माधवी / भाग 2 / खंड 4 / लमाबम कमल सिंह

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आगे कुआँ पीछे खाई

“ मनुष्यों के कोलाहल से दूर

दूर पक्षियों की चहचहाहट से

वन के पेड़-पौधों के समीप बैठ

पहाड़ी तामना(ताम्ना: ताम्-ताम् की सुरीली आवाज में बोलनेवाली एक चिड़िया विशेष।) के जैसे स्वर में

गा रही एकाकी व्यथा-गीत। “

समय का प्रवाह कितना बलवान होता है। पर्वत, प्रभंजन की गति रोक सकता है, बड़ी-बड़ी नदियों की धारा समुद्र बाँध सकता है - लेकिन समय के प्रवाह को रोकने वाला कौन है? किस हिमालय में, किस इन्द्रदेव में, किस रावण में समय को क्षण-भर के लिए भी रोकने की शक्ति थी! बड़े-बड़े सम्राटों की अपार श्री-सम्पदा और गुण-शक्ति को देखते-देखते समय की धारा चलती जाती है, पल-भर को भी खड़ी नहीं रहती; दरिद्र और दीन-दुखियों का दुख-दर्द देखते हुए बहती जाती है। पति-वियोगिनी, सन्तान से बिछुड़े लोगों का विलाप सुनते-सुनते भागती जाती है, थोड़ी देर के लिए भी मुड़कर नहीं देखती। अनेक विराट प्रासाद, अट्टालिकाएँ, फल-फूलों के उद्यान समय के प्रवाह ने खंड-खंड कर दिए! अनेक उज्जयिनियाँ, हस्तिनापुर समय की धारा में लुप्त हो गए-इतने सारे बड़े-बड़े पर्वत, प्रासाद, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, मनुष्य-सब एक दिन समय की धारा में बह जाएँगे।

इस प्रकार समय किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता-दुखी दुख में बीत जाता है, सुखी सुख में। उरीरै के लिए भी दुख भरी रात्रि बीत गई, सुबह होने लगी। पूर्वी आकाश को उजाले से अलंकृत करते हुए सूर्य हरे पर्वत की ओट से निकलने लगा। पक्षीगण चहचहाने लगा। शे ङानुथङ्गोड् पंक्तियों में उड़ने लगे। हिरणियाँ पहाड़ से तराई की ओर भाग आने लगीं। कल की कलियाँ पूर्ण रूप से खिलने लगीं। लैपाक्लै पुष्प, जो कल तक कहीं नहीं दिखाई देता था, अब धरती पर अपने छोटे कद में खिलने लगा। सभी प्राणियों के इस हर्षोल्लास और प्राकृतिक सौन्दर्य को देख मनुष्य के मन में भी खुशी उत्पन्न होती है - उतना ही नहीं, जैसे सुबह के समय लता-बेलों पर नव किसलय अंकुरित होते हैं, वैसे ही मनुष्य के मन में भी नवीन आशा का अंकुर फूटने लगता है। उसी प्रकार के आशा के अंकुर के साथ उरीरै जागकर बिस्तर से उठी।

उरीरै को जागते देख माँ बोली, “बेटी, क्या हुआ, तुम्हारा चेहरा तो फूलने लगा है?” उरीरै क्या उत्तर देती! “प्रियतम के ख्याल में रात-भर रोती रही हूँ”, ऐसा कहती तो सच्चा उत्तर होता। प्रेम-दाह की शिकार होते हुए भी अविवाहित लड़कियों में से कौन इस प्रकार का उत्तर दे सकती है! उरीरै भी नहीं दे सकी। झूठे उत्तर के साथ 'अस्वस्थ हूँ' कहने के सिवाय कोई चारा नहीं था, किन्तु ऐसा उत्तर भी नहीं देना चाहती, इसलिए उरीरै के सामने चुप रहने के सिवाय कोई अपाय नहीं था। हे लज्जा! तुम्हारा जाल बिछना शुरू हो गया है न!

