भाग 23 / हाजी मुराद / लेव तोल्सतोय / रूपसिंह चंदेल

Gadya Kosh से
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आधी रात के समय हाजी मुराद द्वारा निर्णय लिया गया। उसने निर्णय किया कि उसे पहाड़ों में भाग जाना चाहिए और अपने वफ़ादार अवारों के साथ वेदेना में प्रवेशकर या तो मर जाना चाहिए या अपने परिवार को मुक्त करा लेना चाहिए। वह यह नहीं तय कर पाया कि वह या तो अपने परिवार के साथ रूसियों के पास लौट जाये या उनके साथ हन्ज़ख चला जाये और शमील के साथ युद्ध करे। वह केवल इतना जानता था कि इस समय उसे रूसियों के पास से पहाड़ों में भाग जाना चाहिए। उसने तुरंत अपने निर्णय को कार्यान्वित करना प्रारंभ कर दिया। उसने तकिया के नीचे से अपना काला सूती ट्यूनिक निकाला और अपने आदमियों के कमरे में गया। वे गलियारे के उस पार थे। जैसे ही वह गलियारे में प्रविष्ट हुआ चांदनी रात की ओस भरी ताजगी ने खुले दरवाजे से उसका स्वागत किया, और बगीचे में सीटी-सी बजाती और चहचहाती अनेकों बुलबुलों को सुना जा सकता था।

गलियारा पार करके, हाजी मुराद ने अंगरक्षकों के कमरे का दरवाजा खोला। इस कमरे में रोशनी नहीं थी, केवल अपने चतुर्थाशं में युवा चाँद खिड़की में चमक रहा था। एक मेज और दो कुर्सियाँ एक ओर रखी हुई थीं, और सभी चारों आदमी फर्श पर गलीचों और चादरों पर लेटे हुए थे। हनेफी़ बाहर घोड़ों के पास सो रहा था। दरवाजा चरमराने की आवाज सुनकर हमज़ालो उठ बैठा, उसने हाजी मुराद की ओर देखा, और उसे पहचानकर वह पुन: लेट गया। एल्दार, जो उसके बगल में लेटा हुआ था, उछलकर, खड़ा हुआ और आदेश की प्रतीक्षा करते हुए अपना टयूनिक पहनने लगा। कुर्बान और खान महोमा सोते रहे। हाजी मुराद ने अपना टयूनिक मेज पर रखा, और उसके अंदर की किसी सख्त वस्तु से मेज पटल पर खटखट की आवाज हुई। यह उसमें सिले हुए स्वर्ण रूबल थे।

“इन्हें भी अंदर रख लो,” उस दिन मिले स्वर्ण ( रूबल ) एल्दार को देते हुए हाजी मुराद ने कहा। एल्दार ने सिक्के लिए, तुरंत रोशनी की ओर मुड़ा, अपनी कटार से अपनी छोटी चाकू बाहर निकाली, और टयूनिक के धागे खोलने शुरू कर दिये। हमज़ालो हिला-डुला और अपने पैरों को एक दूसरे पर आड़े-तिरछे रखकर बैठ गया।

“हमज़ालो, लड़कों से बोलो कि वे अपनी बंदूकों और पिस्तौलों पर एक नजर डाल लें और अपना बारूद तैयार रखें। हम लोग कल बहुत दूर जा रहे हैं” हाजी मुराद ने कहा।

“बुलेट, और पाउडर हैं। वह सब तैयार रहेगा” हमज़ालो ने कहा और मूर्खतापूर्ण ढंग से कुछ बुदबुदाया। हमज़ालो समझ गया कि हाजी मुराद ने बंदूकें लोड करने का आदेश क्यों दिया था। प्रारंभ से उसका केवल एक ही उद्देश्य रहा था, जो उनके आगे बढ़ने के साथ मजबूत होता गया था ---- कि यथा संभव अधिक से अधिक रूसी कुत्तों को मारो और काटो और पहाड़ों में भाग जाओ। उसने समझ लिया कि इस समय हाजी मुराद भी वही चाहता था, और इस बात से वह प्रसन्न हुआ था।

जब हाजी मुराद चला गया, हमज़ालो ने अपने साथियों को जगाया, और सभी चारों ने बंदूकों, पिस्तौलों, बारूद और चकमकों का परीक्षण करने, खराब हिस्सों को बदलने, पैन पर ताजा पाउडर रखने, नया नपा-तुला बारूदी पाउडर और पुराने ग्रीज लगे कपड़े में लिपटी गोलियों को अपनी थैलियों में भरने, अपनी तलवारों और कटारों को पैना करने और उनकी धारों को चर्बी से चिकनाने में रात बिता दी थी।

