पहचान / भाग 5 / अनवर सुहैल

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चाय कब खत्म हुर्इ, वह जान न पाया।

एक रुपए की एक कप चाय वह पी चुका था और उसे उस चाय की तासीर का इल्म भी न हुआ।

यूनुस को सनूबर 'चहेड़ी' कहती।

खालू चाय के दुश्मन हैं। चाय को खालू जहर कहा करते। खाला चाय की बेहद शौकीन थीं। खाला के घर के अजीब हालात थे। खालू जिस चीज के खिलाफ होते, खाला उस काम को धड़ल्ले से करतीं। खालू बड़बड़ाते तो खाला तिरस्कार से हँसतीं।

यूनुस का मन उस एक कप चाय से न भरा।

उसने होटल वाली से एक और कप चाय के लिए कहा।

केतली में चाय बची थी।

महिला उसे कप में ढालने लगी तो यूनुस ने उसे टोका - 'ठंडा गर्इ होगी। तनि गरमा लेर्इ।'

केतली की चाय को महिला ने भट्टी पर गरमाया।

फिर उसके लिए चाय कप में न ढाल कर काँच के गिलास में ढाली।

यूनुस ने देखा कि चाय की मात्रा एक कप से ज्यादा है।

गिलास देते वक्त यूनुस ने महसूस किया कि महिला ने अपनी अँगुलियों का स्पर्श होने दिया है। वह मुस्कराया।

इस बार की चाय ने उसे तृप्त किया।

उसने सोचा अब सिंगरौली स्टेशन की ठंड उसका बाल बाँका नहीं कर सकती।

चाय के पैसे देने लगा तो छुट्टा वापस करते हुए पूछा - 'कहाँ तक जाना है?'

यूनुस क्या बताता। हर बार तो वह ऐसे ही निकल पड़ता है, बिना गंतव्य के बारे में जाने। इस बार भी वह एक अंधी छलाँग लगा रहा है। हाँ, ये जरूर है कि ये छलाँग बिना बैसाखी के वह लगाएगा। वह स्वयं दौड़ेगा। फिर निशान देख कर कूद पड़ेगा। अब कितनी दूर तक उसकी छलाँग रहेगी ये तो वक्त बताएगा। उसे डर था कि कहीं रेफरी उसकी छलाँग को 'फाउल' न करार दे दे।

छुट्टा जेब में रखते हुए उसने महिला के प्रश्न का सहज उत्तर दिया - 'कटनी!'

सच भी है।

पहले तो उसे कटनी ही जाना है।

उसके बाद ही आगे की गाड़ी पकड़नी होगी।

वह वापस स्टेशन लौट आया।

प्लेटफार्म पर रनिंग-स्टाफ रूम के बाहर जलार्इ गर्इ आग के पास ही उसने खड़ा होना उचित समझा।

स्टाफ अब बतिया नहीं रहे थे। लगता है गप्पें मारते-मारते वे थक गए होंगे। अब वे ऊँघ रहे थे। उनके नीले ओवरकोट फर्श पर लिथड़ा रहे थे। उन्हें नींद सता रही थी।

यूनुस एक पेटी पर बैठ गया, जिसके साइड में लिखा था - 'ए बी दास, गार्ड'।

आँच में अब जान नहीं थी।

नया कोयला डालने पर ही कुछ ताप बढ़ता।

यूनुस ने स्वेटर के ऊपर विंड-चीटर पहन रखा था।

घर से निकला तब रात के नौ बजे थे। वातावरण काफी ठंडा हो गया था।

उसे हाथ और कानों में अधिक ठंड लगती थी।

बीना से औड़ी-मोड़ तक तो वह बस से आ गया। फिर औड़ी-मोड़ में उसे अगले साधन के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ी। सिंगरौली के लिए बनारस से बस आती है।

औड़ी-मोड़ इस इलाके की सबसे ठंडी जगह है।

उसे बस का बेसब्री से इंतजार था। वह चाहता था कि जल्दी से जल्दी खालू की पहुँच से दूर निकल जाए। कहीं उनका कोर्इ साथी उसे यहाँ सफर करते रंगे-हाथ पकड़ न ले।

इसीलिए वह आरटीओ चेक-पोस्ट के पास जाकर खड़ा हो गया। यहाँ बस रुकती है।

बस आर्इ तो उसे कुछ राहत मिली।

यह उत्तर-प्रदेश राज्य परिवहन निगम की बस थी।

लगता है राबर्ट्सगंज डिपो की बस थी। तभी तो एकदम खड़खड़ा रही थी।

बस के अंदर ठंड से बचने का सवाल न था। खिड़कियों के शीशे गायब थे। जिन खिड़कियों में शीशे थे भी तो वे ढंग से बंद न होते। पूरी बस में ठंडी हवा के तीर चल रहे थे।

यूनुस के हाथ और कान ठंडाने लगे और उसे सनूबर की याद हो आर्इ।

उसने तत्काल अपने विंड-चीटर के जेब की तलाशी ली।

वाकर्इ, सनूबर के दिल में उसके लिए एक कोना सुरक्षित है। वह अपना कर्तव्य भूली न थी। विंड-शीटर के एक जेब में सनूबर के हाथों से बुना दस्ताना था, और दूसरे में मफलर।

उसने दास्ताने पहने और जब मफलर से कान लपेटे तो लगा कि सनूबर अदृश्य रूप में उसकी सहयात्री है।

यूनुस भाग रहा था।

वह भाग रहा था, बहुत कुछ पाने के लिए और खो रहा था सनूबर का साथ।

वाकर्इ सनूबर है कि वह जिंदा है। उसने ही यूनुस के दिल में जिंदगी के चैलेंज को स्वीकार करने की इच्छा जगार्इ है।

सनूबर ने ही उसकी अंतरात्मा को ललकारा था कि यूनुस, जागो! दुनिया में कुछ कर दिखाना है तो समाज में पहले अपनी 'कुछ हटके' पहचान बनाओ!

