पहचान / भाग 2 / अनवर सुहैल
कल्लू नाम था उसका। वह बीना की खुली कोयला खदान में काम करता था।
यूनुस तब वहाँ कोयला-डिपो में पेलोडर चलाया करता था। वह प्राइवेट कंपनी में बारह घंटे की ड्यूटी करता था। तनख्वाह नहीं के बराबर थी। शुरू में यूनुस डरता था, इसलिए ईमानदारी से तनख्वाह पर दिन गुजारता था।
तब यदि खाला-खालू का आसरा न होता तो वह भूखों मर गया होता।
फिर धीरे-धीरे साथियों से उसने मालिक-मैनेजर-मुंशी की निगाह से बच कर पैसे कमाने की कला सीखी। वह पेलोडर या पोकलेन से डीजल चुरा कर बेचने लगा। अन्य साथियों की तुलना में यूनुस कम डीजल चोरी करता, क्योंकि वह दारू नहीं पीता था।
कल्लू उससे डीजल खरीदता था।
खदान की सीमा पर बसे गाँव में कल्लू की एक आटा-चक्की थी। वहाँ बिजली न थी। चोरी के डीजल से वह चक्की चलाया करता।
धीरे-धीरे उनमें दोस्ती हो गई।
अक्सर कल्लू उससे प्रति लीटर कम दाम लेने का आग्रह करता कि किसके लिए कमाना भाई। जोरू न जाता फिर क्यूँ इत्ता कमाता। उनमें खूब बनती।
फुर्सत के समय यूनुस टहलते-टहलते कल्लू के गाँव चला जाता।
कालोनी के दक्खिनी तरफ, हार्इवे के दूसरी ओर टीले पर जो गाँव दिखता है, वह कल्लू का गाँव परसटोला था।
परसटोला यानी गाँव के किनारे यहाँ पलाश के पेड़ों का एक झुंड हुआ करता था। इसी तरह के कई गाँव इलाके में हैं जो कि अपनी हद में कुछ खास पेड़ों के कारण नामकरण पाते हैं, जैसे कि महुआर टोला, आमाडाँड़, इमलिया, बरटोला आदि। परसटोला गाँव में फागुन के स्वागत में पलाश का पेड़ लाल-लाल फूलों का श्रृंगार करता तो परसटोला दूर से पहचान में आ जाता।
परसटोला के पश्चिमी ओर रिहंद बाँध का पानी हिलोरें मारता। सावन-भादों में तो ऐसा लगता कि बाँध का पानी गाँव को लील लेगा। कुवार-कार्तिक में जब पानी गाँव की मिट्टी को अच्छी तरह भिगोकर वापस लौटता तो परसटोला के निवासी उस जमीन पर खेती करते। धान की अच्छी फसल हुआ करती। फिर जब धान कट जाता तो उस नम जगह पर किसान अरहर छींट दिया करते।
रिहंद बाँध को गोविंद वल्लभ पंत सागर के नाम से भी जाना जाता है। रिहंद बाँध तक आकर रेंड़ नदी का पानी रुका और फिर विस्तार में चारों तरफ फैलने लगा। शुरू में लोगों को यकीन नहीं था कि पानी इस तरह से फैलेगा कि जल-थल बराबर हो जाएगा।
इस इलाके में वैसे भी सांमती व्यवस्था के कारण लोकतांत्रिक नेतृत्व का अभाव था। जन-संचार माध्यमों की ऐसी कमी थी कि लोग आजादी मिलने के बाद भी कई बरस नहीं जान पाए थे कि अंग्रेजी राज खत्म हुआ। गहरवार राजाओं के वैभव के किस्से उन ग्रामवासियों की जुगाली का सामान थे।
फिर स्वतंत्र भारत का एक बड़ा पुरस्कार उन लोगों को यह मिला कि उन्हें अपनी जन्मभूमि से विस्थापित होना पड़ा। वे ताम-झाम लेकर दर-दर के भिखारी हो गए। ऐसी जगह भाग जाना चाहते थे कि जहाँ महा-प्रलय आने तक डूब का खतरा न हो। ऐसे में मोरवा, बैढ़न, रेणूकूट, म्योरपुर, बभनी, चपकी आदि पहाड़ी स्थानों की तरफ वे अपना साजो-सामान लेकर भागे। अभी वे कुछ राहत की साँस लेना ही चाहते थे कि कोयला निकालने के लिए कोयला कंपनियों ने उनसे उस जगह को खाली कराना चाहा। ताप-विद्युत कारखाना वालों ने उनसे जमीनें माँगीं। वे बार-बार उजड़ते-बसते रहे।
कल्लू के बूढ़े दादा डूब के आतंक से आज भी भयभीत हो उठते थे। उनके दिमाग से बाढ़ और डूब के दृश्य हटाए नहीं हटते थे। हटते भी कैसे? उनके गाँव को, उनकी जन्म-भूमि को, उनके पुरखों की कब्रगाहों-समाधियों को इस नामुराद बाँध ने लील लिया था।
ये विस्थापन ऐसा था जैसे किसी बड़े जड़ जमाए पेड़ को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह रोपा जाए...
