पहचान / भाग 4 / अनवर सुहैल

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यूनुस कोर्इ बाल-ब्रह्मचारी न था और न सदाचार के लिए कृत-संकल्पित युवक।

वह अपने आसपास के अन्य सैकड़ों किशोरों और युवाओं की तरह अपनी शारीरिक क्षमताओं और कमजारियों के प्रति आशंकित रहता था। उसके मन में सहज जिज्ञासा थी कि इंसान के जीवन का ये कैसा अध्याय है, जिसके प्रति सयाने-बुजुर्ग इतनी घृणा का प्रदर्शन करते हैं। क्या वे वाकर्इ इन गोपन-क्रियाओं के प्रति अनासक्त होते हैं? नहीं, बल्कि इस अनूठी-प्राकृतिक क्रिया में वे आकंठ डूबे होते हैं।

यूनुस एक ऐसे निम्न-मध्यम वर्गीय मुस्लिम परिवार में पैदा हुआ था, जहाँ दो कमरे में पूरी गृहस्थी समार्इ हुर्इ थी।

जहाँ माता-पिता के बीच प्रेम और घृणा प्रकट करने के लिए कोर्इ पृथक व्यवस्था न थी।

जहाँ हर दो-चार साल के अंतराल में एक संतान का जन्म लेना साधारण घटना थी।

जहाँ बड़े-बुजुर्ग, बच्चों के सामने मुहल्ले के लोगों से खुलकर हँसी-ठिठोली करते थे।

जहाँ स्त्रियाँ आपस में गोपन रहस्यों पर इशारतन बतिया कर अवर्णनीय आनंद उठाया करतीं।

इन ठिठोलियों में देवर-भौजार्इ के रिश्ते से उपजी अश्लील शब्दावली आम थी।

बच्चे जान जाते थे कि जब सड़ा केला-पिलपिला पपीता कहा जाता है तो उसका भावार्थ क्या होता है ?

जब गहरा कुआँ और छोटी रस्सी की बात करके बड़े हँस रहे हैं तो उसका अर्थ क्या हो सकता है?

जब खलबट्टा से मसाला कुटार्इ की बात होती है तो मार कहाँ होती है।

परिणामतः उन परिवारों की बेटियाँ असमय युवा होकर नैन-मटक्का करते-करते घर से भाग जाती हैं या फिर बिन-ब्याही माँ बन जाती हैं।

उन परिवारों के लड़के बुआ-मौसी, चाची-काकी, अविवाहित दीदियों या फिर घरेलू नौकरानियों के संपर्क में आकर युवा अनुभवों का पाठ पढ़ते हैं।

इसीलिए यूनुस के, बचपन से जवानी तक के अध्याय निर्दोष न थे।

बीना कोयला खदान में काम के दौरान कल्लू यूनुस का अंतरंग मित्र बन गया।

कल्लू बाल-बच्चेदार किंतु बहुत लापरवाह किस्म का युवक था। यूनुस ने उसकी बीवी को देखा था। वह मुटा कर भैंस हो गर्इ थी।

कल्लू की मौसी दिखती थी वो।

कल्लू के लिए तीन लड़कियाँ और एक लड़का जन चुकी थी वो।

अगर सारे बच्चे जिंदा होते तो अब तक वह पाँच बार माँ बन चुकी थी। एक बार गर्भपात हुआ था। अब उसके जिस्म में रस न था। बच्चों को पाल ले, कल्लू को बस इतनी ही चाह थी उससे।

कल्लू इसीलिए इधर-उधर मुँह मारा करता।

कल्लू ने यूनुस को भी 'स्वाद चखने' का न्योता दिया।

वह कहा करता - 'तुम अपने अल्ला के पास जाओगे, तो अल्ला पूछेगा, धरती पर क्या किया? जब तुम बताओगे कि न मैंने दारू पिया, न जेल गया, न रंडीबाजी की तो अल्ला बड़ी जोर से हँसेगा और दो किक मार कर इस दुनिया में दुबारा भेज देगा कि बच्चू जब कुछ किया ही नहीं फिर यहाँ कैसे आ गए।'

