पहचान / भाग 6 / अनवर सुहैल

Gadya Kosh से
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यूनुस ने अपनी अम्मा के मुँह से खाला के बारे में कर्इ बातें सुनी हैं।

खाला तब तेरह बरस की थीं, जब उनका ब्याह हुआ था।

यूनुस की अम्मा खाला से दो-तीन साल बड़ी थीं।

यूनुस का ननिहाल बेहद गरीबी में अपने दिन काटा करता था। असुविधाओं और घोर अभावों के बीच खाला और अम्मा पली-बढ़ीं।

उनके पिता मूलतः चरवाहा थे।

अपने गाँव और आस-पास के एक-दो गाँव वालों की बकरियाँ चराते थे।

यूनुस के नाना का नाम था जहूर मियाँ।

पतली-दुबली काया, हाथ-पैर किसी पेड़ की टहनी जैसे टेढ़े-मेढ़े, पिचके गालों पर झुर्रियाँ, ठुड्डी पर थोड़े से काले-सफेद बाल, मूँछें सफाचट, और गंजे सिर पर लपेटा गया गमछा। वह गमछा हमेशा उनके साथ रहता। बदन पर वह एक लट्ठे के कपड़े की बंडी और नीचे चौखाने वाला तहमद पहनते। जहूर मियाँ के कपड़े सप्ताह में दो बार धुलते।

खाला का नाम सकीना था।

यूनुस की अम्मा का नाम अमीना।

अम्मा बताती हैं कि खाला बचपन से ही बड़ी झगड़ालू थीं। वह गाँव के लड़कों को पीट दिया करती थीं। लड़के उनसे सीधा-सीधा लड़ने से घबराते। बोलते, ये सकीना मुसल्ली बड़ी बदमाश है। उससे निपटना हो तो उस पर चोरी से वार करो। लड़के मंसूबे बनाते रह जाते और अक्सर पिट जाते।

ऐसी दुष्ट लड़की थीं खाला।

सलवार-कुर्ता साल में एक बार बनता, र्इद के मौके पर। एक जोड़ी कपड़ा पिछले साल का और एक नए साल का। बस यही दो जोड़ी कपड़े हुआ करते थे। हाँ, दो बहनों के नए-पुराने कपड़ों को अगर एक कर दिया जाए तो इस तरह चार जोड़ी कपड़े हो जाते थे। नहाने-धोने के लिए पिता का तहमद बदन लपेटने के काम आ जाता।

गाँव में तीन कुएँ थे। एक तो बामनों का था। एक कुर्मियों का और तीसरे कुएँ का पानी मुसलमान और छोटी जाति के लोग इस्तेमाल करते। फिर प्राथमिक विद्यालय के प्रांगण में एक हैंड-पंप भी लग गया था।

पीने का पानी कुएँ से आता और नहाने-धोने के लिए वे गाँव के बाहर से बहने वाली पहाड़ी नदी जाया करते थे। जहाँ आराम से खाला और अम्मा अपनी सहेलियों के संग नहाया करतीं।

यूनुस की नानी बीमार रहा करतीं। उन्हें खून की उल्टियाँ होतीं। गाँव में टीबी जैसी बीमारी का नाम लोग मुँह में न लाते। भूत-जिन्न-चुड़ैल के प्रकोप ही सारी बीमारियों के कारण हुआ करते। सयाने हर विपत्ति का हल गंडे-तावीज, तंत्र-मंत्र और रिद्धि-सिद्धि के जरिए करते। गाँव में जगह-जगह देवताओं के चौतरे बने थे।

पिता जहूर मियाँ जड़ी-बूटियों के स्वयंभू विशेषज्ञ थे। जंगल में बकरियाँ चराते-चराते उन्हें न जाने कितनी जड़ी-बूटियों की जानकारी हो गर्इ थी। वह साँप-बिच्छी काटने का मंत्र भी जानते थे। अपनी पत्नी के इलाज के लिए वह अजीबो-गरीब जड़ियाँ घर लाते। उन्हें स्वयं कूटते-छानते। उनका अर्क निकालते और पत्नी का इलाज करते।

जुमा की नमाज पढ़ने कस्बे जाते तो बड़े हाफिज्जी से मिन्नतें करके पत्नी के लिए ताबीज ले आते। इन सब टोने-टोटकों के कारण या फिर आयु-रेखा के कारण माँ की तबीयत कभी नरम होती कभी गरम। वह असमय मर गर्इं।

कहने को तो माँ ने पाँच बच्चे जने, लेकिन बचे सिर्फ तीन ही।

यूनुस की अम्मा बतातीं - 'अम्मा जादे दिन नहीं जिंदा रहीं। नहीं तो हम लोग ऐसे यतीम न होते।'