भोर के समय हाजी मुराद अपने वुजू के लिए पानी लेने के लिए पुन: गलियारे में प्रविष्ट हुआ। गलियारे में खड़े होकर, वह रात की अपेक्षा सुबह के निकट होने पर बुलबुलों को और अधिक ऊंचे स्वर में और लगातार गाते हुए सुन रहा था। अपने आदमियों के कमरे से उसे पत्थर पर लोहे की संगीतमय सिसकारी और सनसनाहट सुनाई दे रही थी क्योंकि कटार को पैना किया जा रहा था। हाजी मुराद ने टब से पानी लिया और अपने दरवाजे पर पहुंचा जब उसे एक सुपरिचित गाना गाता हुआ हनेफी का कोमल स्वर, साथ ही सान-पत्थर की आवाज सुनाई दी। वह रुक गया, और सुनने लगा।

गाने के बोल थे कि किस प्रकार बहादुर हमज़त अपने घुड़सवारों के साथ रूसियों से सफेद घोड़ों का झुण्ड हांक ले गया था, किस प्रकार टेरेक के बाहर एक रशियन राजकुमार ने उसको जा पकड़ा था और एक जंगल जितनी विशाल सेना द्वारा उसे घेर लिया था। फिर गाने के बोल थे कि किस प्रकार हमज़त ने घोड़ों का वध किया था, किस प्रकार मृत घोड़ों की रक्तरंजित दीवार की ओट में अपने आदमियों के साथ रुका रहा था और रूसियों के साथ तब तक युद्ध किया था जब तक उनकी बंदूकों में गोलियाँ, उनकी बेल्टों में कटारें और उनकी धमनियों में रक्त था। लेकिन मरने से पहले हमज़त ने आकाश में कुछ पक्षियों को देखा था और उनसे चीखकर कहा था,

“तुम, प्रवासी पक्षियो,
उड़कर हमारे घरों तक जाओ
और हमारी बहनों,
हमारी माँओं,
और सुन्दर बेटियों को
जाकर बताओ कि
हम धर्म युद्ध के लिए मरे हैं।
उनसे कहना कि हमारी लाशें
कब्र में न लेटेगीं,
बल्कि क्षुधातुर भेड़िये
हमारी हड्डियों के टुकड़े
घसीट ले जायेंगे, और
उन्हे चाटेंगे, और
काले कौए हमारी ऑंखों को
चोंच मारकर बाहर निकाल लेंगे। ”

गाने के यही अंतिम शब्द थे, और आखिरी शब्दों को उदास लय में गाया गया था, जिसमें खान-महोमा की उल्लसित आवाज शामिल थी, जो गाने के बिल्कुल अंत में ऊंचे स्वर में चीखा था, “अल्लाह हू “और चीख मर्माहत करने वाली थी। फिर सभी चुप हो गये थे, और एक बार और जो कुछ सुना जा सकता था वह बगीचे में बुलबुलों का स्वर-कंपन और चहचआहट थी और थी दरवाजे के अंदर पत्थर पर तेजी से सरकते लोहे की सिसकारी।

हाजी मुराद इतना तन्मय था कि उसका जग टेढ़ा हो गया था, और पानी उससे बहने लगा था। उसने स्वयं पर सिर हिलाया था और अपने कमरे में चला गया था। सुबह की नमाज़ अदा करने के पश्चात हाजी मुराद ने अपनी गन का निरीक्षण किया था और अपने बिस्तर पर बैठ गया था। करने के लिए अन्य कुछ न था। प्रस्थान करने के लिए उसे पुलिस प्रधान से अनुमति लेना था। लेकिन बाहर अभी भी अंधकार था, और पुलिस का प्रधान सोया हुआ था।

हनेफी के गीत से उसे अपनी माँ द्वारा संरचित एक दूसरा गीत याद आ गया था। यह गाना एक सच्ची कहानी बताता था, जो हाजी मुराद के जन्म के ठीक बाद घटित हुई थी, जिसके विषय में उसकी माँ प्राय: उसे बताया करती थी।

गाना इस प्रकार था –

“तुम्हारे इस्पाती चाकू ने
मेरे गोरे वक्ष को वेध दिया,
लेकिन मैनें दबाया
मेरे फरिश्ते, मेरे बच्चे,
अपने घाव को और
उसे गर्म लहू से धो दिया,
और घाव भर गया
बिना बूटी और जड़ी के,
मैं मृत्यु से भयभीत नहीं थी,
और न योद्धा-पुत्र तुम कभी होना।

इस गाने के शब्द हाजी मुराद के पिता को संबोधित थे, और गाने का आशय था कि जब हाजी मुराद का जन्म हुआ था, खान्शा ने भी अपने दूसरे पुत्र उम्मा खाँ को जन्म दिया था, और हाजी मुराद की माँ की एक दूध पिलाने वाली धाय के रूप में मांग की गई थी, क्योंकि खांशा अपने बड़े पुत्र नुशल खाँ को दूध पिलाती थी। लेकिन फ़ातिमा इस पुत्र को छोड़ना नहीं चाहती थी और उसने जाने से इंकार कर दिया था। हाजी मुराद का पिता क्रुद्ध हो उठा था और उसने उसे जाने का आदेश दिया था। जब उसने फिर जाने से इंकार किया तब उसने उस पर कटार से वार किया था और उसने उसे मार ही दिया होता, यदि उसे बचाया न गया होता। इसलिए उसने उसे अलग नहीं होने दिया था, बल्कि स्वयं उसका पालन-पोषण किया था, और उसने उस विषय में एक गीत की रचना की थी।