इसी तरह की बातें करके वह यूनुस को तैयार करता।

और एक दिन यूनुस तैयार हो ही गया।

उसने कल्लू के प्रस्ताव को एक चैलेंज माना।

हालाँकि उसका अंतर्मन इस बात के लिए तैयार न था।

कल्लू उसे आजाद नगर के उस हिस्से में ले गया जहाँ जिस्म-फरोशी होती थी।

झोंपड़ियों की कतारें। बीच में गली। ठेले पर चना, मूँगफली, नमकीन और अंडे की दुकानें। कुछ पान की गुमटियाँ। चाय-समोसे के लिए होटल एक झोंपड़ी में।

माहौल में अजीब तरह की सड़ांध। जैसे कहीं कोर्इ जानवर मरा हो। हवा में हल्की सी नमी व्याप्त थी। बारिश का मौसम खत्म हुआ था और शरद का आगमन हो चुका था। सायंकालीन आकाश का रंग हल्का लाल, पीली और नीला था। सारे रंग धीरे-धीरे धुँधलाते जा रहे थे। लगता था कि जल्द ही आसमान पर सुरमर्इ रंगत छा जाएगी।

कामगार काम से छूटकर घर लौट रहे थे।

झोपड़ियों के दरवाजे खुलने लगे थे।

मर्द घर के बाहर खाट डाल कर बैठने लगे थे। गाँजा-चिलम का दौर शुरू हो रहा था। दारू पीने वाले मजदूर बन-ठन कर भट्टी की ओर जा रहे थे।

झोपड़ियों में अब चूल्हे सुलगाने का उपक्रम होने लगा। मजदूर अमूमन काम से लौट आए थे। दर्रा नाले में नहाकर औरतें, मर्द और बच्चे लौट रहे थे।

दर्रा नाला एक बदनाम जगह का पर्याय बन चुका था।

लोग जानते थे कि यहाँ सुबह से शाम तक मजदूर स्त्री-पुरुषों के नहाने का कार्यक्रम निर्विघ्न चला करता है।

बीना-वासी दर्रा-नाले को 'वैतरणी' का नाम देते या फिर उसे 'राम तेरी गंगा मैली' कहते। कॉलोनी के बदमाश लड़के स्कूल से भागकर दर्रा नाला के आसपास मँडराते रहते और छुप-छुप कर नहाती स्त्रियों को देखा करते।

यूनुस सहमा-सहमा आजाद-नगर के माहौल का जायजा ले रहा था। उसके मन में भय था कि कहीं खालू का कोर्इ साथी उसे यहाँ देख न ले, वरना शामत आ जाएगी।

वैसे भी यूनुस का खालू से छत्तीस का आँकड़ा था। खालू उसे फूटी आँख पसंद न करते।

कल्लू यूनुस का हाथ थामे एक झोंपड़ी के सामने रुका।

यह निचली छानी वाली एक मामूली सी झोंपड़ी थी। बाहर परछी थी। परछी में एक खाट बिछी थी। कल्लू ने यूनुस को परछी में खाट पर बैठने का इशारा किया। फिर वह अंदर चला गया।

यूनुस खाट पर बैठा ही था कि दो नंग-धड़ंग बच्चे उसके पास चले आए - 'मालिक, चना खाने को पैसा दो ना!'