वरना एक समय तो वह इतना हताश हो गया था कि उसे जीवन से मोह नहीं रह गया था। उसे ऐसा लगता था कि इतनी कम उम्र में इतने अपमान, इतने दुख उठाने से अच्छा है कि वह आत्महत्या कर ले।

वह दोस्तों के बीच और कभी-कभी खाला के सामने अक्सर कहता भी था कि जी करता है मर जाऊँ तो मुक्ति मिले।

मुक्ति...

लेकिन किससे?

जीवन से या कि दिन-प्रतिदिन के उलाहनों-तानों से?

लेकिन जीवन उसे सनूबर के रूप में अपने पास बुलाता - 'तुम मेरे हो। तुम्हें मेरी खातिर जीवित रहना है।'

जाने कैसे सनूबर इतनी संजीदा बातें बोलना सीख गर्इ है।

स्कूल जाती है न!

सहेलियों के बीच उठती-बैठती है।

घर में 'ब्लैक एंड व्हाइट' टीवी है। उसका चैनल बदल-बदल कर हिंदी फिल्मों और धारावाहिकों से यही सब तो सीखते हैं कॉलोनी के बच्चे।

एक और डायलाग जो यूनुस को अच्छा लगता - 'मैं तुम्हारा इंतजार करूँगी! तुम्हें मेरी खातिर आना होगा, यूनुस...'

वो मुहम्मद रफी का एक गाना है ना -

'हम इंतजार करेंगें तेरा कयामत तक

खुदा करे कि कयामत हो और तू आए।'

सनूबर की आँखें बड़ी-बड़ी हैं।

जब वह भावनाओं के बहाव में डूब-उतरा रही हो तब आँखें अधखुली रहतीं।

खोर्इ-खोर्इ सी, शून्य में ताकती आँखें।

सनूबर अभी कक्षा आठ की छात्रा ही तो है।

चौदह साल की उम्र में इतनी बड़ी बात...

'मेरी खातिर' और 'मैं तुम्हारा इंतजार करूँगी!'

प्रेमातिरेक में डूबी भावुक बातें!

सनूबर कर्इ बातों में अपने खानदान से कुछ हट के नजर आती।

गोरी-चिट्टी सनूबर वाकर्इ अपने भार्इ-बहनों के बीच अलग दीखती। उसके नैन-नक्श अपनी माँ पर हैं। गोलाकार चेहरा, संतुलित बनावट, माथा कम चौड़ा और लंबे बाल।

खालू की परछार्इं भी नहीं पड़ी जरा सी।

यदि वह खालू या उनके खानदान के किसी का साया पड़ा होता तो उसकी बड़ी-बड़ी आँखों की जगह अंदर की ओर धँसी हुर्इ गोल कटोरियाँ होतीं।

पतले होठों की जगह खालू की तरह मोटे और ऊपर की तरफ पल्टे हुए बेढंगे से होंठ होते।

सनूबर खाला-खालू की पहली संतान थी।

खालू भारतीय सेना की नौकरी पर थे तब सनूबर का जन्म हुआ था।

सैनिकों के बीच वयस्क मजाक हुआ करते। यदि सैनिक यूपी-बिहार का है और उसके बाप बनने की खबर आती तो हल्ला होता कि फलाँ ने अपना लँगोट गाँव भेज दिया था, सो बच्चा हो गया है।

यदि वह इन दोनों प्रांत छोड़ किसी अन्य प्रांत का है तब कहा जाता कि सैनिक को 'पत्र-पुत्र' की प्राप्ति हुर्इ है।

यानी घर से पत्र द्वारा सूचना आना कि फला सैनिक बाप बन गया है।

खालू तब राजस्थान बार्डर पर थे, जब उन्हें पत्र द्वारा सूचना मिली कि वे पहली संतान के पिता बन गए हैं।

लेकिन ये बात खालू बखूबी जानते थे कि सनूबर के रूप में 'पत्र-पुत्री' ही तो मिली है।

यूनुस को इन सबसे क्या? वह जानता था कि सनूबर एक अच्छी लड़की है। देखने-सुनने में ठीक है। पढ़-लिख रही है। घर का काम-काज ठीक-ठाक निपटा लेती है। कु़रआन पाक की तिलावत कर लेती है। रमजान माह में उन खास दिनों के अलावा बाकी के रोजे पूरे रखती है। नमाज यदा-कदा पढ़ लेती है।

रिश्ते में सनूबर और यूनुस भार्इ-बहिन थे।

खालाजाद भार्इ-बहिन!

यूनुस ये भी जानता था कि इस्लामी समाज में ये रिश्ता प्रेम या शादी के लिए बाधक नहीं!