क्या अब वे लोग कहीं भी जम पाएँगे?
कल्लू के दादा की आँखें पनिया जातीं जब वह अपने विस्थापन की व्यथा का जिक्र करते थे। जाने कितनी बार उसी एक कथा को अलग-अलग प्रसंगों पर उनके मुख से यूनुस को सुन चुका था।
दादा एक सामान्य से देहाती थे। खाली न बैठते। कभी क्यारी खोदते, कभी घास-पात उखाड़ते या फिर झाड़ू उठाकर आँगन बुहारने लगते।
दुबली-पतली काया, झुकी कमर, चेहरे पर झुर्रियों का इंद्रजाल, आँखों पर मोटे शीशे का चश्मा, बदन पर एक बंडी, लट्ठे की परधनी, कंधे पर या फिर सिर पर पड़ा एक गमछा और चलते-फिरते समय हाथों में एक लाठी।
वह बताते कि उस साल बरस बरसात इतनी अधिक हुई कि लगा इंद्र देव कुपित हो गए हों। आसमान में काले-पनीले बादलों का आतंक कहर बरसाता रहा। बादल गरजते तो पूरा इलाका थर्रा जाता।
यूनुस भी जब सिंगरौली इलाके में आया था तब पहली बार उसने बादलों की इतनी तेज गड़गड़ाहट सुनी थी। शहडोल जिले में पानी बरसता है लेकिन बादल इतनी तेज नहीं गड़गड़ाया करते। शहडोल जिले में बारिश अनायास नहीं होती। मानसून की अवधि में निश्चित अंतराल पर पानी बरसता है। जबकि सिंगरौली क्षेत्र में इस तरह से बारिश नहीं होती। वहाँ अक्सर ऐसा लगता है कि शायद इस बरस भी बारिश नहीं होगी। एक-एक कर सारे नक्षत्र निकलते जाते हैं और अचानक कोई नक्षत्र ऐसा बरसता है कि सारी संभावनाएँ ध्वस्त हो जाती हैं। लगता है कि बादल फट पड़ेंगे। अचानक आसमान काला-अँधेरा हो जाता है। फिर बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली की चमक के साथ ऐसी भीषण बरसात होती कि लगे जल-थल बराबर हो जाएगा।
वैसे इधर-उधर से आते-जाते लोगों से सूचना मिलती रहती कि पानी धीरे-धीरे फैल रहा है। लेकिन किसे पता था कि अनपरा, बीजपुर, म्योरपुर, बैढ़न, कोटा, बभनी, चपकी, बीजपुर तक पानी के विस्तार की संभावना होगी।
तब देश में कहाँ थी संचार क्रांति? कहाँ था सूचना का महाविस्फोट? तब कहाँ था मानवाधिकार आयोग? तब कहाँ थी पर्यावरण-संरक्षण की अवधारणा? तब कहाँ थे सर्वेक्षण करते-कराते परजीवी एनजीओ? तब कहाँ थे विस्थापितों को हक और न्याय दिलाते कानून?
