भूसे में आम / अभिज्ञात / पृष्ठ 3

Gadya Kosh से
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ये तीन साल मेरी जिन्दगी के उन सालों मेें से हैं, जिन्होंने छोटे-छोटे सुख और बड़े-बड़े दुख दिए हैं और जो आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ते. गांव में मेरे लिए कहानियां ही थीं जो मुझे असह्य होती यातना से किसी हद तक उबार सकती थीं पर जिन्होंने मेरी यातना को बढ़ाया भी. दादी की कहानियां सुनते हुए मैं सो जाता था. पर नींद में उन कहानियों की दुनिया में प्रवेश करने के बाद वह दुनिया यथार्थ से अधिक खौफनाक लगने लगती है. मुझे भयानक सपने अधिक आते और कई बार नींद टूटने पर भी मैं भय से कांपता रहता और फिर नींद न आए इसी कोशिश में लगा रहता. मुझे सपनों से डर लगने लगा था, पर नींद से बचने का कोई उपाय न था.

गांव में दादी के दुलार में कमी न थी, लेकिन और कहीं दुलार न था. बड़ी मां थी, जिसने मेरी मां के प्रति छिपी अपनी दुर्भावना का शिकार मुझे बनाया था. बड़े पापा उन दिनों इलाहाबाद में थे. गांव आते तो नई चीजें मुझे देखने को मिलती उसमें सबसे आकर्षक इंक पेन थी. मुझे उन दिनों सुन्दर लिखावट का शौक था और इस आकर्षण ने मुझे पूरे गांव में चोर घोषित कर दिया था. कमरे में पापा ने जहां पेन रखा था मैं मौका देख वहां पहुंच गया था और उस पेन को खोलकर देख ही रहा था कि किसी के आने की आहट ने मुझे ऐसा भयभीत कर दिया कि मैंने पेन अपनी जेब में रख ली थी. और पेन लेकर मैं स्कूल चला गया था. वहां एकांत में जाकर मैंने एक कागज पर पहली बार किसी पेन से लिखकर देखा था. उन दिनों लकड़ी की काली तख्ती दुध्दी से लिखने तक का ही मुझे अनुभव था. मुंबई के दिनों में स्लेट पर पेंसिल से लिख चुका था जिसका स्मरण भर था. फिर सुंदर लिखावट का नया शौक जगा था.

कागज पर पेन की सुंदर अपनी लिखावट पर मैं खुद विस्मित और रोमांचित था. मैं अपने दोस्तों को वह अपनी लिखावट दिखाए बगैर नहीं रह सका था. और अपनी चचेरी बहन को भी दिखाए बिना नहीं रहा जो मेरी ही कक्षा में पढ़ती थी और जिससे मेरी पेन चोरी की कलई खुली.

शाम को घर लौटा तो पेन मेरे बस्ते के हवाले हो चुका था. और मैं घर लौटकर यह भूल चुका था कि पेन जैसी नायाब कोई चीज भी मेरे हाथ लगी है, लेकिन घर पर यह सबको पता चल चुका था कि पेन गायब हो चुकी है. और मैं जब तक खेल कर लौटता मेरे बस्ते से पेन बरामद भी की जा चुकी थी. और मेरे चोर होने की सार्वजनिक घोषणा भी. मुझसे किसी तरह की पूछताछ नहीं हुई थी. पापा ने एक शब्द भी नहीं कहा था. (मैं स्वर्गीय पापा और बाबूजी को एक ही नजर से देखता हूं. इन दोनों भाइयों में एक ही साम्य रहा कि ये दोनों ता-उम्र इतने भले आदमी बने रहे कि कभी किसी बुराई का विरोध तक करने की जहमत नहीं उठाई), लेकिन बड़ी ने उलाहनों और व्यंग्य बाणों से बेधने का क्रम जब तक मैं गांव में रहा जारी रखा. आंगन में जहां रोटियां पक रही होती थीं और खा रहा होता था रोटियां ही नहीं साथ उलाहने भी परोसे जाते थे. चाची, बुआ, आजी उनकी बातें सुनती रहतीं. मेरे पक्ष में खड़ा होने की आवश्यकता किसे थी. पड़ोस की औरतों के आने पर उन्हें इस कार्य में अधिक उत्साह जगता.

