लिखा करते थे, लेकिन कभी उन्हें छपवाने का इरादा नहीं किया। करते तो प्रकाशित कहाँ होतीं। उन्होंने ब्लू लेक की सभा में स्वरचित अपनी एक कविता सुनाई:

" धरती माँ पुकार रही,

देश की आजादी के लिए,

आप सुन रहे हैं न वह,

बलिदान का आह्वान! "

सानफ्रान्सिस्को की ऎसी ही एक सभा के दौरान करतार सिंह की मुलाकात सरदार सोहन सिंह से हुई. सोहन सिंह एक टिंबर मिल में मजदूर थे। वे उन अमेरिकावासी भारतीयों में प्रमुख थे, जो देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर थे। सोहन सिंह इस काम के लिए कैलीफोर्निया के तमाम शहरों के अलावा ओरेगन और वाशिंगटन में रह रहे भारतीयों के बीच घूम घूमकर वहाँ के मजदूरों को आजादी के लिए तैयार कर रहे थे।

सोहन सिंह से मिलकर करतार सिंह को लगा कि उनकी राह अब आसान हो जाएगी। उन्हें एक उपयुक्त व्यक्ति मिल गया। वह लगभग हर रविवार सोहन सिंह से मिलने सानफ्रान्सिस्को जाने लगे। घण्टों बातें करने लगे। उन्हें सोहन सिंह के बारे में जानने का अवसर मिला। सोहन सिंह उनसे उम्र में बहुत बड़े थे—अनुभव में तो होना ही था। करतार सिंह ने उन्हें अपना गुरु मान लिया।

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सोहन सिंह का जन्म १८७० में अमृतसर के भाक्ना गांव में एक सम्पन्न सिख कृषक परिवार में हुआ था। यह सिख बहुल गांव था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा नहीं हो पायी क्योंकि भाक्ना गांव में कोई स्कूल नहीं था। लेकिन उन्होंने स्वाध्याय से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर ली। जब उनकी आयु कम ही थी अपने आसपास लोगों पर अंग्रेज़ी हुकूमत और उसके पाले जमींदारों और जागीरदारों के अत्याचारों को उन्होंने देखा। जो कुछ वह देखते वह उन्हें विचलित कर देता। वह अपने मां-पिता की इकलौती संतान थे। उनके पिता पुत्र के क्रान्तिकारी विचारों को समझ रहे थे और सोहन सिंह को पारिवारिक जिम्मेदारियों में बांधने के उद्देश्य से उन्होंने कम आयु में ही उनका विवाह कर दिया, लेकिन विवाह बंधन भी सोहन सिंह को बांध रखने में सक्षम न था। तभी उनकी मुलाकात नामधारी सिख गुरु बाबा केसर से हुई. सोहन सिंह को लगा कि जीवन को एक दिशा मिल गयी थी।

बाबा केसर के प्रभाव से उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना प्रारंभ कर दिया। अंग्रेजों के विरुद्ध होने वाले हर विरोध प्रदर्शन में वह भाग लेते थे। लेकिन तभी उन्हें अनुभव हुआ कि उन्हें अमेरिका जाकर धन संग्रह करना चाहिए. क्रान्ति के लिए भी धन की आवश्यकता होती है, यह सोचकर उन्होंने अमेरिका जाने का निर्णय किया।

अमेरिका आकर उनका स्वप्न भंग हुआ। उनकी कल्पना में अमेरिका एक ऎसा देश था जहां लोकतंत्र था और सभी को समान अधिकार प्राप्त थे, लेकिन ऎसा था नहीं। उन दिनों अमेरिकी अंग्रेजों की सोच भारत के शासकों से भिन्न न थी। विरले अंग्रेज ही ऎसे थे जो सहृदय थे, शेष सभी उसी प्रकार भारतीयों के साथ रंग भेद करते थे जैसा कि भारत में किया जाता था। उन्हें कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे। सोहन सिंह ने देखा कि अमेरिका में भारतीयों की स्थिति दूसरे दर्जे के नागरिकों से भी कमतर थी।

खेतों, मिलों या अन्य कामों में भारतीयों से अथक श्रम करवाया जाता, लेकिन उन्हें वेतन बहुत कम दिया जाता था। ऊपर से विरोध करने पर कोड़े भी बरसाए जाते। सोहन सिंह की आत्मा चीत्कार कर उठी। 'मैं यह क्या देख रहा हूँ? मैंने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी—तो अमेरिका का यशगान एक झूठा सच है—' दिनभर सोहन सिंह टिंबर मिल में काम करते और रातभर जागते सोचते रहते कि वे अपने देश वासियों का जीवन स्तर कैसे बेहतर बना सकते हैं। बहुत सोचने के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उन्हें अमेरिका और कनाडा में रह रहे भारतीयों को एकत्र करना चाहिए और अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए. इस लड़ाई को केवल अमेरिका तक ही सीमित नहीं रखा जाए, बल्कि उन सभी को इस बात के लिए तैयार किया जाए कि भारत माँ उन्हें पुकार रही है और उन्हें तन, मन और धन से उसकी सेवा के लिए अपने को अर्पित करना है।