यूनुस ने उन्हें फटकारा।

वे टरे नहीं, जिद पर अड़े रहे।

तब तक कल्लू झोंपड़ी से बाहर निकला। उसने यूनुस को परेशान करते बच्चों की पीठ पर धौल जमार्इ। बच्चे तुरंत रफूचक्कर हो गए।

कल्लू ने यूनुस से फुसफुसाकर कहा - 'पहले तुम जाओ, समझे।'

यूनुस क्या कहता, उसे तो अनुभव लेना था। उसने 'हाँ' में सिर हिला दिया।

उसके दिल की धड़कनें तेज हो चुकी थीं। उसने अपने सीने पर हाथ रखा। दिल बड़ी तेजी से धड़क रहा था। माथे पर पसीना चुचुआने लगा था।

हिम्मत करके वह खटिया से उठा।

कल्लू उसकी जगह खाट पर बैठ गया।

यूनुस झिझकते-झिझकते झोंपड़ी के दरवाजे के पास जाकर खड़ा हुआ।

वह टीना-टप्पर ठोंक-ठाँक कर बनाया गया एक काम-चलाऊ दरवाजा था। उसने कल्लू की तरफ देखा।

कल्लू ने आँख के इशारे से बताया कि दरवाजा ठेलकर वह घुस जाए।

यूनुस ने दरवाजे को धक्का दिया। दरवाजा खुल गया।

अंदर लालटेन की मद्धम रोशनी थी।

वह अंदर पहुँचा तो उसने देखा कि कोने में एक चारपार्इ है और जमीन पर भी बिस्तर बिछा है।

जमीन के बिस्तर पर एक अधेड़ महिला बैठी है। ठीक उसकी खाला की उम्र की महिला। उसने सिर्फ लहँगा और ब्लाउज पहन रखा है। वह एक छोटे से आर्इने को एक हाथ से पकड़े अपने होठों पर लिपिस्टिक लगा रही है।

यूनुस को देखकर उसने उसे खटिया पर बैठने का इशारा किया।

यूनुस का मन वितृष्णा से भर उठा।

उसकी रंगत साँवली थी जो लालटेन की मद्धम रोशनी में काली नजर आ रही थी।

महिला ने उसे एक बार फिर गौर से देखा और हँसी। यूनुस ने देखा कि उसके सामने के दो दाँत टूटे हैं।

लालटेन की धुँधली रोशनी में उसका हँसता चेहरा किसी चुड़ैल की तरह नजर आया।

यूनुस को उबकार्इ आने लगी।

अभी तक उसने कोठा देखा था तो सिर्फ सिनेमा में। जहाँ वेश्याओं का रोल नामी-गिरामी हीरोइनें किया करती हैं। रेखा, माधुरी दीक्षित, तब्बू, करिश्मा कपूर, रवीना आदि हीरोइनें जब वेश्याएँ बनती हैं तों कितनी खूबसूरत दिखा करती हैं। एक से बढ़कर एक हीरो इन वेश्याओं के दीवाने होते हैं। अरे, 'मंडी' पिक्चर में भी वेश्याएँ कितनी खूबसूरत थीं।

आजाद नगर में तो सारा हिसाब ही उल्टा-पुल्टा है।

महिला यूनुस के पास आकर खाट पर बैठ गर्इ।

उसने ब्लाउज के बटन खोलते हुए कहा - 'लेट नहीं, जल्दी करो। जादा टैम नहीं लेना।'

ब्लाउज के बटन खुले और... यूनुस को काटो तो खून नहीं।

वह तब तक बेहद घबरा चुका था।

अभ्यस्त महिला जान गर्इ कि बालक नर्वस है। उसने यूनुस का हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचा।

यूनुस ने उसके हाथ की सख्ती महसूस की। वह एक खुरदुरा-पथरीला हाथ था।

यूनुस की रही-सही ताकत जवाब दे गर्इ।

उसने महिला से हाथ छुड़ाया और उठते हुए बस इतना ही कहा - 'थोड़ा बाहर से होकर आता हूँ।'

और बिना देर किए कमरे से बाहर निकल आया।

कल्लू ने सवालिया निगाहों से उसे देखा और इशारों में पूछा - 'हो गया!'

यूनुस ने इशारे में बताया - 'हाँ!'

फिर कल्लू अंदर घुसा तो यूनुस तत्काल उस आजाद नगरी से नौ-दो ग्यारह हो गया।

उसके बाद उसने कल्लू की दोस्ती भी छोड़ दी थी।