दूसरी और उरीरै का हृदय प्रेम-दाह से अनवरत जलना शुरू हो गया। सुबह इसी समय वीरेन् को यात्रा करनी है, अगर यह समय निकल गया तो फिर उसे नहीं देख पाऊँगी, ऐसा सोचने ही शरीर को ठंडक पहुँचाने वाली सुबह का समय होते हुए भी पसीने की बूँदें चुचुआने लगीं। संकोच द्वारा लज्जा को सहयोग प्रदान करने से प्रेमी-प्रेमिकाओं को दुख के गह्नर में ढकेल दिया जाता है। प्रेम करने से पहले खुले रूप में पुकारा जा सकता है, निस्संकोच होकर फल या फूल दिया जा सकता है, लेकिन प्रेम हो जाने के बाद यह संकोच रहता है कि उसे पुकारते समय किसी ने सुन लिया तो! कोई चीज देने में भी संकोच हो आता है कि कहीं किसी ने देख लिया तो! इसलिए उरीरै के मन को भी संकोच ने घेर लिया और वह सोचने लगी, “एक लड़की कैसे अकेली जाएगी?” उरीरै अपने कदम नहीं बढ़ा सकी। उस समय माँ और बाप दोनों उरीरै के पास नहीं थे। अवसर पाते ही प्रेम-प्रवाह द्वारा लज्जा के बाँध को तोड़ दिए जाने पर, “जो भी होगा, होगा, अवश्य जाऊँगी” यह सोचते हुए अपने पाँव बढ़ाए; सड़क पर लोग आते-जाते दिखाई दिए। उन्हें देखकर उसके पाँव रूक गए। सुनसान सड़क पर एक लड़की का अकेली होना सन्देहास्पद होता है। निरुपाय होकर वह हैबोक् पर्वत की ओर चली गई। तब तक वीरेन् और धीरेन्, विदा देने आए मित्रों के साथ चलने के लिए निकले।

हैबोक् पर्वत पहले से ही निर्जन जगह थी। इस पर्वत की चोटी पर चढ़कर उरीरै ने मित्रों के साथ जा रहे वीरेन् को गौर से देखा। अनवरत बहते आँसुओं के कारण वीरेन् को साफ-साफ नहीं देख सकी-पतले कुहरे से नेत्र ढँक जाने के कारण धुँधला दिखाई देने लगा। बिना रूके चलने के कारण वीरेन् यूँ ही दूर होता गया। प्रियतम के चहरे को साफ-साफ न देख सकने के कारण ऊँचे पर्वत पर चढ़ी होने पर भी उरीरै पंजों के बल उठकर बिना पलकें झपकाए देखने लगी। देखते-देखते वीरेन् एक हरियाले पर्वत के समीप पहुँच गया। उरीरै लम्बी-लम्बी साँसें भरने लगी, उसे क्षण-भर को भी चैन नहीं मिला, लगता था कि अग्नि-कुड में कूद पड़ी है। उरीरै अपने मन को विरह-दाह भीतर छिपाकर नहीं रख सकी, फूट-फूटकर रोते हुए पर्वत पर ही बेहोश हो गई। हे विरह-दाह! देर रात्रि के समय, सन्नाटे में, स्वच्छ चाँदनी में, विभिन्न फूलों से भरे उद्यान में या निर्जन वन में तुम अपनी हजारों जिह्नाएँ लपलपाकर वियोगाग्नि में लपते प्रेमी-प्रमिकाओं के हृदय चीरकर रक्त चूसते हो, लेकिन जहाँ लज्जा का राज्य है, वहाँ तुम घुस नहीं सकते। उरीरै को निर्जन में पाकर तुमने उसका रक्त चूस लिया, है न!

