प्रेम में स्त्री / पवित्र पाप / सुशोभित

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प्रेम में स्त्री
सुशोभित


स्त्री प्रेम में हो तो दोष से उसको भय नहीं लगता।

लक्ष्मणरेखा को लज्जा की देहरी की तरह वह लांघ जाती है, ‘अगर’ प्रेम में हो तो।

और पुरुष? पुरुष को तो प्रेम से भय लगता है, क्योंकि उसके चित्त में ही दोष है।

पुरुष का बस चले तो प्रेम की अनिवार्यता ही समाप्त कर दे, किंतु बिना प्रेम के स्त्री का समर्पण कैसे मिले?

विवाह और वेश्यावृत्ति को पुरुष ने इसीलिए रचा है, क्योंकि उसे स्त्री तो चाहिए, किंतु प्रेम के बिना चाहिए।

प्रेम से वह भयभीत है। प्रेम उसका सामर्थ्य नहीं।

स्त्री को अगर विश्वास हो कि पुरुष उसका ही रहेगा, तो वो विवाह ही क्यों करे?

किंतु पुरुष पर विश्वास असम्भव!

और पुरुष को विश्वास हो कि विवाह से स्त्री उसको मिल जायेगी तो प्रेम करने की ज़ेहमत ही वो क्यूं उठाए?

क्योंकि प्रेम में वह अक्षम!

इस अंतर को समझना बहुत आवश्यक है!

स्त्री प्रेम और दोष को अलग अलग नहीं देखती, पुरुष देखता है। इसलिए स्त्री को दोष मात्र से ग्लानि नहीं होती, जैसे पुरुष को होती है।

स्त्री को कहो कि तुम सुंदर हो तो उसके भीतर कुछ खिल जाता है।

सुंदर दिखना स्त्री के अस्तित्व की केंद्रीय आकांक्षा है।

किंतु यही वह स्त्री है, जो इस बात से आहत होती है कि वह केवल एक देह मान ली जा रही है!

स्त्री देह हुए बिना सुंदर होना चाहती है।

पुरुष देह की सुंदरता से मंत्रबिद्ध नाग की तरह आविष्ट होता है, यह भेद है!

स्त्री पुरुष से कहे कि तुम्हारी देह पर अनुरक्त हूं, तुम मेरे लिए पहले एक देह हो तो इससे पुरुष को गौरव ही होगा, आहत होना तो दूर। पौरुष का दम्भ इससे पुष्ट ही होगा, वैसा ना हो तो उल्टे हीनभावना उसमें आ जाएगी।

देह बनने से पुरुष आहत नहीं होता, उलटे राहत की सांस ही लेगा कि अब प्रेम का स्वांग नहीं करना होगा, स्त्री को प्राप्त करने की लम्बी प्रतीक्षा कम ही हुई, नंगे सच को स्वीकार किया गया!

पुरुष सुख का पिपासु है।

स्त्री भी है। शायद पुरुष से अधिक ही होगी।

किंतु स्त्री को सुख सुख की तरह नहीं चाहिए। उसे सुख प्रेम के आवरण में चाहिए।

निरे नग्न सुख से स्त्री की आत्मा पूरती नहीं, वह उसको वितृष्णा से भरता है।

इतना भेद है!

स्त्री का मन मुझे आकृष्ट करता है, उसकी जटिलताओं को जानने में मेरी रुचि है।

पुरुष का मन तो स्त्री के सामने बालकों की तरह सपाट है।

स्त्री की एक प्रणयाकुल दृष्टि से ही वह विगलित हो जाता है, उतार फेंकता है अपने समस्त श्रमस्वेद अर्जित आवरण।

मुझे विश्वास है कि एकान्त में स्त्रियां पुरुषों की इन दुर्बलताओं पर ख़ूब हंसती होंगी!