ऐसा ही अवसर मैंने उन्हें फिर दे दिया था. चचेरे बाबा (दादाजी) के घर पास के गांव रोआंपार में किसी विशेष उपलक्ष्य में भोज था. राह में आम के बगीचे थे. घर के ही कुछ और बच्चों की तरह मैंने भी टिकोरे तोड़ने के ह्निए पत्थर चलाया था, मगर टिकोरा गिरा तो मेरे इकलौते चचरे भाई ने दौड़कर उठा लिया. तभी एकाएक वह पत्थर भी उसके सिर पर गिर गया जो पत्तों व डाल के बीच अटका हुआ था. चोट से उसका सिर फट गया और खून निकलने लगा. बड़ी मां का सामना करने से बचने के लिए मैं वापस घर भाग आया और आंगन में भूसे के कमरे में वहां जाकर जो उसका सबसे ऊपरी हिस्सा होता है. ऊपरी हिस्से पर आसानी से किसी की नजर नहीं जा सकती थी. भूसा निकालने वाले की भी नहीं.मैं उस अंधेरे कमरे में भूखा पड़ा रह गया. रात को लोग परोजन से लौट आए थे, लेकिन चर्चा सिर फटने की ही थी. कहा यह जा रहा था कि चूंकि भाई ने मेरे द्वारा तोड़ा गया आम ले लिया था इसलिए मैंने उसे जानबूझ कर दूसरे पत्थर से मारा था. खैर चोट गहरी नहीं थी इसलिए थोड़ा सा खून गिरा था. किसी ने इसकी चिन्ता नहीं की कि मैं कहां हूं. मां ने यही कहा था होगा कहीं. अपनी बला मेरे मां बाप ने उनके सिर डाल दी है और शहर में मौज कर रहे हैं.

मैं दूसरे दिन भी यूं ही भूसा घर में पड़ा रहा. भूख और प्यास से हालत पतली हो गई थी. मुझे बुखार हो गया था. और रह-रह कर मैं निद्रावस्था में चला जाता था और जहां से स्वप्नों की उस दुनिया में जहां भयानक अजगर मेरा पीछा कर रहे होते थे. नींद टूटने पर भी जिसकी सिहरन असर करती. पर वह भूसा घर और उसका दमघोंटू अंधेरा कम असह्य न था और कई बार तो सपने और हकीकत का फर्क मिटता-सा लगा. वास्तविकता को मैं स्वप्न समझ बैठा और यह सोचकर संतोष करने लगाकि नींद टूटते ही सब ठीक हो जाएगा. मुझे आंगन में सबकी बातचीत की आवाज सुनाई देती, मगर वह किसी और ही दुनिया की लगती. दूसरे उस बातचीत में मैं होता तो भी किसी में मेरे प्रति ममता नहीं थी. नफरत की ये बातें ऐसी चुभतीं कि उसके आगे यह भूसे की लगातार चुभन मामूली लगती. और मेरे लापता होने के तरह-तरह के कयास लगाए जाने लगे थे. किसी ने मेरे मां-बाप को घर से भाग जाने की सूचना देने की आवश्यकता पर जोर दिया तो किसी ने मेरे मर-खप जाने तक का अनुमान लगाया. मुझे सबके सामने जाने में इतनी शर्म आने लगी थी, उससे मृत्यु की कल्पना भली थी.

तीसरे दिन सुबह नौकर ने भूसा निकालते वक्त मेरी छींक की आवाज सुनी तो सबको मेरे छिपे होने का पता चला तो शर्म जाती रही और जान बची.

यह वही भूसा घर है जिसमें मैंने गांव से विदा होने की एक रात पहले आई आंधी में गांव के अन्य बच्चों के साथ लूटे गए टूटे आमों को गाड़ दिया था, पकने के लिए. दूसरे दिन तड़के हमें एक मील दूर मेंहनाजपुर बस पकड़ने कूच करना पड़ा था. बस में बैठने तक मुझे जो कुछ पीछे छूटने की टीस थी उसमें ले देकर ये आम थे. आज सोचता हूं तो हैरत होती है कि जो बच्चा चार साल तक एक गांव में रहा उसकी गांव में जमा पूंजी कुल इतनी थी. इसके क्या कारण रहे होंगे यही महसूस करना मेरी रचनात्मकता की चुनौती भी है और पूंजी भी. मैं चाहता हूं कि मेरी बेटी वह आम खोजे, जो उसके पिता की बचपन की कुल थाती थी.

तुमसर में मुझे जो मां मिली थी वह दूसरी थी. वह नहीं जिसे मैंने बचपन में खोया था. वह अब मेरी नहीं मुझसे छोटे उस भाई की मां थी, जो इस बीच पैदा हुआ था. जो मुझ जैसे गंवई बेटे की अपेक्षा सभ्य था. जो खड़ी हिन्दी बोलता था और उन दिनों अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ता था. मैं तो उन दिनों उस सिलिंग फैन से भी डरता था कि कहीं वह सिर पर गिर जाए. धूप में दिन भर खेलते रहने से गेहुंआ रंग सांवला हो गया था और औरतों में मेरी मां बातचीत में कहने लगी थी कि मेरे बच्चों में यही पता नहीं किस पर गया है.

मैंने सोचा था यहां बड़ी मां से छुटकारा मिलेगा मगर यहां वह मेरी ही मां के रूप में मौजूद थी. मेरे लिए गांव और तुमसर में कोई फर्क नहीं था. मैं कभी अपनी मां से आत्मीयता से लिपट नहीं सका. अपने सीने में उसके प्रति तमाम चाहतों के बाद उससे लगातार बेगानापन महसूस करता रहा. और मैं उसके लिए अब भी सौतेला हूं. अपने पांच भाई-बहनों में पहले सबसे अपेक्षित. और सबसे छोटी बहन एक ही घर में ब्याही गई तब से दीदी भी मेरी कतार में हैं.