हे लज्जा! भीड़-भाड़वाले स्थान या सम्मानित लोगों के साथ होते समय तुम किसी को भी अपने जाल में फाँस लेती हो, लेकिन निर्जन स्थान पर तुम किसी के समीप भी नहीं पहुँच सकतीं।

थोड़ी देर बाद जब होश आया, तो उरीरै फिर वीरेन् को देखने लगी, किन्तु नहीं देख पाई। एक पर्वत ने निष्ठुर राक्षस की भाँति उसकी प्रेम भरी दृष्टि को रोककर वीरेन् को अपनी ओट में छिपा लिया।

पहले वीरेन् विदा देने आए मित्रों के संग जा रहा था। अब वे सब लौटने के लिए आज्ञा माँगने लगे। वीरेन्द्र सिंह और धीरेन्द्र सिंह दोनों ही रह गए।

चलते-चलते दोनों विद्यार्थी मणिपुर की सीमा पर स्थित एक ऊँचे पहाड़ की चोटी पर पहुँच गए और वहाँ से एक बार अपनी जन्मभूमि को देखा। दूर ऊँचाई से देखने के कारण दृश्य रम्य लगा, कभी अपनी मातृभूमि से बाहर न निकलने के कारण मातृभूमि बहुत प्रिय लगी और पहाड़ का मनोरम दृश्य-इन सबके साथ अपने-अपने हृदय मातृभूमि में ही छोड़कर चले आने के कारण दोनों विद्यार्थियों के मन में अत्यन्त दुख उत्पन्न हुआ। “वह बाजार है”, “वह नदी है”, “वह हमारा गाँव है” ऐसा कहते हुए उँगली से संकेत करके देखने लगें। जब वीरेन् ने नोङ्माइजिङ् पर्वत को देखा, तो उसने उरीरै के लिए जितना कष्ट सहा था, उसकी याद करके दूर छूट गई उरीरै के लिए आँखों से आँसू बहाए। उसके बाद हैबोक् पर्वत, जन्मभूमि काँचीपुर को देखा तो उरीरै से बिछुड़ने के दुख के साथ-साथ मन में और क्या-क्या सोचने लगा, इसी कारण वह आँसुओं से भीग गया। तब धीरेन् ने पूछा, “मित्र किस दुख के कारण इतना रो रहे हो?” वीरेन् ने उत्तर दिया, “घर पर अपने माँ-बाप और छोटे-छोटे भाई-बहनों को छोड़कर चले आने के बारे में सोचते ही मन बहुत व्याकुल हो उठा है। इसलिए रो रहा हूँ!” सचमुच तो, वीरेन् ने उरीरै के लिए आँसू बहाए थे। धीरेन् के मन में भी कुछ-कुछ शर्मिन्दगी महसूस हुई।

दोनों विद्यार्थी कलकत्ता पहुँच गए। अकर्मण्य जीवन अत्यन्त दुखदायक होता है। बिना विश्राम किए अपने कर्त्तव्य में विशेष रूचि रखनेवाले व्यक्ति के मन में दुख आसानी से प्रवेश नहीं कर सकता। वीरेन् की इच्छा थी कि वह अपने मित्रों से अधिक श्रेष्ठ, योग्य और चर्चित विद्यार्थी बने, इसीलिए अपने अध्ययन में अधिक रुचि लेने के कारण वह उरीरै को कुछ-कुछ भूलने लगा। विदाई के समय उरीरै की लज्जा और उरीरै के मन को ठीक से न पहचान सकने के कारण वीरेन् का हलका गुस्सा, इसी वजह से वीरेन् उरीरै को कुछ हद तक भुला सका। और इसीलिए उरीरै को पूरी तरह भुला न सकने पर भी विरह-दाह पहले के जैसा तेज नहीं रहा। दोनों मित्रों ने निश्चय किया कि जब तक कॉलेज की अन्तिम परीक्षा नहीं दे देंगे, तब तक अपनी मातृभूमि नहीं लौटेंगे।