दो तरह का कुँआरापन / पवित्र पाप / सुशोभित

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दो तरह का कुँआरापन
सुशोभित


स्त्री के भीतर दो तरह का कुँआरापन होता है।

एक जितना मरता, दूसरा बन जाता है अमरबेल, उतना ही।

एक जितना बनता अनुकूल, दूसरा प्यार में पड़ जाने को उतना ही तत्पर।

प्यार से बड़ी प्रतिकूलता भला और क्या थी?

स्त्री के दो सच होते, दो संसार। ये दोनों संसार आपस में यों टकराते कि किसी को कानोंकान ख़बर नहीं होती।

यहां तक कि भनक तक नहीं लगती रसोईघर के बर्तनों को। संध्या को समूह में धारावाहिक देखता परिवार सुन नहीं पाता उस मुस्कराती का अंतरंग।

दो विश्व युद्ध शुरू होकर ख़त्म हो जाते, स्त्री के मन का कोई पानीपत तीसरा नहीं होता।

स्त्री संसार में केवल स्त्री होने को आई थी।

वो यह जानती थी। सब कुछ ख़ुशी ख़ुशी बनने के बावजूद वो अपने भीतर इस जानने को जीवित रखती।

और सबसे सम्पूर्ण स्त्री वह होती, जो अपना पहला कुँआरापन भी जीती और अनन्तिम भी!