नेहरू के करिश्माई व्यक्तित्व का दौर था। देश में कांग्रेस का एकछत्र राज्य। नए-नए लोकतंत्र में बिना शिक्षित-दीक्षित हुए, गरीबी और भूख, बेकारी, बीमारी और अंधविश्वास से जूझते देश के अस्सी प्रतिशत ग्रामवासियों को मतदान का झुनझुना पकड़ा दिया गया। उनके उत्थान के लिए राजधानियों में एक से बढ़कर एक योजनाएँ बन रही थीं। आत्म-प्रशंसा के शिलालेख लिखे जो रहे थे।
अंग्रेजी राज से आतंकित भारतीय जनता ने नेहरू सरकार को पूरा अवसर दिया था कि वह स्वतंत्र भारत को स्वावलंबी और संप्रभुता संपन्न बनाने में मनचाहा निर्णय लें।
देश में लोकतंत्र तो था लेकिन बिना किसी सशक्त विपक्ष के।
इसीलिए एक ओर जहाँ बड़े-बड़े सार्वजनिक प्रतिष्ठान आकार ले रहे थे वहीं दूसरी तरफ बड़े पूँजीपतियों को पूँजी-निवेश का जुगाड़ मिल रहा था।
यानी नेहरू का समाजवादी और पूँजीवादी विकास के घालमेल का मॉडल।
आगे चलकर ऐसे कर्इ सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को बाद की सरकारों ने कतिपय कारणों से अपने चहेते पूँजीपतियों को कौड़ी के भाव बेचने का षड्यंत्र किया।
पुराने लोग बताते हैं कि जहाँ आज बाँध है वहाँ एक उन्नत नगर था। गहरवार राजा की रियासत थी। केवट लोग बताते हैं कि अभी भी उनके महल का गुंबद दिखलाई पड़ता है।
गहरवार राजा भी होशियार नहीं थे। कहते हैं कि उनके पुरखों का गड़ा धन डूब गया है।
असल सिंगरौली तो बाँध में समा चुकी है।
आज जिसे लोग सिंगरौली नाम से पुकारते हैं वह वास्तव में मोरवा है।
तभी तो जहाँ सिंगरौली का बस-स्टैंड है उसे स्थानीय लोग पंजरेह बाजार नाम से पुकारते हैं।
कल्लू के दादा से खूब गप्पें लड़ाया करता था यूनुस।
वे बताया करते कि जलमग्न सिंगरौली रियासत में सभी धर्म-जाति के लोग बसते थे।
सिंगरौली रियासत धन-धान्य से परिपूर्ण थी।
तीज-त्योहार, हाट-बाजार और मेला-ठेला हुआ करता था। तब इस क्षेत्र में बड़ी खुशहाली थी। लोगों की आवश्यकताएँ सीमित थीं। फिर कल्लू के दादा राज कपूर का एक गीत गुनगुनाते - 'जादा की लालच हमको नहीं, थोड़ा से गुजारा होता है।'
मिर्जापुर, बनारस, रीवा, सीधी और अंबिकापुर से यहाँ के लोगों का संपर्क बना हुआ था।
यूनुस मुस्लिम था इसलिए एक बात वह विशेष तौर बताते कि सिंगरौली में मुहर्रम बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता था।
सभी लोग मिल-जुल कर ताजिया सजाते थे।
खूब ढोल-ताशे बजाए जाते।
तैंयक तक्कड़ धम्मक तक्कड़
सैंयक सक्कर सैंयक सक्कर
दूध मलीदा दूध मलिद्दा...
