बिगड़ैल बच्चे / भाग 3 / मनीषा कुलश्रेष्ठ

Gadya Kosh से
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`नो नो वी आर प्योर वैजेटेरियन्स।' कहकर अध्यापिका महोदया ने अपना टिफिन उनके सामने से खींच लिया और मेरी तरफ मुंह कर के खाने लगीं। मैं खिड़की से सटकर बैठ गयी।

क्रीं किच कर के ट्रेन रुक गई। शायद चेन पुलिंग थी। यह दिल्ली के बाहर का औद्योगिक क्षेत्र था। यह तो रोज़ का किस्सा हैज्ञ् अनेक स्थानीय यात्री इस ट्रेन और फिर आठ बजे तक दिल्ली से चलने वाली हर ट्रेन में चढ़कर आते हैं, फिर बार-बार चेन पुलिंग होती है। दो घंटों में भी दिल्ली की सीमा से ट्रेन बाहर नहीं निकल पाती। शाम की ट्रेनों में भी यही हाल रहता है। काफी समय तो बरबाद होता ही है, साथ ही ये लोग प्रथम श्रेणी से लेकर, आरक्षित शायिकाओं तक हर जगह घुसे चले आते हैं। फिर यात्रियों के साथ बदतमीजी से पेश आते हैं। कोई लड़की या सुन्दर महिला यात्री दिख जाये तो उससे सट कर बैठ जायेंगे। उसके संरक्षक आपत्ति करें तो झगड़ा... फिर तो ये लोग ट्रेन को चलने ही नहीं देंगे। ट्रेन में तोड़-फोड़ करेंगे। यह व्यवस्था का ऐसा सुराख है जो बन्द नहीं हो सकता। सालों पुराना चलन है। यही देखते-देखते मैं युवा से प्रौढ़ हो चली हूं। आज भी मुझे इन लोगों से डर लगता है।

वो तो सौभाग्य से यह डिब्बा बहुत पीछे था सो इस डिब्बे में कोई झुण्ड नहीं चढ़ा... नहीं तो इस लड़की के कपड़ों और अदाआें पर यहां तो कत्ल हो जाते... और इसके ये दो मरगिल्ले से संरक्षक कुछ नहीं कर पाते। हिन्दी तक तो ठीक से समझ-बोल नहीं पाते। मैं भी सोचने लगी, ये खुलापन, इनकी इस कदर लापरवाही क्या इन्हें खतरों की तरफ नहीं ढकेलती? पढ़ाई, काम-धंधा कुछ करते भी हैं कि नहीं? उम्र तो देखो, मुश्किल से अठारह-उन्नीस के होंगे, छुटका तो पन्द्रह का सा लगता है। उस पर कैसे होंगे वे दु:साहसी माता-पिता जो इन्हें अकेले दुनिया देखने भेज दिया। ये ही शायद ऐसे हैं... विद्रोही किस्म के बिगड़ैल बच्चे। मन किया कि मैं भी कहूंज्ञ् `ब्लडी फकिन ब्रैट्स!'

हमारे भी सहपाठी, सहकर्मी क्रिश्र्चियन रहे हैं... पर ऐसा खुलापन कभी नहीं देखा। क्या ये किसी मुसीबत को समझदारी से सुलझा सकेंगे? खतरों से बच सकेंगे? छोड़ो... मुझे क्या पड़ी है? भाड़ में जायें। अच्छा ही हुआ जो मैंने अपने बेटे-बेटी को बहुत संयम और कठोर अनुशासन में पाला है। बेटा तो चलो ठीक है, दिल्ली आई.आई.टी. में पढ़ रहा है, पर निशि...!! मैंने एक ठण्डी सांस ली... ट्रेन धीमे-धीमे सरक रही थी।

मैंने स्वयं से सवाल पूछा... क्या मैंने बच्चों को सुरक्षित और कठोर अनुशासन में रखकर बहुत महान काम किया है? क्या निशि इस कठोर अनुशासन और अतिरिक्त सुरक्षित वातावरण में पल कर बेहद दब्बू बनकर नहीं रह गई। बस शादी कर देने भर से हमने क्या उसे सुरक्षित कर दिया?

