भूसे में आम / अभिज्ञात / पृष्ठ 2
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रात पौने दो बजे जब पुलिस की ओर से बाहर से माइक पर घोषणा की जा रही थी कि संतान दल के लोग बालक ब्रह्मचारी की लाश पुलिस के हवाले कर दें वरना उन पर हमला कर दिया जाएगा, तो हम कॉफी पी रहे थे. संतान दल पर पुलिस की घोषणाएं बेअसर थीं. सवा दो बजते-बजते पुलिस ने लौह गेट तोड़ डाला था. ऑपरेशन सत्कार का नेतृत्व करने वाह्ने एसपी रछपाल सिंह ने जैसे ही धाम में प्रवेश किया संतान दल के एक सदस्य ने उनकी जांघ में त्रिशूल भोंक दिया. उसके बाद तो हवाई फायर की आवाज गूंजने ह्नगी. इसके पहले ऑसू गैस के गोले बाहर से ही आम परिसर में फेंके जा चुके थे और लाइट काट दी गई थी.
मणिदीपा के अनुरोध पर उसकी शूटिंग की सुविधा के लिए मैंने धाम की दीवार पर उसके फोटोग्राफर और उसे दीवार पर सहारा देकर चढ़ा दिया और फिर नीचे असहाय और निरूपाय महसूस करने ह्नगा. मैं परिसर में निकल आया जहां ऑसू गैस से आंखों में जलन होने लगी थी. फिर गोलियों की आवाज से लगा कि कहीं उसका निशाना न बन जाऊं . इसी बीच पुलिस ने लाठीचार्ज शुरू कर दिया और मुझ पर भी लाठियां बरसने लगी. आत्मरक्षा के लिए मैं प्रेस-प्रेस चिल्लाने लगा तो एक पुलिसवाले ने इसे ब्लफ समझा और कहा ए खाने प्रेस की कोरे ढूकबे. प्रेस के ए खाने आशा बारन करा आछे.' मैं बेहोश होकर गिर पड़ा. काफी देर बाद मुझे होश आया तो पता चला की मेरे ऊपर काफी बोझ है और गहन अंधेरा. आंखों में जलन और शरीर का पोर-पोर दुख रहा था. मुझे लगा मैं मर चुका हूं. और नर्क में हूं, इसलिए इतनी तकलीफ है. मैंने मृदु को याद किया और प्रतिभा को. मुझे अफसोस हूआ मैंने इन्हें दुखी रखा, नतीजा सामने है. नर्क सचमुच है और मुझे नर्क ही मिला है, लेकिन जल्द ही इसका भान हो गया कि मैं नर्क में नहीं हूं. जीवित हूं और मेरे ऊपर कई और बालक ब्रह्मचारी के भक्त हैं जिन्हें पुलिस ने पीट- पीटकर एक-दूसरे के ऊपर ढेर कर दिया है. तकलीफ में उनके मुंह से बालक ब्रह्मचारी का दिया मंत्र राम नायायण राम' ही निकल रहा था. आखिरकार पुलिस ने एक-एक कर लोगों को उठने को कहा जो नहीं उठ सका उसे खुद मिल-जुल कर उठा लिया और उन्हें पुलिस की गाड़ियों में लादकर विभिन्न स्थानों पर लेकर पटक आने का काम शुरू किया. तो मुझे भी सहारा देकर उठाया गया. पुलिसवाले के सहारे चलता हुआ मैं धाम के बाहर आया तो एक जगह बड़े हर्फों में लिखा प्रेस इक्तफाक से दिख गया. मैंने जोर से दोस्तों को आवाज दी तो जनसत्ता के मेरी ही तरह स्ट्रींगर कृष्णदास पार्थ दौड़कर मेरे पास आए. सहारा देकर वे जनसत्ता की एम्बेसडर तक ले गए. उन्होंने मेरे साथ जाने में असमंजस दिखाई, क्योंकि मुझे अस्पताल ले जाने की तुलना में कवरेज अधिक जरूरी था. मैंने कहा मैं ड्राइवर के साथ अकेले डॉक्टर के यहां चला जाऊंगा.