खिचड़ा बँटता, दूध-चीनी का शर्बत पिलाया जाता।
सिंगरौली के गहरवार राजा का भी मनौती ताजिया निकलता था। मुसलमानों के साथ हिंदू भाई भी शहीदाने-कर्बला की याद में अपनी नंगी-छाती पर हथेली का प्रहार कर लयबद्ध मातम करते।
'हस्सा-हुस्सैन... हस्सा-हुस्सैन'
कल्लू के दादा बताते कि उस मातम के कारण स्वयं उनकी छाती लहू-लुहान हो जाया करती थी। वह लाठी भाँजने की कला के माहिर थे। ताजिया-मिलन और कर्बला ले जाने से पहले अच्छा अखाड़ा जमता था। सैकड़ों लोग आ जुटते थे। थके नहीं कि सबील-शर्बत पी लेते, खिचड़ा खा लेते। रेवड़ियों और इलाइचीदाने का प्रसाद खाते-खाते अघा जाते थे।
यूनुस ने भी बचपन में एक बार दम भर कर मातम किया था, जब वह अम्मा के साथ उमरिया का ताजिया देखने गया था। सलीम भाई तो ताजिया को मानता न था। उसके अनुसार ये जहालत की निशानी है। एक तरह का शिर्क (अल्लाह के अलावा किसी दूसरी जात को पूजनीय बनाना) है। खैर, ताजिया की प्रतीकात्मक पूजा ही तो करते हैं मुजाविर वगैरा...
यूनुस ने सोचा कि अगर लोग उस ताजिया को सिर झुकाकर नमन करते हैं तो कहाँ मना करते हैं मुजाविर! उनका तो धंधा चलना चाहिए। उनका ईमान तो चढ़ौती में मिलने वाली रकम, फातिहा के लिए आई सामग्री और लोगों की भावनाओं का व्यावसायिक उपयोग करना ही तो होता है। साल भर इस परब का वे बेसब्री से इंतजार करते हैं। हिंदू-मुसलमान सभी मुहर्रम के ताजिए के लिए चंदा देते हैं।
उमरिया में तो एक से बढ़कर एक खूबसूरत ताजिया बनाए जाते हैं। लाखों की भीड़ जमा होती है। औरतों और मर्दों का हुजूम। खूब खेल-तमाशे हुआ करते हैं। जैसे-जैसे रात घिरती जाती है, मातम और मर्सिया का परब अपना रंग जमाता जाता है। कर्इ हिंदू भाइयों पर सवारी आती है। लोग अँगुलियों के बीच ब्लेड के टुकड़े दबा कर नंगी छातियों पर प्रहार करते हैं, जिससे जिस्म लहू-लुहान हो जाता है।
र्इरानी लोग जो चाकू-छुरी, चश्मा आदि की फेरी लगाकर बेचा करते हैं, उनका मातम देख तो दिल दहल जाता है। वे लोग लोहे की जंजी़रों पर काँटे लगा कर अपने जिस्म पर प्रहार कर मातम करते हैं।
कुछ लोग शेर बनते हैं।
शेर का नाच यूनुस को बहुत पसंद आया था।
रंग-बिरंगी पन्नियों और कागजों की कतरनों से सुसज्जित ताजियए के नीचे से लोग पार होते। हिंदू और मुस्लिम औरतें, बच्चे और आदमी सभी बड़ी अकीदत के साथ ताजिए के नीचे से निकलते। यूनुस ने देखा था कि एक जगह एक महिला ताजिया के सामने अपने बाल छितराए झूम रही है।
डूब में बसे कस्बे में मुहर्रम के मनाए जाने का कुछ ऐसा ही दृश्य कल्लू के दादा बताया करते थे।
लोगों का जीवन खुशहाल था।
रबी और खरीफ की अच्छी खेती हुआ करती थी।
उस इलाके की खुशहाली पर अचानक ग्रहण लग गया।
लोगों ने सुना कि अब ये इलाका जलमग्न हो जाएगा।
किसी ने उस बात पर विश्वास नहीं किया।
सरकारी मुनादी हुर्इ तो बड़े-बुजुर्गों ने बात को हँस कर भुला दिया। अभी तो देश आजाद हुआ है। अंग्रेज भी ऐसा काम न करते, जैसा आजाद भारत के कर्णधार करने वाले थे।