हाजी मुराद को याद आया कि उसकी माँ प्राय: यह गीत तब गाती थी जब वह घर की छत पर फर कोट के नीचे अपने बगल में लेटा कर उसे सुलाती थी, और वह प्राय: उससे वह स्थान दिखाने के लिए कहा करता था जहाँ घाव का निशान बचा हुआ था। उसने अपनी माँ को अपने सामने अंतिम बार तब देखा था जब वह उससे अलग हुआ था, हालांकि वह अभी भी जीवित थी। तब उसके न झुर्रियां थीं, न बाल भूरे हुए थे, और दांत झिंझरियों जैसे थे। बल्कि वह युवा, सुन्दर और उतनी ही हृष्ट-पुष्ट थी जितनी तब थी जब वह पाँच वर्ष का था और सचमुच वजनी था। प्राय: वह उसे बॉस्केट में अपनी पीठ पर बांधकर पहाड़ों के रास्ते उसके दादा के पास ले जाया करती थी।

और उसे झुर्रियोंदार, भूरी दाढ़ी वाले अपने दादा की याद हो आयी जो अपने गांठदार हाथों में चाँदी के आभूषण झनझनाते हुए अपने पोते को नमाज के लिए प्रेरित किया करता था। उसे पहाड़ के नीचे वह झरना याद हो आया जहाँ वह अपनी माँ के साथ, उसकी पायजामी से चिपकता हुआ पानी भरने जाया करता था। उसे उस दुबले - पतले कुत्ते की याद आयी जो प्राय: उसका चेहरा चाटा करता था। उसे विशेषरूप से उस समय के धुआं और दूध की तिक्त गंध की याद आयी जब वह घेर में अपनी माँ के साथ जाया करता था, जहाँ वह गायों को दुहती और दूध गर्म किया करती थी। उसे पहली बार अपने सिर के घोटवाने की याद आयी, और उसे याद आया कि अपने नीले गोल सिर को दीवार पर टंगी कांसे की थाल में देखकर वह कितना अचंभित हुआ था।

जब उसने अपने बचपन को याद किया उसे अपने प्रिय पुत्र यूसुफ की भी याद हो आयी, जिसका सिर उसने पहली बार घुटवाया था। इस समय वह एक निर्भीक नौजवान यौद्धा बन चुका था। उसने अपने पुत्र को आखिरी बार जैसा देखा था उसी रूप में उसे उसकी याद आयी। यह वह दिन था जब उसने जेलमस छोड़ा था। उसके बेटे ने उसे अपना घोड़ा दिया था और साथ चलने की अनुमति मांगी थी। वह पोशाक और औजारों से लैस था और लगाम द्वारा उसने अपने घोड़े को रोक रखा था। यूसुफ का खूबसूरत, गुलाबी युवा चेहरा और लंबा, छरहरा बदन ( वह अपने पिता की अपेक्षा अधिक लंबा था ) तरुणाई की साहसिकता और जीवन के आनंद से भरपूर था। उसके चौड़े कंधे, उसकी गठीली युवा कमर, और लंबा, पतला कटि विस्तार, उसकी लंबी, शक्तिशाली बाहें और सभी प्रकार की गतिविधियों में उसकी शक्ति, फुर्तीलापन और दक्षता सदैव उसके पिता के हृदय को प्रसन्नता से भर देती थी, जो अपने बेटे की प्रशंसा किया करता था।

“बेहतर हो कि तुम यहीं रहो। इस समय घर में तुम अकेले पुरुष हो। अपनी माँ और दादी माँ का खयाल रखो। ” हाजी मुराद ने कहा था।

और हाजी मुराद को बेटे के साहस और गर्व का वह भाव याद हो आया जिससे लज्जारुण हो प्रसन्नतापूर्वक यूसुफ ने कहा था, कि जब तक वह जीवित था कोई भी उसकी माँ और दादी को हानि नहीं पहुंचा पायेगा। फिर यूसुफ अपने घोड़े पर चढ़ा था और पिता के साथ नाले तक गया था। नाले से वह वापस लौट गया था और तब से हाजी मुराद ने अपनी पत्नी, अपनी माँ और बेटे को नहीं देखा था।

और यह वही पुत्र था जिसे अन्धा कर देने का शमील का विचार था। उसने यह नहीं सोचना चाहा कि वे उसकी पत्नी का क्या करेगें।

इन विचारों ने हाजी मुराद को इतना उद्वेलित किया कि वह अधिक देर तक बैठा नहीं रह सका। वह उछलकर खड़ा हुआ और भचकता हुआ तेजी से दरवाजे की ओर बढ़ा था, उसे खोला था और एल्दार को आवाज दी थी। अभी तक सूर्योदय नहीं हुआ था, लेकिन पर्याप्त रोशनी थी। बुलबुलें अभी भी गा रही थीं।

“जाओ और गार्ड को बोलो कि मैं घुड़सवारी के लिए जाना चाहता हँ, और घोड़ों पर जीन कसो,” उसने एल्दार से कहा।