पार्थ ने ही बताया कि कलकत्ता जाने के सारे मार्ग बंद कर दिए गए हैं. मैंने ड्राइवर को कलकत्ता की उल्टी दिशा की ओर सरकारी बीएनबोस हॉस्पिटल चलने को कहा. हॉस्पिटल में डॉक्टर ने इस बात की सराहना की कि जल्द ही अस्पताल पहुंच कर मैंने अच्छा किया है. वरना दाएं हाथ की जो अंगुलियां टूट कर इधर-उधर हो गई हैं वे जहां अधिक देर तक रहेंगी वहीं जुड़ने लगेंगी. उसने कोशिश की की छितराई हड्डियां अपनी सही जगह पहुंच जाएं. दूसरे हाथ, दोनों घुटनों और पीठ पर लाठियों के निशान साफ दिख रहे थे. डॉक्टर ने कहा कि पेनकिलर दवाएं वह दे रहा है, मगर तत्काल मुझे किसी बड़े डॉक्टर के यहां कलकत्ता निकल जाना चाहिए और अपने परिवार से भी मिल लेना चाहिए, क्योंकि लाठी की चोट का कोई ठिकाना नहीं कब क्या हो जाए. कलकत्ता जाने का रास्ता खैर तब तक बंद ही था मैं अपने घर गया था. जहां से दो घंटे बाद कलकत्ता. गनीमत यह थी कि तमाम एक्स-रे के बावजूद केवल दाएं हाथ की हड्डियों में ही फ्रैक्चर था, लेकिन पीठ की चोट को लेकर डॉक्टर संशय में थे. चोट अंदरूनी तौर पर कुछ भी असर कर सकती थी. मैंने बैंडेज तो करा लिया पर किसी भी अस्पताल में एक दिन को भी भर्ती नहीं हुआ. मैं अपने घर में अपनों के बीच ही दम तोड़ना चाहता था. डेढ़ माह तक पेनकिलर दवाओं ने मेरे दर्द से निजात दिलाने में मदद की. मेरा संकट यह था कि मैं किस तरह से सोऊं हर करवट किसी न किसी जख्म की जद में थी. इसलिए इसकी परवाह छोड़ दी. और नींद दवाओं के असर से आती रही. हर बार निगाह खुलती तो लगता कि मैं जिन्दा हूं अभी. जीवन की इसी अनिश्चयता और पेनकिलर दवाओं के रहम पर दर्द सहते क्षणों में प्रतिभा ने फिर मां बनने की कोशिश की थी. और जिसका मरा चेहरा तक वह नहीं देख पाई थी. और इसलिए वह उस दुख से बच गई जो जिन्दगी भर उसका पीछा नहीं छोड़ता. उसके लिए दूसरी बेटी का जन्म अनुभव और कल्पना का मिला-जुला हिस्सा रहा. प्रत्यक्षीकरण नहीं हुआ था.
वह असह्य दर्द से गुजरी जरूर थी, पर बेटी के शव को उसके शरीर से निकालते वक्त वह बेहोश थी. बाद में वह कई दिनों तक सन्नाटा महसूस करती रही और दूसरे शिशुओं को देख कर मायूस होती रही. छोटे शिशु को गोद में ह्नेने की ख्वाहिश उसमें आज भी बरकरार है जो दूसरी बेटी ने अपने को खोकर उसने पैदा किया था. मुझे पता भी चला था वह दारण औलाद खोने का दुख. सफेद कपड़े में अपनी बाहों में लेकर गया था उस खूबसूरत बच्ची को और रासमणिघाट पर हुगली के तट पर गीली नर्म मिट्टियों के बीच उसी तरह गाड़ आया था, जिस तरह बचपन में भूसे में आम. मैं नहीं जानता मैंने संस्कार भी पूरे और सही तौर पर किए थे या नहीं, क्योंकि उस वक्त मुझे इसकी जानकारी देने वाला कोई और नहीं था सिवा ओड़िया चित्रकार मित्र अमर पटनायक के. उसने जो-जो कहा मैंने किया. बस उसने मुझे रोने से चुप होने को कहा था जो मुझसे नहीं हो सका था. उस दिन मैं कह सकता हूं कि मैं दो मील रोया था, क्योंकि अस्पताल से घाट की दूरी एक मील जरूर होगी जो मुझे पैदल तय करनी पड़ी थी और जो कट ही नहीं रहा था. मैं डर रहा था कि बच्ची कहीं हाथ से फिसल न जाए. उतने छोटे बच्चे को मैंने कभी गोद में लेने का जोखिम नहीं उठाया था. मृदु को काफी बड़ी होने के बाद मैंने गोद लिया जिसका ताना आज तक प्रतिभा देती है कि मैं क्या जानूं बेटी को प्यार करना जिसने छुटपन में गोद लिया ही न हो.
