भाग 17 / हाजी मुराद / लेव तोल्सतोय / रूपसिंह चंदेल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आक्रमण में जिस गाँव को नष्ट किया गया था, वह वही गाँव था जिसमें हाजी मुराद ने रूसियों की ओर जाने से पूर्व रात बितायी थी।

जब रूसी सैनिक गाँव के निकट पहुंचे थे सादो, जिसके साथ हाजी मुराद ठहरा था, अपने परिवार को पहाड़ों में ले गया था। जब सैनिक लौट गये थे सादो ने अपना घर ध्वस्त हुआ पाया था। छत धंसी हुर्ह थी। बाल्कनी के दरवाजे और खम्भे जल चुके थे, और भीतरी भाग तबाह हो चुका था। चमकीली ऑंखों वाले खूबसूरत उसके बेटे का शव, जो हाज़ी मुराद को देखते ही रोमांचित हो उठा था, चादर से ढका हुआ, एक घोड़े पर मस्जिद के पास लाया गया था। उसकी पीठ में संगीन से वार किया गया था। खूबसूरत महिला, जिसने हाज़ी मुराद के ठहरने के दौरान उसकी आव-भगत की थी, फटे ब्लाऊज में, जो आयु के साथ ढीली पड़ गई उसकी छातियों को छुपा नहीं पा रहा था अपने बेटे के शव पर पड़ी हुई थी। उसके बाल बिखरे हुए थे। वह निरंतर चीख रही थी। उसने अपने चेहरे को तब तक खरोंचा था जब तक उससे खून नहीं निकलने लगा था। सादो ने कुदाल और बेलचा लिया था और अपने रिश्तेदारों के साथ अपने बेटे की कब्र खोदने चला गया था। लड़के का बूढ़ा दादा ध्वस्त घर की दीवार के पास बैठा था और शून्यभाव से अपने सामने की ओर निर्निमेष देखता हुआ, एक छड़ी को छील रहा था। वह अभी-अभी अपने मधुमक्खी पालने वाले घेर से लौटा था। वहाँ भूसे के जो दो चट्टे थे जला दिये गये थे। खूबानी और चेरी के पेड़ जिन्हें उसने रोपा था और तैयार किया था उजाड़ दिए गये थे और, सबसे बुरा यह, कि मधुमक्खियों के सभी छत्तों को जला दिया गया था। सभी घरों में और चौराहे पर, जहाँ दो और शव लाये गये थे, महिलाओं का बिलखना सुनाई दे रहा था। छोटे बच्चे अपनी मांओं के साथ चीख रहे थे। भूखे जानवर भी कराह रहे थे, क्योंकि उनके खाने के लिए कुछ शेष न बचा था। बड़े बच्चे खेल नहीं रहे थे, बल्कि भयातुर दृष्टि से बड़ों की ओर देख रहे थे। झरने को प्रदूषित कर दिया गया था, स्पष्टतया सोद्देश्य, जिससे उससे जल न लिया जा सके। मस्जिद भी अपवित्र की गई थी, और मौलवी अपने शिष्यों के साथ उसे साफ कर रहा था। लेकिन एक भी व्यक्ति ने रूसियों के लिए घृणा व्यक्त नहीं की थी। जवान और बूढ़े, सभी चेचेन लोगों ने ; जो भाव अनुभव किया था वह घृणा की अपेक्षा कहीं अधिक उग्र था। वह घृणा नहीं थी, बल्कि इन रूसी सैनिक दस्तों को मनुष्य के रूप में पहचानने से उनका अस्वीकार था। इस प्रकार की घृणा, आंतक और इन मनुष्यों ( सैनिकों ) का विकट क्रूरता से भरपूर अज्ञान उनकी हत्या के लिए चेचेन लोगों को उसी प्रकार प्रेरित कर रहा था, जिस प्रकार चूहों, जहरीली मकड़ियों, और भेड़ियों को मारने के लिए प्रेरित करता है। यह आत्मरक्षा की नैसर्गिक प्रवृत्ति का एक स्वाभाविक भाव था। ग्रामीणें के पास दो ही विकल्प थे। या तो प्रत्येक क्षण उसी प्रकार के विनाश के दोहराये जाने की आशंका से ग्रस्त वे अपने घरों में बने रहें और भयपूर्वक उस सबकी पुन: मरम्मत करें जिसका निर्माण उन्होनें अत्यधिक परिश्रम पूर्वक किया था और जिसे सहजता और लापरवाहीपूर्वक नष्ट कर दिया गया था, अथवा, अपने धर्म के नियमों के विरुद्ध और रूसियों के लिए जो घृणा और अनादर का भाव वे अनुभव करते थे उस सबके बावजूद, वे उनके समक्ष आत्मसमर्पण कर दें।

बुजुर्गों ने नमाज अदा की थी और सर्व- सम्मति से शमील से सहायता प्राप्त करने के लिए दूत भेजने का निश्चय किया था और नष्ट हुई चीजों की मरम्मत का कार्य तुरंत प्रारंभ कर दिया गया था।