"संगठन में बड़ी ताकत होती है बेटा" बाबा केसर के वचनों की गूंज उनके कानों में हर समय बजती रहती थी। बाबा ने कहा था, "अपने जैसे हजारों जब मिल जाओगे तब ये अंग्रेज यहाँ दिखाई न देंगे।—-इन्हें तो अठारह सौ सत्तावन में ही चले जाना था, लेकिन कुछ हमारे नेताओं की अदूरदर्शिता, कुछ नेतृत्व की कमी और कुछ हमारे यहाँ के राजाओं के असहयोग ने उसे असफल किया। हमारे यहाँ देशद्रोही भी बैठे हैं, जिन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया था। तब दिया और आज भी दे रहे हैं और आगे भी देते रहेंगे। तुम्हें इन अपने बीच के दुश्मनों से सतर्क रहना होगा। अंग्रेजों से अधिक खतरनाक ये हमारे बीच के लोग हैं, जिनके बारे में हमें पता तब चलता है जब हम उनकी विश्वासघात का शिकार हो चुके होते हैं। ये चंद सोने के सिक्कों के लिए देश को बेचने में कोई कसर नहीं उठा रखने वाले लोग हैं। ये सदा रहे हैं और रहेंगे—-" सोहन सिंह के अमेरिका प्रस्थान करने के समय यह सब कहते हुए बाबा बहुत भावुक हो उठे थे।

सोहन सिंह ने नौकरी नहीं छोड़ी, लेकिन जब भी अवकाश मिला वे कैलीफोर्निया के अन्य शहरों में ही नहीं दुसरे राज्यों की यात्राएं करने लगे। उनका मूल उद्देश्य भारतवासियों को एक मंच पर एकत्रित करना था। वह कनाडा भी जाना चाहते थे, क्योंकि अमेरिका से अधिक सिख कनाडा के खेतों और कारखानों में काम कर रहे थे, लेकिन कनाडा ने यह भांप कर कि भारतीय अपने अधिकारों के लिए सतर्क और सक्रिय हो रहे थे, अपने यहाँ भारतीयों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। जिन्हें प्रवेश दिया भी जाता बहुत सख्त छानबीन के बाद।

अमेरिका में भारतीय मजदूरों को एकत्र करने के उद्देश्य से निकले सोहन सिंह की मुलाकात प्रसिद्ध क्रान्तिकारी लाला हरदयाल और पंडित कांशी राम से हुई. उन दिनों कैलीफोर्निया, ओरोगन और वाशिंगटन राज्यों में बड़ी मात्रा में सिख मजदूर काम कर रहे थे। उन्हें संगठित करने का काम सोहन सिंह ने अपने जिम्मे लिया। उन्होंने एक संस्था की स्थापना की जिसका नाम रखा " युगान्तर आश्रम' । भारत में पहले से ही कलकत्ता में इस नाम की संस्था वही काम कर अही थी जो उसके माध्यम से सोहन सिंह करना चाहते थे। इस संस्था की स्थापना का उद्देश्य अमेरिका के विभिन्न राज्यों में मजदूरी कर रहे सिखों, अन्य भारतीयों और छात्रों को एक मंच पर एकत्र करना और उसके माध्यम से अमेरिका में भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ना था। लेकिन महा द्देश्य देश की आजादी के लिए उन लोगों को उत्प्रेरित करना था।

सोहन सिंह के नेतृत्व में सिख मजदूर एकत्र होने लगे थे और इस संस्था की सभाएं नियमित आयोजित होने लगी थीं। इसी संस्था की सभा में भाग लेने के लिए करतार सिंह जाया करते थे। वह सोहन सिंह से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने अपना पूरा समय उस संस्था को देने का निर्णय किया। लेकिन सोहन सिंह ने उन्हें कुछ समय और प्रतीक्षा करने की सलाह दी। सोहन सिंह अच्छी शिक्षा नहीं पा सके थे जिसका उन्हें मलाल था, लेकिन वह नहीं चाहते थे कि किसी बड़े उद्देश्य के बिना करतार सिंह अपनी पढ़ाई छोड़ दें। यद्यपि वह करतार सिंह की सांगठनिक क्षमता और क्रान्तिकारी योग्यता को भली भांति पहचान चुके थे, लेकिन वह कुछ दिन और प्रतीक्षा करना चाहते थे। इसका प्रमुख कारण था उन सिखों को संस्था से जोड़ना जो अभी तक नहीं जुड़ पाए थे। 'शायद, कोई भय है उन्हें' सोहन सिंह ने सोचा था, 'भय शायद नौकरी चली जाने का है। उनके मन से उस भय को निकालना होगा। हमारी संस्था शांतप्रिय ढंग से काम करेगी—मुझे उन्हें यह समझाना होगा। यहाँ हम शांतिपूर्वक अपने अधिकार मांगेगें, लेकिन भारत में ब्रिटिश हुकूमत शांति की भाषा नहीं समझेगी। अतः मुझे उन्हें समझाना होगा कि वहाँ क्रान्ति और अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए वे तैयार रहें।'

सोहन सिंह ने करतार सिंह और उनके साथियों को भी यही सबक सिखाया। लेकिन उन्होंने यह भी देखा कि करतार सिंह के अलावा शेष छात्र पढ़ाई पूरा करने का विचार रखते थे, जबकि करतार सिंह तत्काल पढ़ाई छोड़कर संस्था के काम में जुट जाना चाहता था।

"उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करो करतार।" सोहन सिंह ने करतार सिंह के पढ़ाई छोड़कर संस्था को पूरा समय देने के प्रस्ताव पर कहा था।

"जैसी आज्ञा।"

और करतार सिंह उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करने लगे थे।