बालक ब्रह्मचारी की जोरदार कवरेज का इनाम यह मिला कि मेरी रिटेनरशिप में पांच सौ से बढ़ाकर आठ सौ कर दी गई अर्थात तीन सौ रपए का इजाफा.(छपी हुई खबरों पर 2 रूपए पंद्रह पैसे की अदायगी अतिरिक्त थी ही.)और इलाज के खाते में एक हजार रुपए. घर में डेढ़ माह विस्तर पड़े रहने की वजह से कारोबार लगभग बैठ गया. ठीक होने पर अपनी शोध निर्देशिका से मिलने और शोध कार्य जमा करवाने की तिथि बढ़वानेका मिजाज बना तो पता चला कि उन्हें कैंसर हो गया है वे दिल्ली में इलाजरत हैं और आखिरकार इस बीमारी ने उनकी जान ले ली. मैं उनसे मिल ही नहीं पाया. यह अनायास नहीं है कि सात-आठ सालों तक काम करने के बाद जनसत्ता' जैसे बड़े नाम वाले अखबार को छोड़कर मैंने सांध्य दैनिक महानगर' और उसके बाद दैनिक छपते-छपते' में पूरी निष्ठा के साथ जिम्मेदार पदों पर काम किया. और शायद इन्हीं सब में जिन्दगी खपा दी होती, अगर विवेकवान और सुसंस्कृत रामेश्वर पाण्डेय ने अमर उजाला' में उपसंपादक के पद पर उस सम्मानित तथा मेरी इच्छित राशि पर काम दिया, जो बहुत कम को दिया गया था. मुझसे कलकत्ता छुड़ा लेना उन्हीं के सम्मोहक व्यक्तित्व का कमाल था. और फिर जो छूटा तो फिर हाथ से निकला सा ही लगता है.
अस्तु, प्रतिभा को एक और औलाद इसलिए चाहिए कि हमने अपनी बेटी को जिस उम्र में और जिन हालातों में जन्म दिया था उसमें औलाद के बारे में सोचा तक न था. बेटी का हमारे जीवन में पदार्पण हमारे जीवन में अप्रत्याशित था. और हम दोनों ही यह कहीं न कहीं यह तल्खी से महसूस करते हैं कि मन से औलाद पाने की आकांक्षा काफी बाद जगी तब तक बेटी उतनी बड़ी नहीं रह गई थी कि वह गोद में आसानी से समा सके. जब वह अपनी मां की तरह फर्राटेदार उर्दू, मिश्रित हिन्दी और पापा की तरह ग्रामर की भूलों भरी अंग्रेजी बोलने लगी तो हमें तुतलाने वाली बच्ची चाहिए थी. जिस उम्र में हम उसे रोने से चुप कराने की तरकीबों के बारे में जान पाए वह शा/ीय संगीत में गायन की भी चार कक्षाएं पास कर चुकी थी.
इन कविताओं के लिखने की वजह शायद अपनी उस व्यथा को अपनी बेटी की व्यथा में शामिल करना है जो हमने लगभग मिलती-जुलती सी झेली है. जिन हालातों में मेरा जन्म हुआ था मेरी मां को मेरे पिता के बारे में जानकारी नहीं थी कि वे कहां हैं. लखनऊ में अच्छी खासी सरकारी नौकरी उन्हें महज इसलिए रातों रात छोड़कर भागनी पड़ी थी कि गांव के पितृहीन संयुक्त परिवार के सदस्यों की वे लखनऊ शहर में तीमारदारी करने में कर्जदार हो उठे थे.
मेरी मां को उन्होंने गांव पहुंचा दिया था और रोजगार की तलाश में वे कहीं गुम हो गए थे. और मेरे जन्म के महीनों बाद यह पता चला था कि वे मुंबई में हैं. मैंने होश मुंबई में संभाला था, मगर फिर रोजगार पर संकट आया तो मुझे फिर गांव पहुंचा दिया गया और दीदी को बलिया हमारी ननिहाल में. गांव में पहली कक्षा में जब मैं पढ़ने गया तो मेरी मां गांव में ही थीं, मगर उसके बाद के दो तीन साल मेरी गर्दिश के रहे. मां मेरे बाबूजी के पास मुंबई चली गई थी और वहां से रोजगार के फेर में नागपुर के पास तुमसर. मैंने चौथी की परीक्षा दी और मैं बलिया से आई मेरे गांव कम्हरियां आई दीदी के साथ गांव के पास के तुमसर में कार्यरत एक अनजान व्यक्ति के साथ तुमसर पहुंचा था.
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