यूनुस के एकमात्र मामा गँजेड़ी-शराबी निकल गए।

अपने आँगन में गाँजा के पौधे रोपने के अपराध में जेल भी काट आए हैं। उन्होंने विधिवत शादी-ब्याह किया नहीं। गाँव की एक केवटिन को संग रखे हैं, सो उनसे बहनों ने रिश्ता तोड़ लिया है। जात-बिरादरी से उन्हें 'बैकाट' कर दिया गया है। कहते हैं केवटिन के पहले मर्द से हुए बच्चों को वही पालते हैं। उनके घर में मुसलमानों का कोर्इ परब-त्योहार नहीं मनाया जाता। हाँ, दीवाली, होली, खुजलइयाँ, रामनवमी आदि परब मनाए जाते हैं।

यूनुस के नाना जहूर मियाँ के मरने के बाद यूनुस की अम्मा और खाला एक बार उनके चहल्लुम के अवसर पर गाँव गर्इ थीं।

तब मामा और उस केवटिन मामी ने उनकी खिदमत तो दूर यूनुस के अब्बा और खालू की भी कोर्इ आव-भगत न की। खालू वैसे भी क्रोधी स्वभाव के व्यक्ति ठहरे। मिलिटरी के सैनिक। इतना गुस्साए कि खाला को तलाक देने की धमकी तक दे डाली। वो तो अब्बा के एक दोस्त बगल के गाँव में रहते थे। वह मिल गए और खालू को अब्बा वहीं ले गए। तब जाकर कहीं उनका गुस्सा ठंडाया था। फिर भी उन्होंने जीते जी उस गली में दुबारा कदम न रखने की कसम खा ही ली थी। किसी तरह चहल्लुम की फातिहा कराकर वे लोग जो वहाँ से लौटे तो फिर दुबारा उधर का रुख न किया।

मामा मरे चाहे चूल्हे में जाए।

यूनुस की अम्मा की शादी कोतमा में हुर्इ। यूनुस के अब्बा तब घूम-घूम कर अखबार बेचा करते थे। जहूर मियाँ को बड़े हाफिज्जी ने इस रिश्ते की जानकारी दी थी। बताया था कि लड़का यतीम जरूर है किंतु पढ़ा-लिखा है। उसमें कोर्इ ऐब नहीं। न कहो कभी बीड़ी पी लेता है। हाँ, खुद्दार है। स्वयं कमाता है। वहीं मदरसे में पला-बढ़ा है।

फिर बड़े हाफिज्जी ने मश्विरा दिया - 'तुम कहो तो वहाँ के इमाम से इस मंसूब के लिए बात करूँ। अल्लाह चाहेगा तो बात बन भी सकती है।'

नाना ने हामी भर दी।

और इस तरह बात पक्की हुर्इ और फिर उनका निकाह भी हो गया।

शादी के बाद पुरुष की किस्मत बदलती है।

यह बात अब्बा पर भी चरितार्थ हुर्इ।

उन्हें सिंचार्इ विभाग में अस्थायी चपरासी की नौकरी मिली।

उनमें पढ़ने की लगन तो थी ही।

प्राइवेट तौर पर हार्इ स्कूल की परीक्षा में बैठे।

उस साल परीक्षा केंद्र में जम कर नकल हुर्इ।

अब्बा पास हो गए और इस पढ़ार्इ के बदौलत वहीं तरक्की पाकर बाबू बन गए।

'डिस्पेच क्लर्क'।

ठेकेदार के मुंशी वगैरा आते और चिट्ठी-पत्री पाने के लिए खर्चा करते।

इससे थोड़ी बहुत ऊपरी आमदनी भी हो जाती थी।

राज्य-सरकार की नौकरी में वैसे भी तनख्वाह काफी कम थी।

कहते हैं कि अम्मा की शादी के बाद खाला भी पिता जहूर मियाँ को अकेला छोड़कर कोतमा अपनी बड़ी बहिन के ससुराल आ गर्इं।

शायद इसीलिए अब्बा मूड में रहते हैं तो कहते हैं कि एक ठो साली के अलावा मुझे दहेज में कहाँ कुछ मिला। ठग लिया ससुरे ने।

यूनुस ने अपनी अम्मा के मुँह से सुना कि खाला रोया करतीं और अल्लाह से दुआ माँगती कि अल्लाह मियाँ, या तो हमें अपने पास बुला लो या फिर हमरा निकाह करवा दो।