इस बात पर कौन यकीन कर सकता था कि गाँव के गाँव, घर-बार, कार्य-व्यापार, देव-स्थल, मस्जिदें, कब्रगाहें सब जलमग्न हो जाएँगी। और तो और गहरवार राजा का महल भी डूब जाएगा।
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर बसा सिंगरौली क्षेत्र। उस क्षेत्र के लोगों की चिंता उत्तर प्रदेश की सरकार को थी और न मध्य प्रदेश की सरकार को।
रेणूकूट में बाँध बन कर तैयार हो चुका था। धीरे-धीरे पानी का स्तर बढ़ रहा था। सरकारें खामोशी से डूब की प्रतीक्षा कर रही थीं। स्थानीय लोग ये मानने को मानसिक रूप से तैयार न थे कि अंग्रेजों के जाने के बाद एक ऐसा समय भी आएगा जब उन्हें अपने पूर्वजों की समाधियों को, अपने कुल-देवताओं को, अपनी जन्म-भूमि को छोड़ना पड़ेगा। अपनी मातृभूमि से उन्हें बेदखल होना पड़ेगा। विस्थापन का दंश झेलना पड़ेगा।
लोगों को कहाँ मालूम था कि देश के एक बड़े उद्योगपति बिड़ला की इच्छा है कि उन्हें एल्यूमिनियम बनाने का एशिया-प्रसिद्ध प्लांट यहीं डालना है, क्योंकि ये एक पिछड़ा इलाका है। यहाँ किसी तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होगा। किसी तरह की प्रशासनिक अड़चनों का सामना नहीं करना होगा। कम से कम लागत पर अत्यधिक लाभ का अवसर वहाँ था।
हवाई जहाज द्वारा इस इलाके की प्राकृतिक संपदा का आकलन हो चुका था।
बिड़ला जी द्वारा लाखों एकड़ की वन-भूमि पर कब्जा हो चुका था। प्लांट के लिए उपकरण आयात किए जा रहे थे।
आधुनिक युग के तीर्थ उद्योग-धंधे होंगे, नेहरू का नया मुहावरा देश की फिजा में गूँज रहा था।
नेहरू की तिलस्मी छवि के लिए देश में कोर्इ चैलेंज न था।
गांधी-नेहरू मित्र बिड़ला जी को अपने भावी उद्योग के लिए चाहिए थी सस्ती जमीन, आयातित उपकरण और पर्याप्त मात्रा में बिजली।
बिजली के लिए जरूरी था पानी और कोयला।
पानी के लिए तो नेहरू बनवा ही रहे थे बाँध और र्इंधन के लिए सिंगरौली क्षेत्र में था कोयले का अकूत भडार।
सिंगरौली क्षेत्र में है एशिया की सबसे मोटी कोयला परतों में से एक परत 'झिंगुरदह सीम' जो कि लगभग एक सौ पचास मीटर मोटी है।
झिंगुरदह खदान से कोयला 'एरियल रोप-वे' द्वारा बिड़ला जी के पावर प्लांट 'रेणुसागर' में आता। रेणूसागर में ताप-विद्युत तकनीकी से बिजली बनती जिसे सीधे रेणुकूट में स्थित एल्यूमिनियम कारखाने में भेजा जाता था।
कोयला उद्योग का जब इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीयकरण किया तभी से सिंगरौली कोयला क्षेत्र में सुव्यवस्थित कोयला उत्पादन की योजनाएँ बनीं। बाँध के इर्द-गिर्द मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश की राज्य सरकारों ने और एनटीपीसी ने अपने ताप-विद्युत केंद्र स्थापित किए।
एक समय था जब दादा-पुरखे किसी को शाप देते तो यही कहते थे - 'जा बैढ़न को...'
आज वही अभिशप्त बैढ़न नव-उद्यमियों, तकनीशियनों, पूँजीपतियों, पब्लिक स्कूलों, गैरसरकारी संगठनों, धार्मिक-आध्यात्मिक व्यवसायियों आदि के लिए स्वर्ग बना हुआ है।
एक से एक सर्वसुविधायुक्त नए-नए नगर स्थापित हो रहे हैं। बैढ़न में जमीन की कीमतें आकाश छू रही हैं।
आज सिंगरौली एक ऊर्जा-तीर्थ के रूप में याद किया जाता है।