स्त्री के दो मन / पवित्र पाप / सुशोभित

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स्त्री के दो मन
सुशोभित


स्त्री के दो मन होते हैं।

जैसे चंद्रमा के दो पक्ष होते हैं। दोनों को एक साथ देखा नहीं जा सकता, लेकिन वो दोनों होते एक साथ ही हैं। सिक्के के जैसे दो पहलू होते हैं, वैसे स्त्री के दो मन होते हैं।

जैसे हमेशा ही कनखियों से दूसरे आयाम को मन में रखे हुए हों, वैसा एक दुचित्तापन स्त्रियों के भीतर होता है। पेशेवर जीवन में वो इसको ‘मल्टीटास्किंग’ बोलती हैं। सामाजिक जीवन में वो इसको ‘सबको साथ लेकर चलना’ कहती हैं। स्त्री मानो अपनी पीठ से भी देख सकती है, त्वचा से भी सुन सकती है। पुरुष की तुलना में उसके पास हमेशा एक इंद्रिय अधिक होती है।

स्त्री का वह दोआयामी आभ्यंतर बहुधा एकआयामी पुरुष को विकल कर देता है।

स्त्री के दो मन तो होते हैं, किंतु उसके भीतर कोई दुविधा नहीं होती।

जो निर्णय उसने लिया है, वही श्रेष्ठ विकल्प हो सकता था, इसको लेकर अपने भीतर वह पूरी तरह आश्वस्त होती है। होने ना होने की जैसी दुविधा हैमलेट के मन में थी, देवदास के मन में थी, रणक्षेत्र में अर्जुन के मन में थी, वैसी दुविधा उसके भीतर नहीं होती। स्त्री को सदैव यही लगता है कि उसने अपने दोनों पहलुओं के साथ उचित ही न्याय किया है। वह अत्यंत कठोर तरीक़े से निर्द्वंद्व हो सकती है।

वास्तव में स्त्रियां अपने भीतर अनेक और परस्पर विपरीत सत्यों को समाहित कर सकती हैं। पुरुष एकरैखिक विश्लेषण में खट जाता है, जबकि स्त्री सामान्य तर्क से नहीं सोचती। वो सर्वाइवल की इंस्टिक्ट्स से चलती हैं। उनका यह कठोर निर्द्वंद्व एक या दो या तीन पुरुषों के सर्वनाश में भले निमित्त बन जावै, किंतु संसार की रक्षा वही करता है।

क्योंकि स्त्री के पास दु:ख मनाने का ज़्यादा समय नहीं होता। वो ‘होममेकर’ हैं। वो जीवन को जन्म देती हैं। वो सामाजिक और पारिवारिक संरचनाओं की धुरियां होती हैं। प्रेम में पड़े पुरुष को स्त्रियां चाहे जितनी अभौतिक, रहस्यमयी और मायावी मालूम होती हों, वास्तव में वे बहुत लौकिक और भौतिक होती हैं। जीवन को संचालित करने वाले जो नियम पुरुष को उथले मालूम होंगे, उनका वह धर्म जैसी निष्ठा के साथ निर्वाह करती हैं, क्योंकि उनके लिए जीवन का चलते रहना सबसे ज़रूरी है।

स्वयं को निरस्त और ध्वस्त कर देने वाला जैसा आत्मचिंतन पुरुष के यहां होता है, वैसा स्त्री के यहां नहीं ही होता। वैसे आत्मचिंतन का अवकाश ही उसके पास नहीं। प्रकृति ने ही उसे वैसा बनाया है।

इसी के लिए सेज़ार पवेसी ने कहा था कि ‘सभी स्त्रियां ‘मेन ऑफ़ एक्शन’ होती हैं!’

सेज़ार पवेसी ने ही यह भी कहा था कि ‘कोई स्त्री चाहे जितनी अनुभवहीन या सतही क्यों न हो, किंतु वो कभी भी वास्तविक भावना और हवाई भावना को लेकर भ्रमित नहीं होती। जब भी जीवन स्वयं को स्त्री के समक्ष प्रस्तुत करता है, वो वास्तविक, क्रियाशील और महत्वपूर्ण भावना को परख ही लेती है। और इन्हीं अर्थों में वे उस काव्यात्मक संवेग के प्रति पूरी तरह से उदासीन भी हो सकती है, जिसमें पुरुष का वायवी चित्त धंसा रहता है।’

स्त्री के व्यवहार को जिन्होंने भी क़रीब से देखा और अनुभव किया है, प्रेम में भी, अप्रेम में भी, वो शायद इस बात की गवाही दे सकते हैं कि सेज़ार पवेसी एकदम ठीक बात कर रहे हैं।