अब्बा और अम्मा के प्रयासों से पास के गाँव की विधवा के इकलौते बेटे से खाला का निकाह हुआ।

खालू फौज में नौकरी करते थे।

खालू की अंधी-बूढ़ी विधवा माँ कतर्इ नहीं चाहती थीं कि उनका लख्ते-जिगर, नूरे-नजर, कुलदीपक पुत्र फौज में भरती होकर जान जोखिम में डाले।

इसीलिए खालू ने अपनी माँ से चोरी-छिपे भरती-अभियान में भाग लिया।

कद-काठी तो ठीक थी ही।

गाँव का खेला-खाया जिस्म।

उनका चयन कर लिया गया था।

वे जानते थे कि माँ राजी न होंगी, सो उन्हें बिना बताए नौकरी ज्वाइन कर ली।

जब ट्रेनिंग के लिए बुलावा आया तो माँ को पता चला।

बेटे की जिद के आगे माँ झुकी।

बूढ़ी विधवा ने बेटे को घर से बाँधने के लिए युक्ति सोची। लगी अपने चाँद से बेटे के लिए कोर्इ हूर-परी सी बहू।

इधर-उधर बात चलार्इ।

फिर जहूर मियाँ की बेटी के बारे यूनुस के अब्बा से जानकारी मिली तो जैसे उनकी मन की मुराद पूरी हुर्इ।

सोचा गरीब घर की लड़की है। दिखावा न करेगी और बेटे की गृहस्थी की गाड़ी को ढंग से खींच ले जाएगी।

सो उन्होंने हामी भर दी।

खाला की उम्र तब तेरह-चौदह की होगी और खालू की चौबीस-पच्चीस।

वैसे कायदे से देखा जाए तो जोड़ी बेमेल थी।

लेकिन गाँव-गिराँव की लड़कियाँ अल्पायु में ही वैवाहिक जीवन की बारीकियाँ जान-समझ जाती हैं।

अरहर के खेत, नदी-नाले के घाट, पनघट-पगडंडी आदि में वे यौन क्रियाओं के गूढ़ सबक सीख जाती हैं।

बकरियाँ चराते-चराते खाला भी कुछ ज्यादा उच्छृंखल हो चुकी थीं।

कहते हैं कि उनके कर्इ आशिक थे।

वह बहुत होशियार थीं।

लाइन सभी को देती थीं, किंतु एक सीमा तक... बस्स!

हाँ, ममदू पहलवान की विनय के आगे उनकी एक न चलती, खाला इस तरह पिघलतीं, जैसे आग के आगे बर्फ।

विवाह के बाद खालू कुछ दिन गाँव में रहे।

खाला के तब दिन दशहरा और रात दीवाली हुआ करती थी।

फिर जैसे ही छुट्टियाँ खत्म हुर्इं, खाला की आँखों में आँसू देकर खालू फौज में वापस लौट गए। उन्होंने सुहागरात में खाला से कर्इ वादे करवाए।

जैसे कि उनकी विधवा माँ की देखभाल के लिए उन्होंने विवाह किया है, इसलिए उनकी देखभाल में कोर्इ चूक न हो।

जैसे कि वे घर में अकेले हैं, गाँव में तमाम खेती योग्य भूमि है, उसे इस्तेमाल लायक बनाया जाए ताकि फौज से रिटायरमेंट लेकर जब वह लौटें, तब आराम से खेती-किसानी करके दिन गुजारे जाएँगे।

जैसे खालू को अपनी और घर की इज्जत से प्यार है, खाला से ऐसा कोर्इ कदम न उठे, जिससे इस घर की मर्यादा पर बट्टा लगे।

खाला प्रेम की पींगें झूलती हर बात पर 'हाँ' कह देतीं।

उन्हें क्या मालूम था कि वादा करना आसान है और उसे निभाना कितना कठिन होता है।

खालू के फौज में वापस लौटते ही उनका मन ससुराल में न लगा।

बूढ़ी अंधी सास बड़ा हुज्जत करती।

बात-बात पर टोकती।

वैसे भी खाला एक आजाद पंछी की तरह अपने मैके में पली-बढ़ी थीं। उन्हें किसी का अंकुश या लगाम कहाँ बर्दाश्त होता।

सास की कल-कल से तंग आकर एक दिन वे अपने मैके चली गर्इं।

खालू की अनुपस्थिति में उनके अधिकतर दिन मैके में ही गुजरे। विवाह हो जाने के बाद ममदू पहलवान से उनका इश्क अब बेधड़क चल निकला। उनके प्रेम की गाड़ी पटरी या बिना पटरी के भी धकाधक दौड़ने लगी।