अपनी होनहार एम. बी. ए. लड़की को बम्बई जाकर एक मल्टीनेशनल नौकरी नहीं करने दी...। हम दोनों ही डर गये थे। कितना रोई थी वह... पर हमारा मन नहीं माना। बाहरी दुनिया... यानी खतरों से भरी दुनिया। कह दिया था... यहीं रहकर करो नौकरी... या फिर कह दिया कि शादी के बाद कर लेना नौकरी। पति चाहे तो।

अब! एक-एक पैसे को पति का मुंह देखती है, कहने को बड़ा बिजनेस है उसके परिवार में, पर तीन भाइयों में सबसे छोटा उसका पति हमेशा बेवकूफ बनता है। खाने-पीने की कमी नहीं, बड़ा घर है, संयुक्त परिवार है। पर निशि अपने से कुछ खरीदना चाहे, कहीं घूमने जाना चाहे... वह सब नहीं हो पाता। मायके तक अब उसे अकेले ट्रेन में बच्चों के साथ आने में डर लगता है, दामाद के पास फुरसत नहीं कि वह छोड़ जाये। बस उसी को तो लेने जा रही हूं, निशि के पापा डायबिटिक हैं, वे घर से नहीं निकलते।

आज निशि आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती तो... निशि को उन्होंने उसकी पसन्द से शादी करने दी होती तो! तो! आज निशि का चेहरा इस सामने बैठी लड़की सा चमकता! सत्ताइस साल की उमर में वह पैंतीस की नहीं लगती... हर समय एक स्थायी हताशा उसके चेहरे पर नहीं होतीी!... लेकिन... ये बेहयाई! खतरों को आमंत्रित करता खुलापन! मैं असमंजस में थी। मुझे निशि के हालातों पर रोना आने लगा था।

सामने की सीट पर बड़ा लड़का और लड़की एक दूसरे पर ढलके सो रहे थे। डेबोनियर के ऊपर हैल्थ और रीर्डस डाइजेस्ट भी रखी थीं...चिप मैग्ज़ीन अधखुली ट्रेन के फर्श पर लोट रही थी। तो...आज का युवा सब कुछ पढ़ता है! छुटके ने फिर वॉकमैन चला लिया था पर इस बार थोड़ा कम लाऊड। डॉक्टर और उनकी पत्नी बड़ी तल्लीनता से रमी खेल रहे थे। मुझे अपना आप अचानक बहुत अकेला लगा। पैर लटके-लटके सूज आये थे...बल्कि सुन्न पड़ने लगे थे...मैंने उन्हें ऊपर कर लिया। ट्रेन तेज़ रफ्तार से उष्ण कटिबंधीय जंगलों से गुज़र रही थी, अप्रैल का महीना था और मौसम गर्म होने लगा था। सुबह के दस बजे ही दोपहर का सा अहसास हो रहा था। भूख भी लग आई थी.. पर मेरे पास क्या धरा था? तीन सेब! एक सैण्डविच! एक भूला-भटका चाय वाला उधर से गुज़रा तो मैंने उसे रोक लिया...

मेरे पास खुले पैसे नहीं थे। छुटके से पूछा...तो उसका जवाब था...`वन मिनट...' जेब से उसने तीन रुपए निकाल कर चुका दिये। मैंने कहा भी कि `आय नीड चेन्ज ऑनली।'

`कमॉन मॉम...' ज्ञ्कहकर वह

खी-खी हंसने लगा।

`सैंडविच?'

`नो थैंक्स...' कह कर उसने जेब से भुने हल्के हल्के भूरे छिलकों वाले नमकीन काजू निकाले और मेरी प्लेट में रख दिये।

मैंने आश्चर्य में भरकर कृतज्ञता से कहा कि ऐसे काजू मैंने पहली बार देखे हैं बिना छिले भुने हुए। उसने बताया कि उनके घर के अहाते में चार काजू के पेड़ हैं...ये काजू उन्हीं पेड़ों के हैं। आते समय `मॉम' ने जबरदस्ती उनके साथ बंाध दिये थे। मेरी कल्पना में एक सांवली छींट की फ्रॉक पहने, दुबली मगर हल्के से निकले पेट वाली वाली ममतामयी क्रिश्र्चियन महिला की छवि तैर गई। मैं कुछ और भी पूछना चाहती थी...एक आम भारतीय उत्सुकता के तहत उनकी निजता के पारदर्शी तरल को छूकर देखना चाहती थी। मसलन वह लड़की तुम्हारी बहन है क्या? तुम्हारी मां ने एक पराये लड़के को तुम्हारे साथ क्योंकर भेजा होगा? कहां जा रहे हो? कब लौट कर घर जाओगे? और ज़रा बताओ तो... क्या-क्या उगा रखा है तुम्हारी मां ने तुम्हारे आहाते में। तुम एंग्लोइण्डियन गोअन क्रिश्र्चियन हो कि कनवर्टी? छि: यह सब पूछकर वह क्या